संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैं, दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आजाद है?
16-Aug-2023 3:35 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  सौ में सत्तर आदमी  फिलहाल जब नाशाद हैं,  दिल पे रखकर हाथ कहिए  देश क्या आजाद है?

हिन्दुस्तानी आजादी की एक और सालगिरह आकर चली गई। सरकार, बाजार, और तमाम संगठनों ने, रिहायशी कॉलोनियों और गरीब बस्तियों ने, गांव-गांव में पंचायतों ने आजादी का जलसा मनाया, और पूरा देश एक किस्म से इस दिन देशप्रेम के गानों वाले लाउडस्पीकरों से गूंजते रहा। इस दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के निर्देश पर जो विभाजन विभीषिका दिवस मनाया गया, हम उस बारे में आज यहां कुछ नहीं कह रहे, क्योंकि दो दिन पहले ही इस पर हमने लिखा, और कहा है। आज यहां पर इसका जिक्र न होना अटपटा न लगे, इसलिए यह बात कही जा रही है। 

सोशल मीडिया में बहुत से लोगों ने तिरंगे झंडे और देश के सुनहरे इतिहास, और यहां की सोने की चिडिय़ा के बारे में बहुत कुछ लिखा है, बहुत से लोगों ने इस मौके को अखंड भारत की अपनी हसरत, अपने सपने के जिक्र के लिए भी इस्तेमाल किया है। अखंड भारत की हसरतों को केलकुलेटर लेकर हिसाब लगाना चाहिए कि अब अखंड भारत बनने पर उसमें मुस्लिम आबादी कितनी फीसदी बढ़ जाएगी, और आज के 20 करोड़ मुस्लिम 50 करोड़ से भी अधिक हो जाएंगे, और ऐसे तमाम लोगों का बराबरी का हक अखंड भारत के साधनों पर रहेगा। भूखों मरते अफगानिस्तान, और बाढ़ में डूबे पाकिस्तान के करोड़ों मुसलमानों को इस अखंड भारत में लाकर आज के हिन्दुस्तानी नक्शे के बाशिंदों का हक कितना मारा जाएगा, और नई जुड़ी आबादी को बराबरी की जरूरत देने के लिए पेट्रोल तीन सौ रूपए लीटर करना पड़ेगा, लोगों को टैक्स आज से दुगुना देना पड़ेगा, और सरकार की योजनाएं आज के हिन्दुस्तान वाले हिस्से में एक चौथाई रह जाएंगी क्योंकि अखंड भारत के नए जुड़े हिस्सों को सहूलियतों में बराबरी का हक तो देना ही पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ही सरकार से पूछ लेगी कि अफगान गरीबों को यूपी के गरीबों के बराबरी का हक क्यों नहीं मिल रहा है। इसलिए जो कोई अखंड भारत की बात करे, उन्हें कुछ देर के लिए इंटरनेट पर इन देशों के आबादी और धर्म के आंकड़े देने चाहिए, केलकुलेटर और कागज देकर हिसाब निकालने कहना चाहिए, और देखना चाहिए कि पिछले 8-10 बरस में अचानक जो हिन्दू खतरे में आ गए हैं, वे अखंड भारत में ढाई गुना होने जा रही मुस्लिम आबादी के बीच और कितने खतरे में आ जाएंगे। जितने हसरती-फतवेबाज हैं उन्हें ये आंकड़े देना चाहिए, और उनकी हसरतों के उबाल पर हकीकत के कुछ छींटे डालने चाहिए। 

