संपादकीय
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दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध की तरफ कई कदम आगे बढ़ गई है। जिन लोगों को यह लग रहा था कि यूक्रेन पर रूस का हमला जल्द खत्म हो जाएगा, उन्होंने इस जंग का एक बरस पूरा हो जाते देखा, और आज अधिकतर लोगों को यह भरोसा होगा कि ऐसा एक बरस और भी निकल सकता है। जंग धीमा पडऩे का नाम नहीं ले रहा, चीन जैसे दोस्त रूस के साथ जमकर खड़े हैं, ईरान रूस को हथियार भेज रहा है, हिन्दुस्तान जैसा बड़ा देश तमाशबीन बना हुआ है, और एक बहुत ही समझदार खरीददार की तरह वह रूस से सस्ते में जो-जो हासिल हो सकता है, उसे पा रहा है। यह भी उस वक्त हो रहा है जब अफ्रीकी देशों के मुखिया कल इन दोनों देशों में बीच-बचाव करने के लिए और अमन कायम करने के लिए यूक्रेन पहुंचे हुए थे, और आज वे रूस पहुंच गए होंगे। दोनों ही राष्ट्रपतियों से बात करके अफ्रीकी राष्ट्रप्रमुख शांति की पहल कर रहे हैं, और दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रामाफोसा इस प्रतिनिधिमंडल की अगुवाई कर रहे हैं। आज सुबह की खबर है कि रूसी राष्ट्रपति पुतिन के साथ बैठक में इस प्रतिनिधिमंडल ने यूक्रेन से रूस लाए गए बच्चों को वापिस भेजने कहा है, और कहा है कि यह जंग खत्म होनी चाहिए। उन्होंने दोनों देशों पर पर्याप्त दबाव डाला है कि वे जंग खत्म करें। इन देशों का यह भी कहना है कि इस जंग का सबसे बुरा असर अफ्रीकी देशों पर पड़ रहा है उनमें से जो अनाज खरीदने की हालत में हैं, उन्हें यूक्रेन से अनाज खरीदने नहीं मिल रहा, और जो अफ्रीकी देश अंतरराष्ट्रीय मदद पर जिंदा हैं, वहां भी मदद में अनाज नहीं जा पा रहा।
आज दुनिया के तमाम देशों के लोगों को अपने-अपने देश के अंतरराष्ट्रीय रूख को भी देखना और समझना चाहिए। नाटो के तहत तमाम योरप और अमरीका का रूख साफ है। चूंकि जंग में गिरने वाली लाशें सिर्फ यूक्रेन और रूस की हैं, इसलिए नाटो देशों के लिए यह आसान है कि वे फौजी सामान से यूक्रेन की मदद करते रहें, और इस जंग में रूस की ताकत जितनी चुक जाए, उतना ही अच्छा है। बहुत से लोग इस बात को लिख भी चुके हैं कि पश्चिमी देश यूक्रेन में एक प्रॉक्सी-वॉर लड़ रहे हैं, यानी बिना वहां गए हुए अपनी मर्जी का जंग चला रहे हैं। संपन्न देशों में जब तक ताबूत नहीं लौटते, तब तक जनता में हाय-तौबा नहीं होता। यूक्रेन-रूस में आज यही हो रहा है। यूक्रेन से दसियों लाख शरणार्थी दूसरे देशों में जा रहे हैं, और लाशें यूक्रेन में ही थम जा रही हैं। दूसरी तरफ गोपनीयता के कानून से अपनी जनता के आंख-कान में पिघला सीसा डालकर रखने वाले रूसी राष्ट्रपति पुतिन लोगों को यही पता नहीं लगने दे रहे कि जंग में कितने रूसी मारे गए हैं। और इस जंग में रूस वाग्नर नाम की एक निजी भाड़े की फौज का भी व्यापक इस्तेमाल कर रहे हैं जिसके लोगों की मौत होने पर रूस को उनकी गिनती भी नहीं करनी पड़ती। इस तरह एक बददिमाग, अहंकारी, और आत्मकेन्द्रित रूसी तानाशाह इस जंग को यूक्रेन पर थोपकर हर कीमत पर इसे चला रहा है, और दूसरी तरफ पश्चिमी देश यूक्रेनियों के कंधों पर बंदूक रखकर खुद घर बैठे यह जंग लड़ रहे हैं। दोनों देशों के बीच बातचीत का कोई माहौल नहीं है, और इक्का-दुक्का कुछ देशों ने दोनों से पहल जरूर की है, लेकिन वजन पड़े ऐसी कोई कोशिशें अब तक हुई नहीं हैं। अफ्रीकी नेताओं का यह प्रतिनिधिमंडल ऐसा पहला बड़ा प्रयास है, और इसके महत्व का सम्मान करना चाहिए।
जहां तक हिन्दुस्तान का सवाल है, तो विदेश गए हुए राहुल गांधी से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी का रूख इस मुद्दे पर ठीक वही है जो कि भाजपा (मोदी सरकार) का रूख है। मतलब साफ है कि भारत की ये दोनों बड़ी पार्टियां भारत के रूस से बहुत पुराने, बहुत व्यापक, और बहुत परखे हुए रिश्तों को लेकर एक ही किस्म की समझ रखती हैं, दोनों ही पार्टियां हिन्दुस्तान के हित में रूस को नाराज करने वाली कोई बात भी करना नहीं चाहती हैं। लेकिन इससे एक नुकसान हो रहा है। हाल ही में सउदी अरब और ईरान के बीच ऐतिहासिक तनावों के बाद अभी एक ऐतिहासिक समझौता चीन ने कराया, और इससे लोग हक्का-बक्का भी रह गए, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि चीन ने एक बड़े अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर अपनी दखल और कामयाबी साबित कर दिखाई है। इसके बाद चीन के प्रतिनिधि यूक्रेन और रूस भी हो आए। अपने देश के हितों को ध्यान में रखकर तनातनी में चुप रहना एक बात है, लेकिन ऐसे बड़े अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर कुछ भी न कहना भारत के महत्व का घट जाना भी है। कोई तटस्थता ऐसी नहीं हो सकती जो कि पूरी दुनिया को प्रभावित कर रही इस जंग पर पूरी तरह चुप रहे, जिस जंग से अफ्रीका के सवा सौ अरब लोगों का खाना-पीना मुहाल हो रहा हो, उसे देखते हुए भी चुप रहे। यह हिन्दुस्तान की तटस्थता नहीं है, यह हिन्दुस्तान की जरूरत से अधिक सावधानी है। दुनिया में जिसे बड़े नेता बनना होता है, उसे अपने देश के तात्कालिक हितों से परे जाकर भी कई कड़वे फैसले लेने पड़ते हैं, और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में तो यह बात भी रहती है कि आप फैसले चाहे न ले सकें, अपनी दखल और दिलचस्पी रखते तो दिखना ही चाहिए, जैसा कि चीन कर रहा है।
देश के आम लोगों का विदेश नीति में अधिक काम नहीं रहता है, वह पूरी तरह से सरकार का मोर्चा रहता है, लेकिन लोगों को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों की समझ रहनी चाहिए, और सार्वजनिक मंचों पर, सोशल मीडिया पर लोगों को अपने देश को लेकर उन्हें अपनी सोच उजागर करते रहना चाहिए।