संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मणिपुर के धमाकों से अधिक आवाज है मोदी की चुप्पी की...
19-Jun-2023 4:38 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मणिपुर के धमाकों  से अधिक आवाज है मोदी की चुप्पी की...

मणिपुर के हालात बहुत ही खराब दिख रहे हैं। अभी घंटे भर पहले तक की खबरें बता रही हैं कि वहां हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है, अब तक मैतेई और कुकी समुदायों के बीच की हिंसा में सौ से अधिक मौतें हो चुकी हैं, और डेढ़ महीने का वक्त गुजर चुका है। दोनों तरफ के घरों में आग लग रही है, गोलीबारी चल रही है, और राज्य की पुलिस के अलावा देश की फौज और तरह-तरह की पैरामिलिट्री मिलकर भी हिंसा को रोक नहीं पा रही हैं। दोनों तरफ से की जा रही हिंसा में पुलिस और दूसरे सैनिक भी मारे जा रहे हैं। एक केन्द्रीय मंत्री के घर को भी आग लगा दी गई है, और इसके बाद उनका कहना था कि राज्य में कोई सरकार नहीं रह गई है, जबकि राज्य में उन्हीं की भाजपा की सरकार है, और भाजपा के मुख्यमंत्री हैं। इस छोटे से राज्य के 16 में से 11 जिलों में कफ्र्यू चल रहा है, इंटरनेट बंद है, दूसरे प्रदेशों से पढऩे आए छात्र-छात्राओं को वापिस भेज दिया गया है, कुकी आदिवासियों में से 50-60 हजार बेदखल होकर राहत शिविरों में हैं, और हाल के बरसों के हिन्दुस्तान की एक सबसे भयानक हिंसा यहां सामने आई है जब गोली से जख्मी छोटे बच्चे को लेकर अस्पताल जाती उसकी मां को एम्बुलेंस सहित जलाकर राख कर दिया गया। मणिपुर हाईकोर्ट के एक फैसले से तीन मई से यह हिंसा शुरू हुई है, इस फैसले में राज्य सरकार को कहा गया था कि वह राज्य के बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को आदिवासी आरक्षण की लिस्ट में जोडऩे की सिफारिश केन्द्र सरकार को भेजे। इससे राज्य में कुकी आदिवासी आरक्षित तबके के भीतर सबसे कमजोर तबका हो जाते, और उनके हाथों से आरक्षण की हिफाजत खत्म ही हो जाती। उसी एक मुद्दे को लेकर यह ताजा हिंसा चल रही है, और अब वहां के कुकी समुदाय का यह मानना और कहना है कि मौजूदा भाजपा मुख्यमंत्री के तहत उनके इस राज्य मेें रहने की कोई संभावना नहीं है, और उनके लिए केन्द्र सरकार एक अलग केन्द्र प्रशासित प्रदेश बनाए, या कोई और व्यवस्था करे। 

हिन्दुस्तान के अधिकतर लोगों का उत्तर-पूर्वी लोगों से कोई वास्ता नहीं रहता है, रिश्ता तो रहता ही नहीं है, बाकी हिन्दुस्तान की उनमें दिलचस्पी भी नहीं रहती है। ऐसे में हम जब-जब मणिपुर के मुद्दे को उठाते हैं, तो वह तकरीबन अनदेखा, अनसुना रह जाता है। खैर, किसी मुद्दे का महत्व इससे तय नहीं होना चाहिए कि उसे कितने लोग देखते या सुनते हैं। हिन्दुस्तान के लोगों की दिलचस्पी की गिनती लगाई जाए, तो सबसे अधिक दिलचस्पी एक किसी ग्लैमरस युवती, उर्फी जावेद के बदन पर हथेली जितने बड़े कपड़ों के तीन टुकड़ों में सबसे अधिक है, और डिजिटल मीडिया पर उसी दिलचस्पी की गिनती लगाकर इस देश की सरकारें मीडिया को इश्तहार देती हैं। जाहिर है कि सरकारें भी नहीं चाहतीं कि देश में किसी गंभीर मुद्दे पर बात हो, इसलिए सनसनी के झाग का हर बुलबुला अपने मीडिया संस्थान के लिए बाजार और सरकार दोनों से कमाई की ताकत रखता है, फिर चाहे उसका सामाजिक सरोकार शून्य ही क्यों न हो। ऐसे देश में मणिपुर की चर्चा करना फायदे का काम नहीं है, लेकिन वह लोकतांत्रिक जिम्मेदारी का काम जरूर है जिसे पूरा करने पर सरकार या बाजार किसी का साथ नहीं मिलता है। फिर भी इस, और ऐसे मुद्दों पर बार-बार लिखना जरूरी है ताकि बाकी हिन्दुस्तान के लोगों को भी लगे कि मणिपुर कोई मुद्दा है। 

केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री मोदी को अगर मणिपुर की आज की नौबत में कुछ और अधिक करने की जरूरत नहीं लग रही है, तो वहां से सामने आया एक ताजा वीडियो मोदी-शुभचिंतकों को प्रधानमंत्री की जानकारी में लाना चाहिए। हो सकता है कि यह एक वजह मणिपुर की कुछ और फिक्र करने का सामान जुटा सके। वहां पर इम्फाल ईस्ट जिले के मैतेई समुदाय के कुछ लोगों ने इतवार को मोदी के मन की बात के प्रसारण का बहिष्कार किया। वे जिले के एक केन्द्र में इक_ा हुए और अपने ट्रांजिस्टर पटक-पटककर तोड़ डाले और इस वीडियो में दिखता है कि उन्होंने ट्रांजिस्टर के टुकड़ों को रौंदकर भी अपना गुस्सा निकाला। वहां के एक प्रमुख सामाजिक नेता ने एक वेबसाइट से कहा कि मणिपुर के निवासियों के लिए प्रधानमंत्री के मन की बात गैरजरूरी है, उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री ने (हिंसा रोकने के लिए) कुछ नहीं किया, वे आज तक चुप्पी साधे हुए क्यों है? उन्होंने कहा कि यह विरोध-प्रदर्शन हिंसा शुरू होने के 46 दिन बाद भी उनकी चुप्पी के खिलाफ है। दिल्ली की खबरें बताती हैं कि कर्नाटक चुनाव के वक्त से ही मणिपुर की हिंसा पर मोदी का ध्यान खींचते हुए देश की कई विपक्षी पार्टियों ने प्रधानमंत्री को इस पर गौर करने को कहा था, और 12 जून से 10 पार्टियों का एक प्रतिनिधिमंडल मणिपुर पर प्रधानमंत्री से मुलाकात के लिए वक्त मांगते खड़ा है। इस प्रतिनिधिमंडल में कांग्रेस, जेडीयू, सीपीआई, सीपीएम, आरएसपी, फॉरवर्ड ब्लॉक, तृणमूल, शिवसेना (उद्धव), आप, और एनसीपी शामिल हैं। लेकिन इन्हें अब तक मोदी से वक्त नहीं मिल पाया है। 

देश-विदेश के कई राजनीतिक टिप्पणीकारों ने यह सवाल उठाया है कि मोदी जिस तरह चीन पर बोलने से बचते रहे, चीन का नाम भी नहीं लिया, उसी तरह वे अब मणिपुर पर चुप्पी साधे हुए हैं, जबकि इस हिंसाग्रस्त मणिपुर में उन्हीं की पार्टी के मुख्यमंत्री हैं, और यह शायद के इतिहास में पहला मौका होगा कि ऐसे हिंसाग्रस्त प्रदेश में केन्द्र सरकार और दोनों जगह सत्तारूढ़ भाजपा अपनी जिम्मेदारी सीधे निभाने के बजाय एक दूसरे उत्तर-पूर्वी राज्य असम के भाजपा मुख्यमंत्री को मणिपुर भेजती है, मानो वे तमाम उत्तर-पूर्वी राज्यों के प्रभारी मुख्यमंत्री भी हैं। मणिपुर तो जिस तरह जल रहा है, वहां जितनी लाशें गिर चुकी हैं, वहां नफरत जितनी फैल गई है, और शांति की संभावना कमजोर हो गई है, वह सब एक तरफ है, इस देश में मोदी के शुभचिंतकों को जिनकी उन तक पहुंच हो, उन्हें मोदी को यह समझाना चाहिए कि इतिहास में देश के खतरों के वक्त इस्तेमाल की गई चुप्पी सबसे अधिक बड़े अक्षरों में दर्ज होती है, और मोदी के नाम ऐसी कई चुप्पियां दर्ज हो चुकी हैं, होती जा रही हैं। यह सिलसिला भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है, देश के प्रधानमंत्री को ऐसी चुप्पी का हक नहीं दिया जा सकता। लोगों को याद है कि इतिहास में बाबरी मस्जिद को गिरते देखते हुए घर पर चुप बैठे प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव का नाम इतिहास में मस्जिद गिराने देने के लिए जिम्मेदार की तरह दर्ज है। प्रधानमंत्री को मणिपुर की फिक्र चाहे न हो, उन्हें कम से कम अपनी साख, और इतिहास में अपनी दर्ज हो रही, और दर्ज होने वाली जगह की फिक्र जरूर करनी चाहिए।  

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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