संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : शरणार्थी बोट के सैकड़ों डूबे, पर पश्चिमी मीडिया पांच पनडुब्बी-पर्यटकों में डूबा रहा
24-Jun-2023 5:25 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  शरणार्थी बोट के सैकड़ों डूबे, पर पश्चिमी मीडिया पांच पनडुब्बी-पर्यटकों में डूबा रहा

फोटो : सोशल मीडिया

एक भूतपूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पिछले दो-तीन दिनों में अपनी बातों से लगातार लोगों का ध्यान खींचा है। वे बहुत कमउम्र में राष्ट्रपति बन गए थे, और दो कार्यकाल की सीमा पूरी कर लेने के बाद अब वे किसी सरकारी ओहदे पर नहीं रह सकते, इसलिए वे एक स्वतंत्र नागरिक की हैसियत से अपनी सोच अधिक खुलकर रखते हैं। कल ही उनका वह बयान सामने आया था जिसमें उन्होंने कहा था कि अमरीकी राष्ट्रपति को मोदी से बातचीत में भारत में धार्मिक भेदभाव का मुद्दा उठाना चाहिए। अब उन्होंने एक अलग कार्यक्रम में पश्चिमी मीडिया के पाखंड पर हमला बोला है। और कहा है कि अभी ग्रीक के पास एक शरणार्थी बोट डूब जाने से 82 लोगों की मौत और सैकड़ों के डूबने की आशंका पर पश्चिमी मीडिया की खबरों में इसे ठीक से जगह नहीं मिली, दूसरी तरफ डूबे हुए टाइटेनिक को देखने गए पांच पर्यटकों की मौत से पश्चिमी मीडिया लदे रहा। ओबामा ने कहा कि ग्रीक में सैकड़ों लोगों के डूबने की आशंका ठीक से खबर नहीं बन पाई, और टाइटेनिक पर्यटन वाली पनडुब्बी टाइटन में फंसे पांच लोगों को बचाने की खबरें पूरे वक्त चलती रहीं। 

बात सही है क्योंकि ग्रीक के पास जिस बोट को बचाने के लिए वहां की सरकार को संयुक्त राष्ट्र के शरणार्थी संस्थान ने खबर दी थी, उसे बचाने के लिए ग्रीक सरकार ने कुछ नहीं किया, और इस बोट पर सवार करीब सात सौ लोग मदद के लिए गुहार लगाते रहे लेकिन वहां तक पहुंचा ग्रीक जहाज उन पर कुछ पानी की बोतलें और खाने का कुछ सामान फेंककर चले आया। इस जहाज पर पाकिस्तान के भी करीब साढ़े तीन सौ लोग थे जो कि बेहतर भविष्य के लिए ग्रीक या इटली की तरफ जा रहे थे। इसमें और लोग लीविया और सीरिया के भी थे जहां पर जीना मुहाल हो गया है, और लोग डूबकर मर जाने की कीमत पर भी किसी ऐसे देश पहुंच जाना चाहते हैं जहां पर जिंदगी बेहतर हो। लोगों को याद होगा कि कुछ अरसा पहले इसी तरह अमरीका में दाखिल होने की कोशिश करते हुए हिन्दुस्तान के गुजरात के एक परिवार के चार लोग मारे गए थे। 

हिन्दुस्तान में ऐसी खबरें हर बरस कुछ बार आती हैं कि देश के कितने अरबपति, खरबपति बीते बरसों में यह देश छोडक़र गए हैं। अब तो ऐसा अनुमान भी आने लगा है कि अगले बरस कितने लोग छोडक़र जाएंगे। अतिसंपन्न लोगों का हजारों की संख्या में हर बरस देश छोडक़र जाना एक अलग मामला है। लेकिन काम की तलाश में, जिंदा रहने की कोशिश में जब लोग अपना देश छोडक़र समंदर के रास्ते या बिजली की तारों वाली बाड़ से निकलकर किसी दूसरे देश पहुंचते हैं, तो उनकी अपनी मजबूरियां रहती हैं। यह बात सही है कि किसी भी देश के पास शरणार्थियों को जगह देने की क्षमता सीमित रहती है, लेकिन पश्चिम के बर्ताव से एक बात साफ समझ आती है कि वहां की सरकारों या वहां के नागरिकों में से कुछ में एक रंगभेद दिखाई पड़ता है। यह रंगभेद अफ्रीकी और एशियाई लोगों के खिलाफ अधिक दिखता है, और इन्हीं देशों में यूक्रेन से निकले हुए लाखों लोगों के लिए घर-घर में जगह बन गई, तो यूरोपीय लोगों के लिए देशों और लोगों के दिल में कुछ अधिक जगह दिखती है। ऐसा भी नहीं है कि यह सिर्फ योरप के साथ है, हिन्दुस्तान में भी पाकिस्तान से आए हुए हिन्दू सिन्धियों के लिए लोगों और सरकारों के दिल में जगह रहती है, लेकिन म्यांमार से निकाले गए मुस्लिम रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए कोई जगह नहीं रहती। ऐसा शायद हिन्दुस्तान में धर्म की वजह से भी होता है, और योरप में भी यूक्रेन के लोगों के धर्म और पाकिस्तान, लीविया, सीरिया के लोगों के धर्म को लेकर एक फर्क दिखता है। 

