संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पटना जाना आसान है, पर एक-दूसरे से पटना उतना आसान नहीं है..
25-Jun-2023 6:28 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पटना जाना आसान है,  पर एक-दूसरे से पटना  उतना आसान नहीं है..

पटना में बहुत सी विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने मिलकर बात की, और अपने मतभेदों को कुछ घंटों के लिए किनारे खिसकाकर अगले आम चुनाव में साथ खड़े होने की एक संभावना टटोली है। आज की तारीख में यह छोटी बात नहीं है कि एक नाव पर ऐसे लोग सवार हो जाएं जो आमतौर पर एक-दूसरे के डूबने की कामना करते हैं। हिन्दुस्तानी विपक्ष को यह बात समझ आ रही है कि 2024 के लोकसभा चुनाव नाम के इस नाव पर वे सब एक साथ सवार हैं, और किसी दूसरे के डूबने की कामना खुद को भी डुबाकर छोड़ेगी। इसलिए इस चुनावी नदी को पार करने के लिए मोदी के मुकाबले बाकी बहुत सी पार्टियों के नेता जब तक हाथ में हाथ नहीं डालेंगे, तब तक वे किसी किनारे नहीं पहुंच पाएंगे। 

कुछ लोगों का यह भी मानना है कि विपक्ष की कोई एकता, उसका गठबंधन, तब तक कामयाब नहीं हो सकता, जब तक उसमें कोई वैचारिक एकता नहीं हो जाती। भारत का संसदीय लोकतंत्र एक ऐसी चुनाव व्यवस्था पर टिका हुआ है जिसमें वोटरों के सामने पेश किए गए विकल्पों में से ही बेहतर को चुनने का हक उसे रहता है, यह बेहतर हो सकता है कि अच्छा भी न हो, लेकिन वह बाकी के मुकाबले बेहतर हो सकता है। इसलिए हिन्दुस्तानी चुनाव लोगों के सामने बुरे के मुकाबले बेहतर विकल्प पेश करने का नाम है, और यह विकल्प आदर्श हो, अच्छा हो, ऐसा जरूरी भी नहीं है। कुछ और चलताऊ भाषा में कहें तो गब्बर के मुकाबले सांभा, या सांप के मुकाबले बिच्छू पेश करने जैसी बात भी रहती है जहां पर लोग कम बुरे को चुनते हैं। ऐसे में बहुत बड़ी वैचारिक एकता की जरूरत नहीं है जो कि किसी पार्टी के भीतर भी हो जाए वह भी जरूरी नहीं रहता। बहुत सी पार्टियों में आंतरिक विरोधाभास, विसंगतियां, और मतभेद बने रहते हैं, और कई बार ऐसे मतभेद उन पार्टियों को आत्मविश्लेषण का मौका देते हैं, और ऐसे आत्ममंथन से उन्हें मजबूत भी करते हैं। इसलिए अगर विपक्ष का कोई एक ढीलाढाला गठबंधन भी होता है, तो भी कोई बुराई नहीं है, बहुत से चुनावों में यह देखने में आया है कि पार्टियां कुछ सीटों का आपसा में बंटवारा कर लेती हैं, और कुछ सीटों पर वे ही पार्टियां एक-दूसरे के खिलाफ एक दोस्ताना मुकाबला भी करती हैं। एक-दूसरे के खिलाफ बदजुबानी नहीं करतीं, लेकिन लड़ती हैं। इसलिए भारतीय चुनाव में पूरी वैचारिक एकता एक आदर्श और काल्पनिक स्थिति ही हो सकती है, उसका हकीकत से कुछ लेना-देना नहीं है।