लेकिन इससे परे भी कुछ और बातों को सोचने की जरूरत है जिन्हें अलग-अलग लोगों ने सोशल मीडिया पर उठाया है। अगर आप फेसबुक और ट्विटर पर सिर्फ नफरतजीवियों से दोस्ती नहीं रखते हैं, और कुछ इंसान भी आपके दोस्त हैं, तो ये तमाम बातें किसी एक ने, या अलग-अलग लोगों ने लिखी होंगी कि आज आजादी के जश्न के बीच यह सोचने की जरूरत है कि क्या मुल्क की हकीकत को अनदेखा करके जश्न मनाना लोकतंत्र है? कुछ लोगों ने याद दिलाया है कि मणिपुर आज भी राज्य सरकार की साजिशों को झेल रहा है, और आदिवासी कुकी समुदाय और मैतेई समुदाय को एक-दूसरे से टकराने से रोकने के लिए भारतीय फौज की जो असम रायफल्स वहां तैनात है, किस तरह वहां की राज्य सरकार उसके ही खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कर रही है क्योंकि उसने भाजपा के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह के हुक्म पर कुकी समुदाय पर हमले के लिए जा रहे कमांडो दस्ते को रोकने की कोशिश की थी। देश के एक बहुत बड़े रिटायर्ड फौजी ने अपने नाम से इसका खुलासा करते हुए लिखा है कि विश्वयुद्धों में जो असम रायफल्स हिस्सा ले चुकी है, उसे आज मणिपुर की भाजपा सरकार किस तरह बदनाम कर रही है, क्योंकि वह कुकी आदिवासी ईसाई समुदाय पर हमले रोक रही है। मणिपुर का हाल इस पूरे लोकतंत्र को शर्मिंदगी दे रहा है, क्योंकि इस लोकतंत्र के जो सबसे जिम्मेदार लोग हैं, उन्होंने इसकी जिम्मेदारी लेने से मना कर दिया है, और देश के 140 करोड़ लोगों को सामूहिक जिम्मेदार ठहरा दिया है। क्या ऐसे देश को आज आजादी का जश्न मनाने का हक है? या फिर इस रंगारंग जश्न के देशभक्ति के गाने लोगों को मणिपुर को और अधिक भुला देने की मदद कर रहे हैं? यह सोचने की जरूरत है कि हरियाणा के मेवात में वहां के ऐतिहासिक भारतप्रेमी मुस्लिमों को जिस तरह मारा, कुचला, बेघर, बेरोजगार किया जा रहा है, क्या वह आजादी का जश्न मनाने का मौका है? जहां पर एक समुदाय की बसाहट, उसकी रोजी-रोटी बुलडोजरों से गिराई जा चुकी है, क्या उस बुलडोजर पर भी तिरंगा फहराना देश में आजादी का प्रतीक रहेगा? क्या इस हिन्दुस्तान के छत्तीसगढ़ के बस्तर में ईसाई बने आदिवासी की दफन की गई लाश को साम्प्रदायिक ताकतें उखाडक़र गांव के बाहर फेंक रही हैं, और सरकार स्टेडियम में बैठी मानो एक मैच देख रही है, तो क्या ऐसे में आजादी का जलसा जायज है? जब इस देश की संसद को देश की पंचायत की तरह सोचने का हक न हो, क्योंकि इसमें बहुतायत एक खास सोच के लोगों की हो गई है, तो क्या यह आजादी का मौका है? और बहुमत वाले दल के भीतर प्रेमचंद के सवाल का कोई जवाब नहीं रह गया है कि बिगाड़ के डर से क्या सच नहीं कहोगे? तो क्या यह जश्न का मौका है? आज जब कई राज्यों की सरकारें अपने प्रदेश के भीतर जुबान से निकले हर लफ्ज में एक धर्म की हिमायती दिखती हैं, और दूसरे धर्म के खिलाफ हमलावर, और ऐसी सरकारें निर्वाचित हैं, संवैधानिक हैं, और अदालती दखल से ऊपर हैं, तो क्या यह लोकतंत्र के लिए जलसे का वक्त है? ऐसे सैकड़ों मुद्दे हैं, देश के दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक आज बहुसंख्यक सवर्ण, संपन्न तबके की सोच की तोप के निशाने पर हैं, लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हैं, क्या यह नौबत किसी जश्न की है? 

आजादी की सालगिरह कई लोगों के लिए सुनहरे और मीठे गाने लेकर आती है। कांक्रीट के जंगल के बीच बैठे कल दिन भर हम लाउडस्पीकरों पर लगातार यह गाना सुनते रहे- जहां डाल-डाल पर सोने की चिडिय़ा करती है बसेरा, वो भारत देश है मेरा। इस गाने पर मुग्ध, और फख्र करके लोगों को यह भी नहीं सूझ रहा कि आज न डाल बची है, और न किसी भी किस्म की चिडिय़ा, आज तमाम शहरों में गौरैय्या दिखना भी बंद हो चुका है, लेकिन ऐसे में 25-50 बरस से चले आ रहा यह गाना लोगों के राष्ट्रीय अहंकार को सहला देता है, और इसलिए चले भी आ रहा है। खुद ही के बजाए ऐसे गानों के झांसे में आए हुए लोग अब न डाल के हकदार रह गए हैं, न किसी किस्म की चिडिय़ा के, वे सिर्फ गौरव के झूठे या गुजर चुके प्रतीकों का जश्न मनाने के हकदार हैं, और चूंकि यह काफी नहीं है, इसलिए नेहरू और गांधी को गालियां देने को इस जश्न में जोड़ा ही जा रहा है।

देश की आज की हालत को देखकर अदम गोंडवी के शब्द याद आते हैं- 
सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशादरु हैं, 
दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आजाद है।
कोठियों से मुल्क के मेआर को मत आंकिए,
असली हिन्दुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है।
(रुनाशाद का मतलब नाखुश, अभागे, बदनसीब)

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