संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बोरिस जॉनसन से सीखें, या ब्रिटिश खबरें रोकें?
16-Jun-2023 4:24 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बोरिस जॉनसन से सीखें,  या ब्रिटिश खबरें रोकें?

लोगों को जब अपने घर में कोई चीज मनपसंद नहीं मिलती है, तो वे बाहर उसे तलाशते हैं। इसमें शादीशुदा जोड़ों के देह-सुख से लेकर खाने-पीने की चीजों तक बहुत सी चीजें रहती हैं कि लोग बाहर जाकर क्यों मुंह मारते हैं। अब ऐसे में जब लोगों को अपने मुल्क में मीडिया की आजादी न दिखे, तो दूसरे बेहतर लोकतंत्रों में आजाद मीडिया देख लेना चाहिए कि कहीं तो मीडिया आजाद है, और उस मुल्क की मीडिया की आजादी पर खुश हो लेना चाहिए, क्योंकि अपने घर पर वह आजादी नसीब नहीं है। इसी तरह जब नेताओं को लेकर यह निराशा होती है कि उनके खिलाफ कुछ भी तोहमत लग जाए, वे कितने ही बड़े जुर्म में क्यों न फंस जाएं, उनके चेहरे पर न शर्म दिखती न शिकन, तो फिर इन दोनों श को देखने के लिए कुछ दूसरे बेहतर लोकतंत्रों की तरफ झांक लेना चाहिए। ऐसा ही एक मामला ब्रिटेन का है कि तोहमत लगने पर नेताओं को कैसी मिसाल पेश करनी चाहिए, हिन्दुस्तान में तो ऐसा देखने का सुख नसीब नहीं हो सकता, इसलिए उस ब्रिटेन को चलें जिसने हिन्दुस्तान को गुलाम बना रखा था। 

कोरोना महामारी के दौरान ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने प्रधानमंत्री आवास पर एक पार्टी दी थी, जिसमें कई लोग शामिल हुए थे जो कि वहां काम करने वाले थे, उस पार्टी में ब्रिटेन के प्रचलन के मुताबिक कुछ दारू-शारू भी पी गई थी। बाद में जब यह बात लीक हुई और लोगों को पता लगा कि देश के आम लोगों पर तो कोरोना-प्रतिबंधों के चलते आवाजाही पर भी रोक थी, पार्टी करना तो दूर की बात थी, उस वक्त उनका प्रधानमंत्री ऐसी पार्टी कर रहा था, तो इस पार्टीगेट-कांड की वजह से बोरिस जॉनसन को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था। खुद उनकी पार्टी के लोग खुलकर उनके खिलाफ खड़े हो गए थे, और संसद में इस पार्टी को लेकर झूठ बोलने की तोहमत भी उन पर लगी थी। लंदन की पुलिस ने भी इस मामले की जांच की थी, और प्रधानमंत्री को इस पार्टी के लिए पेनाल्टी नोटिस जारी किए थे। हिन्दुस्तान के लोगों को पुलिस की ऐसी आजादी की खुशी मनाने के लिए भी ब्रिटेन की तरफ देखना चाहिए कि कोरोना के बीच ऐसी पार्टी की जांच करके पुलिस ने प्रधानमंत्री और उनके उस वक्त के वित्तमंत्री ऋषि सुनक दोनों को पेनाल्टी नोटिस जारी किए थे। अब संसदीय कमेटी की रिपोर्ट पर संसद में चर्चा होगी, और आगे की फजीहत को देखते हुए बोरिस जॉनसन ने संसद से तुरंत प्रभाव से इस्तीफा दे दिया है। वे संसदीय जांच कमेटी के नतीजों से असहमत थे, और अपने को बेकसूर भी मानते हैं, लेकिन संसद में और शर्मिंदगी झेलने के बजाय उन्होंने उसे छोड़ देना बेहतर समझा। 