इसलिए पटना में जितने विपक्षी लोग बैठे, वह अपने आपमें एक कामयाबी है। हो सकता है कि इससे 2024 का कोई विपक्षी गठबंधन कोसों दूर हो, और यह भी हो सकता है कि यह बैठक वैसे किसी गठबंधन में तब्दील भी न हो पाए, फिर भी आपसी तालमेल, आपसी सहमति छोटी बात नहीं होती है। जो दो लोग एक कमरे में सांस लेने के आदी नहीं रहते, वे लोग अगर बैठकर बात कर रहे हैं, एक-दूसरे की सांस को बर्दाश्त कर रहे हैं, तो लोकतंत्र के लिए यह अपने आपमें एक कामयाबी है। दुनिया के परिपक्व और सभ्य लोकतंत्रों में तो सत्ता और विपक्ष भी एक-दूसरे से बात करते हैं, संसद के भीतर भी एक-दूसरे को सुनते हैं, और संसद के बाहर भी। एक वक्त जब मोतीलाल वोरा उत्तरप्रदेश के राज्यपाल थे, और वहां राष्ट्रपति शासन चल रहा था, तो लखनऊ में ही बसे हुए अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर चाय पीने राजभवन चले जाते थे, और उनके बताए हुए हर सार्वजनिक काम मोतीलाल वोरा प्राथमिकता से पूरे करते थे। अब वक्त वैसी सज्जनता का नहीं रह गया, और अब सत्ता और विपक्ष के नेताओं के बीच की मुलाकात शिवाजी की एक कहानी में एक मुलाकात और बघनखे से विरोधी को चीर देने सरीखी रहती है, और लोगों के बीच सार्वजनिक जीवन और लोकतंत्र का शिष्टाचार भी खत्म हो चुका है। लोग एक-दूसरे के प्रति शक से घिरे रहते हैं, और यह खतरा रहता है कि कौन क्या रिकॉर्डिंग कर रहे हैं, किन बातों का कैसा बेजा इस्तेमाल किया जाएगा। इसलिए आज अगर आधा-एक दर्जन पार्टियों के नेता अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं, और शिकायतों-मतभेदों के बावजूद एक साथ बैठे हैं, तो सीटों का लेन-देन चाहे न हो, कम से कम सोच का लेन-देन तो हो ही सकता है। 

हमारा ख्याल है कि 2024 को लेकर मोदी की चुनौती को अगर छोड़ भी दिया जाए, तो भी यह बात याद रखना चाहिए कि राज्यों के चुनावों के लिए भी इन पार्टियों का साथ उठना-बैठना लोकतंत्र के लिए अच्छा है। और किसी भी चुनाव से परे एक जनमत के लिए, जनहित के मुद्दों के लिए, संसदीय रणनीति के लिए भी इनका उठना-बैठना एक बेहतर नौबत है। यह भी मानकर नहीं चलना चाहिए कि सारे के सारे विपक्षी दल एक साथ आना जरूरी है। हो सकता है कि विपक्ष के ऐसे एक से अधिक गठबंधन तैयार हों, और बाद में ऐसे दो गठबंधनों के बीच भी किसी तरह का चुनावी तालमेल हो सकता है। भारतीय लोकतंत्र में मोदी अपनी पार्टी के साथ देश के किसी भी गठबंधन से अधिक ताकतवर हो चुके हैं। वे अपनी सोच और अपनी रणनीति के तहत देश में एक बहुत व्यापक ध्रुवीकरण भी कर चुके हैं जो कि धर्म के आधार पर है, जातियों के आधार पर है, खानपान और पहरावे के आधार पर है, सामुदायिक रीति-रिवाज और संस्कारों के आधार पर है। किसी भी लोकतंत्र में इन मुद्दों पर इतने ताकतवर ध्रुवीकरण से कई किस्म के खतरे ही खड़े होते हैं। फिर यह बात याद रखना चाहिए कि अपार ताकत किसी भी सत्ता को तानाशाह बनाकर ही छोड़ती है, उससे परे और कोई रास्ता नहीं रहता। इसलिए लोकतंत्र में ताकत का एक संतुलन जरूरी रहता है, और भारतीय चुनावी राजनीति में अब ऐसा कोई भी संतुलन बिना विपक्षी एकता, एकजुटता, गठबंधन, या तालमेल के मुमकिन नहीं है। जरूरी नहीं है कि 1977 की तरह इस देश का विपक्ष एक-दूसरे में विलीन होकर जनता पार्टी बना ले, लेकिन यह तो हो ही सकता है कि सीटों का तालमेल किया जा सके, और भाजपा-एनडीए के मुकाबले हर सीट पर एक-एक मजबूत उम्मीदवार की संभावना तलाशी जा सके। लोगों को इतनी जल्दी बहुत अधिक हासिल कर लेने की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, अभी 2024 के चुनावों को खासा वक्त है, और विपक्ष को आपसी समझ विकसित करने का एक मौका देना चाहिए, उसकी हर बैठक से लोकतंत्र का भविष्य तय हो जाने की उम्मीद जागती होगी। 
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