संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सुप्रीम कोर्ट कड़ाई से जेनेरिक दवा लागू करे
20-Aug-2023 4:08 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  सुप्रीम कोर्ट कड़ाई से  जेनेरिक दवा लागू करे

अभी दो दिन पहले ही हमने हमारे यूट्यूब चैनल पर जेनेरिक दवाओं के बारे में एक प्रमुख डॉक्टर से बातचीत की थी, और उसी के तुरंत बाद सुप्रीम कोर्ट की खबर आई है कि एक जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र और राज्य सरकारों से जवाब मांगा है कि डॉक्टर जेनेरिक दवाएं क्यों नहीं लिख रहे हैं। अदालत इस बात पर नाराजगी जाहिर की है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि यह उन दवा कंपनियों के प्रभाव में काम कर रहे डॉक्टरों की वजह से अमल में नहीं आने वाली बात है जो कि जेनेरिक दवाओं की अनिवार्यता को लागू ही नहीं होने देना चाहते। डॉक्टरों के बहुत से तर्क जेनेरिक दवाओं के खिलाफ हमेशा ही खड़े रहते हैं जिनमें एक यह भी है कि जेनेरिक दवाओं की क्वालिटी की कोई गारंटी नहीं रहती। उनकी इस बात में कुछ सच्चाई हो सकती है, लेकिन अगर आजादी के 75 बरस बाद भी इस देश में दवा कारोबार जायज दामों से चार गुना पर दवा बेचता है, और सस्ती जेनेरिक दवाओं तक गरीबों की पहुंच को रोकने में सरकार भी साजिश में शामिल होती है, तो फिर अदालत के अलावा और रास्ता ही क्या है? कहने के लिए केन्द्र और राज्य सरकारें बार-बार डॉक्टरों की कहती हैं कि वे जेनेरिक दवाएं ही लिखें, लेकिन ऐसा न होने पर किसी पर कोई कार्रवाई नहीं की जाती। अब सुप्रीम कोर्ट में दाखिल पीआईएल में यह बात गिनाई गई है कि भारतीय चिकित्सा परिषद विनियम-2002 के तहत डॉक्टरों को जेनेरिक दवा लिखना अनिवार्य है, लेकिन डॉक्टर केवल महंगी ब्रांडेड दवाओं को ही बढ़ावा देते हैं। ब्रांडेड दवाएं लोगों को पांच-दस गुना अधिक दाम पर मिलती हैं, और औसतन रियायत 75-80 फीसदी रहती है जो कि बहुत सी भरोसेमंद और साख वाली कंपनियों की जेनेरिक दवाओं पर उपलब्ध भी है, लेकिन न डॉक्टर इन दवाओं को लिखते, और न आम मेडिकल स्टोर इन्हें रखते। दुकानों का इन्हें न रखने का सीधा-सीधा तर्क है कि बिल अधिक बनता है तो उनका मुनाफा भी अधिक होता है। 

अब इतने गरीब देश में लोगों के पास खाने को नहीं है, और अगर केन्द्र और राज्य सरकारों की कई योजनाओं के तहत उन्हें रियायती या मुफ्त राशन न मिले, तो देश में एक बार फिर भुखमरी की नौबत आ जाए। ऐसे में कुछ प्रदेशों में सरकारी इलाज लोगों को ठीक से हासिल है, लेकिन अधिकतर प्रदेशों में सरकारी अस्पताल जरूरत से बहुत कम हैं, वहां पर वक्त पर जांच नहीं हो पाती, दवा ठीक से नहीं मिल पाती, और ऑपरेशन वक्त पर नहीं हो पाते। सरकारी अस्पतालों में भी दवाओं की खरीदी में घटिया दवाओं के चलन की चर्चा हमेशा ही रहती है। देश की 90 फीसदी आबादी इलाज के लिए सरकार पर निर्भर रहती है, और सरकार से निराश होने पर लोग निजी अस्पतालों तक जाते हैं। लेकिन जहां तक जेनेरिक दवाओं की बात है, तो न सरकारी डॉक्टर, और न ही निजी डॉक्टर जेनेरिक दवाईयां लिखते। कई डॉक्टरों का यह मानना है कि उन्हें जो दवा कंपनी भरोसेमंद लगती है, वे उस ब्रांड की दवा लिखते हैं, और अगर वे जेनेरिक दवा लिखेंगे तो मरीज दवा दुकानदार के रहमोकरम पर आ टिकेंगे, जो कि अपने मुनाफे के लिए सबसे घटिया कंपनी की दवा भी टिकाने लगेंगे, और मरीजों की तो इस बारे में कोई समझ रहेगी नहीं। यह तर्क सरकार के कामकाज पर एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा करता है कि दवा जैसी जीवनरक्षक चीज को बनाने वाली कंपनियां घटिया कैसे हो सकती हैं, उनका दवा निर्माण का तरीका घटिया कैसे हो सकता है? देश में हर उद्योग केन्द्र और राज्य सरकारों के बहुत से नियमों से बंधे रहते हैं, और ऐसे में अगर कोई उद्योग स्तरहीन तरीके से, स्तरहीन दवा बना रहे हैं, तो यह सरकारों की नालायकी का एक बड़ा सुबूत है, जिसके दाम गरीब मरीज चुकाए यह बहुत बड़ी बेइंसाफी है। 