अब जिन देशों में लोग संसद और विधानसभाओं में बलात्कार के मामले झेलते हुए, बलात्कार की शिकार लड़कियों और महिलाओं की खुली तोहमतें झेलते हुए बाकी तमाम जिंदगी भी सदन में बने रहना चाहते हैं, उनके देश-प्रदेश के लोगों को खुशी पाने के लिए गोरी संसद की तरफ देखना चाहिए, जो कि एक वक्त हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने वाले गोरों की संसद है, लेकिन जिसमें थोड़ी सी शर्म बाकी भी है। हिन्दुस्तान के बारे में अक्सर कहा जाता है कि इसने अपनी संसदीय प्रणाली ब्रिटेन से सीखी है, उसने वहां से संसदीय परंपराएं, और शर्म नहीं सीखी है। और अगर थोड़ी-बहुत सीखी भी रही होगी, तो वह नेहरू और शास्त्री के साथ चल बसी होंगी। बाद के वक्त में संसदीय परंपराओं को कूट-कूटकर खत्म करने का जो सिलसिला चला, वह हाल के बरसों में तो एकदम ही फास्ट फार्वर्ड तरीके से आगे बढ़ रहा है, और संसद के धार्मिक अनुष्ठान के वक्त दर्जन भर बलात्कार और यौन शोषण का आरोपी सांसद वहां मुस्कुरा रहा था, और उसकी शिकार लड़कियां सडक़ों पर पीटी जा रही थीं। गौरवशाली परंपराएं यहां इतिहास बन चुकी हैं, और जहां के इतिहास से यहां की संसदीय व्यवस्था बनाई गई थी, वहां पर अब भी एक थानेदार जाकर प्रधानमंत्री निवास में हुई दारू पार्टी की जांच कर सकता है, करता है, नोटिस जारी करता है।

बोरिस जॉनसन के इस्तीफे को लेकर यह भी सोचने की जरूरत है कि उनका संसद भवन तो सैकड़ों बरस पुराना है, एक बार तो आगजनी में जल भी चुका है, लेकिन उसमें संसदीय-आत्मा जिंदा है। वहां प्रधानमंत्री की पार्टी के लोग भी प्रधानमंत्री के आचरण के खिलाफ खुलकर बोल सकते हैं, बोलते हैं। वहां प्रधानमंत्री की एक गलती पर उसकी पार्टी के सांसद उसके खिलाफ वोट डालने को तैयार रहते हैं, और उसे इस्तीफा देना पड़ता है। हिन्दुस्तान में गौरव के लिए हजार करोड़ से संसद का नया भवन बना है, उस इमारत पर गर्व किया जा सकता है, हालांकि कई लोगों का यह मानना है कि वह योरप के कई नस्लवादी देशों की इमारतों से बिल्कुल ही मिलती-जुलती इमारत बनाई गई है, और उस नस्लवादी इतिहास की याद दिलाती है। लेकिन हिन्दुस्तानी संसद भवन किस वजह से उन फासिस्ट डिजाइनों पर बनी है, यह आर्किटेक्चर के छात्रों के लिए शोध का एक विषय हो सकता है, और वे गुजरात जाकर इसके आर्किटेक्ट से बात कर सकते हंै, हम तो इमारत के भीतर की आत्मा पर बात करना चाहते हैं, जिसे हजार करोड़ के बजट में नहीं बनाया जा सकता, नहीं बचाया जा सकता। 

प्रधानमंत्री निवास पर कोरोना के बीच काम कर रहे सरकारी लोगों के बीच हुई पार्टी को लेकर पहले प्रधानमंत्री पद से, और फिर संसद से इस्तीफा देना पड़ा। अब ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान में सरकारों और संसद-विधानसभाओं के लोग ब्रिटिश खबरों पर रोक लगाना बेहतर समझेंगे कि हिन्दुस्तानी लोग वहां की मिसालें न गिनाने लगें। लोकतंत्र कांक्रीट के ढांचों का नाम नहीं होता, वह शर्म, गरिमा, नीति-सिद्धांतों जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों का नाम होता है। संसद की इमारत और दस-बीस बरस नहीं बनती, लेकिन पुरानी इमारत में ही एक आजाद बहस हो पाती, देश की फिक्र हो पाती, लोकतंत्र और इंसानियत के सिद्धांतों पर फैसले लिए जा सकते, तो उस देश की संसदीय व्यवस्था गौरवशाली होती। इमारत सिर्फ डिजाइनर और ठेकेदार के लिए गौरव की बात हो सकती है, उस इमारत की आत्मा के बिना वहां चल रहे संस्थान के लिए वह गौरव की बात नहीं हो सकती। हिन्दुस्तान की हजार करोड़ की इस ताजा इमारत के भीतर बृजभूषण शरण सिंह की आत्मा बैठी हुई है, और जिन लोगों को भारतीय संसदीय व्यवस्था पर गर्व करने की हसरत है, उन्हें ऐसी आत्मा से छुटकारा पहले पाना होगा, उसके बाद सोचना होगा कि गर्व के लिए और क्या-क्या जरूरी है। फिलहाल कुछ दावतों के लिए ब्रिटेन में प्रधानमंत्री गिर गया, और कई बलात्कारों के बावजूद भारतीय संसद अपने सेंगोल को थामे हुए गर्व से फूले नहीं समा रही है। इस पाखंड को समझने की जरूरत है, और उस समझ का नाम ही लोकतंत्र है। 
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