संपादकीय
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गुजरात के जूनागढ़ में दो दिन पहले एक दरगाह के अवैध निर्माण को लेकर भारी हिंसा हुई। स्थानीय प्रशासन ने इस दरगाह को अवैध निर्माण के खिलाफ नोटिस दिया था, और पांच दिन बाद उसे तोडऩे का नोटिस लगाने म्युनिसिपल के लोग पहुंचे थे जिसके विरोध में बड़ी भीड़ जुट गई, पुलिस पर पथराव शुरू हो गया, और गाडिय़ों को तोडक़र आग लगा दी गई। मोदी के गुजरात में इतने बवाल की हिम्मत होनी नहीं चाहिए थी जहां अभी पिछले विधानसभा चुनाव में ही केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह अपने प्रचार में 2002 में सिखाए गए सबक के असर की चर्चा करके आए थे। लेकिन तनाव हुआ, और लाठीचार्ज, आंसू गैस, पथराव, बड़ी पुलिस तैनाती सभी कुछ वहां देखने मिल रही है। यह भी हो सकता है कि इस अवैध सामुदायिक निर्माण को लेकर अब प्रशासन वहां पहले के मुकाबले कुछ अधिक कड़ी कार्रवाई कर सके क्योंकि हिंसा की शुरुआत इस तबके ने की है, इसलिए अब अगर वह किसी बुरे निशाने पर आता है, तो उसके साथ हमदर्दी कम रहेगी।
लेकिन हम किसी एक राज्य, और किसी एक धर्म पर गए बिना एक सामान्य चर्चा करना चाहते हैं कि हिन्दुस्तान में किस तरह धर्म के नाम पर गुंडागर्दी चलती है, और एक धर्म के देखादेखी अधिकतर बाकी धर्म भी उसी राह पर चल निकलते हैं, और फिर इनमें से किसी को भी काबू करना नामुमकिन इसलिए हो जाता है कि हर एक के पास गिनाने के लिए दूसरों की मिसालें रहती हैं। अक्सर यह भी होता है कि सत्तारूढ़ पार्टियां अगर किसी धर्म के लोगों के थोड़े-बहुत भी समर्थन की उम्मीद करती हैं, तो वे भी उस धर्म के लोगों को एक समूह या समुदाय के रूप में नाराज करना नहीं चाहतीं। सत्तारूढ़ पार्टी बेफिक्र होकर तब फैसले ले सकती है जब वह भाजपा जैसी पार्टी हो, और जिसे यह पुख्ता मालूम हो कि मुस्लिम मतदाता उसके लिए वोट नहीं डालेंगे, इसलिए उन्हें खुश रखने की कोई जरूरत नहीं है, या उसे नाराज करने में कोई दिक्कत नहीं है। जब तक पार्टी और वोटर के रिश्ते इस तरह के साफ न हों, तब तक सत्ता की दुविधा दिखती ही है, और इसी दुविधा का फायदा उठाकर धार्मिक गुंडागर्दी अपने पांव जमाती है, और फिर अपनी मसल्स बढ़ाती है।
सुप्रीम कोर्ट के बहुत साफ-साफ फैसले हैं जिनमें जिला कलेक्टरों पर यह जिम्मेदारी डाली गई है कि देश में कहीं भी किसी सार्वजनिक जगह पर कोई भी धार्मिक अवैध निर्माण नहीं होना चाहिए, वरना इन अफसरों को सीधा जिम्मेदार ठहराया जाएगा। लेकिन ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश भी अगर सरकारी कुर्सियों के लिए होते हैं, और किसी अफसर के नाम से नहीं होते, तो वे बेअसर होते हैं। हम अपने आसपास चारों तरफ सरकारी जमीन, सडक़ों की चौड़ाई, बगीचों और मैदानों पर, तालाबों के किनारे पाटकर, नदियों से सटकर इतने धार्मिक अवैध निर्माण देखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को देश के तमाम जिला प्रशासन सस्पेंड कर देने पड़ेंगे। यह भी लगता है कि अदालतें हुक्म सुनाकर फिर आंखें बंद कर लेती हैं, क्योंकि अपने हुक्म की आखिर कितनी बेइज्जती वे बर्दाश्त कर सकती हैं? जनता के बीच के लोग एक तो जागरूक कम हैं, दूसरा यह कि धार्मिक आतंक से तमाम लोग इतने डरे-सहमे रहते हैं कि वे हिंसक धार्मिक, और अक्सर ही साम्प्रदायिक भीड़ से अकेले लडऩा नहीं चाहते, क्योंकि किसी इलाके में वहां के बहुसंख्यक लोगों को दुश्मन बनाकर जीना ही दुश्वार हो जाता है, वह आसान तो बिल्कुल ही नहीं रहता।
