संपादकीय
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एक सामाजिक कार्यकर्ता ने अभी एक दिलचस्प बात लिखकर पोस्ट की है कि आज दुनिया के एक सबसे विकसित इलाके, योरप ने अपनी महिलाओं को दिन में दो-तीन बार रोटी बनाने से आजादी पहले दे दी थी। वहां बाजार में बेकरी की बनी हुई डबलरोटी का चलन है, और वह हिन्दुस्तानी घरेलू रोटी का विकल्प है। जिन सामाजिक कार्यकर्ता ने यह बात याद दिलाई है, उनका अंदाज है कि भारत में एक महिला पूरी उम्र में पांच-छह लाख रोटियां बनाती है। उनका यह भी मानना है कि अमूमन हर मर्द गर्मागरम रोटी चाहते हैं। उन्होंने यह बात महिलाओं के हक को लेकर की है, लेकिन योरप से परे जिन मुस्लिमों देशों में महिलाओं के हक बड़े कम दिखते हैं, वहां की हालत भी इस मामले में दिलचस्प है कि महिलाओं को वहां घरों में रोटी नहीं बनानी पड़ती। अधिकतर देशों में बाजार में तंदुरवाले रहते हैं और वहां बड़ी-बड़ी रोटियां बनी हुई बिकती हैं जिन्हें खरीदकर ले जाने का चलन है। गरीब लोग भी बाजार से रोटी खरीद लेते हैं। कम से कम महिलाओं के मत्थे रोटी बनाना नहीं आता है।
अब हिन्दुस्तानी महिलाओं के हक और उनकी जिम्मेदारियों की बात करें, तो गरीब महिला को बाहर भी काम करना होता है, और घर भी संभालना होता है। मध्यवर्गीय महिलाओं की हालत भी तकरीबन ऐसी ही रहती है। और संपन्न तबके की महिलाओं से भी घरबार की देखभाल, सामाजिक संबंधों को निभाना, ऐसी कई उम्मीदें की जाती हैं। उनमें कामकाजी महिलाएं शायद कम होती होंगी, लेकिन उनके जिम्मे भी परिवार के रिश्तों और परंपराओं को निभाना, सामाजिक मौजूदगी दिखाना जैसे कई काम आते हैं, जिसे उनकी किसी तरह की उत्पादकता में नहीं गिना जाता। आज इस चर्चा का मकसद यह है कि भारतीय महिला के पारिवारिक और आर्थिक योगदान को कम दिखाने वाली कौन-कौन सी परंपराएं हैं जो कि उसे गैरकामकाजी साबित करती हैं। बातचीत में देखें तो जो महिलाएं बाहर काम नहीं करती हैं, उनका जिक्र इसी तरह होता है कि वे कोई काम नहीं करती हैं, वे घरेलू महिला हैं। जबकि घर के कामकाज को देखना, बच्चों को पैदा करना और बड़ा करना, यह किसी मर्द के बाहर किए जाने वाले, और कमाऊ लगने वाले काम से अधिक मेहनत का काम रहता है, लेकिन उस महिला को कामकाजी भी नहीं गिना जाता। जब देश की वर्कफोर्स की चर्चा होती है, तो उसमें महिलाओं की हिस्सेदारी हिन्दुस्तान में 20 फीसदी के करीब गिनी जाती है। जबकि हकीकत यह है कि मर्द काम करें या न करें, हिन्दुस्तानी महिलाएं तो तकरीबन सौ फीसदी कामकाजी रहती हैं, और जो सबसे संपन्न तबका है वह आबादी में किसी प्रतिशत में नहीं आता।
इससे दो नुकसान होते हैं, एक तो समाज में महिलाओं की स्थिति कभी सम्मानजनक नहीं बन पाती क्योंकि उसे बस घर बैठी हुई मान लिया जाता है। जो 20 फीसदी महिलाएं कामकाजी हैं उनको लोग जरूर कामकाजी मानते हैं, और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता उन्हें समाज में एक अलग किस्म का दर्जा दिलाती है, और वे अपने अधिकारों को कुछ अधिक हद तक हासिल कर पाती हैं। दूसरी तरफ जो घर के बाहर के औपचारिक कामों में नहीं लगी रहती हैं, या घर के भीतर से कुटीर उद्योग या गृहउद्योग किस्म की जाहिर तौर पर कमाऊ गतिविधि में शामिल नहीं रहती हैं, उन्हें बस बच्चे पैदा करने वाली, और घर चलाने वाली मान लिया जाता है।
यह नौबत बदलने की जरूरत इसलिए है कि कोई भी महिला उसके योगदान की अनदेखी के साथ न तो आगे बढऩे के लिए कोई हौसला पा सकती है, और न ही देश को उसका कोई महत्वपूर्ण योगदान मिल सकता है। दुनिया में बहुत से ऐसे देश हैं जहां पर महिलाएं क्रेन चलाती हैं, बुलडोजर चलाती हैं, खेतों में बड़ी मशीनें चलाती हैं, और यह साबित करती हैं कि एक भी ऐसा काम नहीं है जो उनके लिए मुश्किल हो। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में बहुत से कामों में महिला को कमजोर मान लिया जाता है, उसे मौके ही नहीं दिए जाते, और एक महिला की खास जरूरतों के मुताबिक काम का माहौल नहीं बनाया जाता। मर्द तो किसी भी दीवार के किनारे खड़े होकर पेशाब कर लेते हैं, लेकिन हिन्दुस्तान की सार्वजनिक जगहों पर, कामकाज की जगहों पर महिला के लिए ऐसी कोई सहूलियत अनिवार्य रूप से नहीं बनती है, और उन्हें किसी भी तरह की आड़ ढूंढकर अपना काम चलाना पड़ता है। गांव-देहात में स्कूलों में भी लड़कियों के लिए अलग से शौचालय नहीं होते, और यह भी एक वजह रहती है कि कई लड़कियां लगातार पढ़ाई नहीं कर पातीं।
दिक्कत यह है कि हिन्दुस्तान जैसे देश में ऐसी सलाह को महिला अधिकार के लिए कही गई बात मान लिया जाता है, और इस पर अगर कहीं अमल होता भी है तो उसे महिला पर अहसान की तरह किया जाता है। यह समझने की जरूरत है कि महिला को देश के लिए एक उत्पादक कामगार अगर माना जाएगा, और उसी हिसाब से उसके हक दिए जाएंगे, उसके लिए संभावनाएं और सहूलियतें खड़ी की जाएंगी, तो वह देश की अर्थव्यवस्था में मर्द के बराबर, या उससे अधिक जोड़ पाएँगी। महिलाओं के लिए यह सब जेंडर-जस्टिस की तरह करने की जरूरत नहीं है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को एक नई ताकत देने के लिए, अब तक किनारे पड़ी हुई संभावना पर काम करने के लिए जरूरी है।