आज दुनिया के कई देश गिरती हुई आबादी के शिकार हैं, वहां बूढ़ी आबादी बढ़ती चली जा रही है, और कामकाजी पीढ़ी सिकुड़ती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र जैसे संस्थान को एक टिकाऊ शरण योजना पर काम करना चाहिए कि जिन देशों में कामकाजी लोग घट गए हैं, बुजुर्गों की देखभाल के लिए लोग आज भी कम हैं, और कल और अधिक कम पड़ेंगे, उन देशों में कामों के लिए दूसरे देशों के लोगों को कैसे तैयार किया जा सकता है। भाषा, संस्कृति, तौर-तरीके और रीति-रिवाज, अलग-अलग कामों के हुनर सिखाकर लोगों को नई जगहों के लायक तैयार किया जा सकता है, जहां वे महज रहम से जगह पाने वाले शरणार्थी न रहें, जहां वे कामगार रहें, और उनकी हालत बेहतर रहे। इसके साथ-साथ उन्हें इन नए देशों में उत्पादकता जोडऩे के लायक भी बनाया जाना चाहिए। यह बात हम इसलिए भी सुझा रहे हैं कि दुनिया के कई देशों में लोगों की संपन्नता काफी अधिक है, और वे बहुत कम काम करते हैं, और भी कम करना चाहते हैं। ऐसे लोगों के लिए यह आसानी से मुमकिन हो सकता है कि वे बाहर से आए हुए लोगों को मामूली मेहनताने के काम पर रख सकें, और खुद अधिक कमाई के बेहतर काम कर सकें। एक-एक बोट को बचाना तो जरूरी है ही, लेकिन यह स्थाई समाधान नहीं है। आज बहुत सारे ऐसे अंतरराष्ट्रीय मंच हैं जिन पर देश छोडक़र जाने वाले लोगों और लोगों की जरूरत वाले देशों के बीच एक तालमेल बिठाया जा सकता है। अभी ऐसी कोई पहल हो रही हो, यह हमें पढ़ा हुआ याद नहीं पड़ता है। दुनिया की आबादी को जरूरत के मुताबिक इस तरह दुबारा एडजस्ट करने के बारे में सोचना चाहिए, और इससे एक टिकाऊ इंतजाम हो सकेगा, जो कि दान और मदद पर नहीं टिका रहेगा, मेहनत और जरूरत के आधार पर होगा। 

बराक ओबामा ने एक जलता-सुलगता सवाल खड़ा किया है, और न सिर्फ पश्चिमी मीडिया बल्कि हिन्दुस्तानी मीडिया का भी रूख ऐसा ही रहता है, और हिन्दुस्तान के लोगों को भी यह सोचना चाहिए कि यहां की जिंदगी के असल मुद्दों को किस तरह किनारे धकेलकर फर्जी भडक़ाऊ मुद्दे देश की बहस पर लादे जाते हैं, किस तरह सबसे संपन्न तबकों की दिलचस्पी के मुद्दे लादे जाते हैं। हिन्दुस्तान में भी एक विमान दुर्घटना में हुई मौतें, ट्रेन दुर्घटना में हुई मौतों के मुकाबले सैकड़ों गुना अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। जिस मौत के बाद जितना बड़ा इश्तहार मिलने की उम्मीद होती है, वह मौत खबरों में उतनी ही बड़ी अहमियत पाती है।    
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