तो ऐसे में किया क्या जाए? हिन्दुस्तान में कभी भी यह सुनने में नहीं आएगा कि किसी जाति और धर्म की भीड़ ने एकजुट होकर किसी अस्पताल या स्कूल के लिए सरकारी या सार्वजनिक जमीन पर अवैध कब्जा किया, उनके लिए कोई इमारत बनाई। ऐसी सारी गुंडागर्दी सिर्फ धर्म के नाम पर, सिर्फ धर्म के लिए होती है, और वह जंगल की आग की तरह ऐसे जुर्म को दूसरों में भी बढ़ाते चलती है। गुजरात में तो खैर पक्के इरादों वाली एक मजबूत सरकार है, और वहां पर उसका रूख बड़ा साफ है, इसलिए वहां तो वह इस घटना से निपट लेगी, लेकिन बाकी देश में बहुत से प्रदेश ऐसे हैं जहां पर किसी एक या दूसरे धर्म, किसी एक या दूसरी जाति को खुश रखने के लिए सत्तारूढ़ और विपक्षी राजनीतिक दल बड़ी मेहनत करते हैं, और वहां धार्मिक या सामुदायिक अवैध निर्माणों को छूना भी अफसरों के लिए आसान नहीं होता है। ऐसा लगता है कि वक्त आ गया है कि किसी जनसंगठन या सामाजिक कार्यकर्ता को इस मुद्दे को लेकर एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए, और सुप्रीम कोर्ट को देश के तमाम इंजीनियरिंग कॉलेजों के प्राध्यापकों-छात्रों से उनके शहरों का सर्वे कराना चाहिए कि उसके कई बरस पहले के फैसले के बाद सार्वजनिक जगहों पर कितने धार्मिक अवैध निर्माण हुए हैं, और उस दौरान जितने कलेक्टर रहे हों, या सुप्रीम कोर्ट के फैसले में जिन अफसरों के ओहदों का जिक्र हो, उन सबके सीआर में इस गैरजिम्मेदार अनदेखी का जिक्र करवाना चाहिए, और उन्हें सजा के बतौर उनकी तनख्वाह काटनी चाहिए। जब तक जनता पहल नहीं करेगी, तब तक शासन-प्रशासन तो बेपरवाह बने ही रहेंगे, सुप्रीम कोर्ट भी खुद होकर शायद ही अपनी इज्जत की फिक्र करे। भारत की व्यवस्था यही है कि लोगों को जाकर सुप्रीम कोर्ट को हिलाना पड़ता है कि कहां उसकी बेइज्जती हुई है, फिर सुबूतों से उसे साबित करना पड़ता है कि सचमुच ही बेइज्जती हुई है, तब जाकर जज सरकारों को नोटिस देते हैं कि उन पर अदालत की अवमानना का मुकदमा क्यों न चलाया जाए। हमारा ख्याल है कि हिन्दुस्तान में अगर कुछ मुद्दों पर एक साथ सैकड़ों या हजारों अफसरों को सजा दी जानी चाहिए, तो वह धार्मिक अवैध निर्माणों को लेकर, और हेट-स्पीच को लेकर दी जानी चाहिए, ताकि वह बाकी फैसलों को लेकर भी अफसरों को, और नेताओं को चौकन्ना करे। सुप्रीम कोर्ट को दो जांच कमिश्नर नियुक्त करने चाहिए जो कि देश भर में इंजीनियरिंग छात्र-शिक्षकों से धार्मिक अवैध निर्माण का सर्वे करवाए, और मीडिया मॉनिटरिंग करके यह तय करे कि कहां-कहां हेट-स्पीच दी जा रही है, और कोई मामला दर्ज नहीं हो रहा है। इससे कम में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों और आदेशों पर किसी अमल की संभावना नहीं दिखती है।
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