भारत के पड़ोस का बांग्लादेश जो कि 1971 में ही आजाद हुआ, वहां पिछले 30 बरस से जेनेरिक दवाओं का काम बड़ी कामयाबी से चल रहा है। वहां एक नई सरकार थी जिसने दवा उद्योगों के जाल में फंसने से इँकार कर दिया, और पहले ही दिन से जेनेरिक दवाओं को लागू किया, जो कि गरीबों के लिए बड़ी राहत की बात है। हिन्दुस्तान में सरकारों की नालायकी अगर घटिया दवाई बनाने का मौका कारखानेदारों को दे रही है, तो यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, फिर चाहे इसके लिए सुप्रीम कोर्ट को ही लाठी क्यों न चलानी पड़े। यह ऐसे सौ-पचास दूसरे मामलों में शामिल हो जाएगा जिनमें सरकारों की नालायकी या साजिश की वजह से सुप्रीम कोर्ट को सरकारी काम में दखल देना पड़ता है, और सरकारों को बताना पड़ता है कि उनकी जिम्मेदारी क्या है। 

भारत में इस सिलसिले को तोडऩा पड़ेगा कि पहले अच्छी क्वालिटी की जेनेरिक दवा बनें, फिर डॉक्टर उन्हें लिखें, या पहले डॉक्टर जेनेरिक दवा लिखें, और फिर कंपनियां उन्हें बनाने लगें। बाजार की इस साजिश में अगर सरकार हिस्सेदार नहीं होती, तो यह मामला कब का सुलझ गया रहता। हम अभी इस बात पर जाना नहीं चाह रहे कि दवा उद्योग का डॉक्टरों के साथ किस तरह का मिलाजुला कारोबार रहता है, और सरकार को नियम बना-बनाकर इस भ्रष्टाचार को रोकना पड़ता है। यह गिरोहबंदी भी देश में सस्ती जेनेरिक दवाओं की संभावनाओं को खत्म करती है, और अंधाधुंध मुनाफा कमाने वाली दवा कंपनियों की लूट को जारी रखती है। अच्छा है अगर सुप्रीम कोर्ट तमाम लोगों से जवाब मांग रहा है, केन्द्र और राज्य सरकारों के बाद दवा उद्योग और डॉक्टरों के संगठन भी इस सुनवाई में शामिल हो सकते हैं, और एक बार इस पर फैसला हो ही जाए कि इस लोकतंत्र में गरीब जनता के इलाज का हक अधिक है, या कि दवा कंपनियों के भ्रष्टाचार की सरकार के ऊपर ताकत अधिक है। डॉक्टर-अस्पताल, दवा कंपनियां, और सरकार, ये तीनों मिलकर एक ऐसा बरमूडा त्रिकोण बना रहे हैं जिसमें फंसकर गरीब मरीज का डूबना तय रहता है, इस सिलसिले को तोडऩा चाहिए। अभी हमें जो जानकारी मिली है उसमें कहा गया है कि छत्तीसगढ़ में सरकार ने जगह-जगह सैकड़ों मेडिकल स्टोर खोले हैं जहां पर अच्छी कंपनियों की बनाई हुई जेनेरिक दवाएं 75 फीसदी तक रियायत पर मिलती हैं। अब ये दवाएं कितनी अच्छी हैं, यह परखना सरकारों का काम है, हम उसे नहीं समझ सकते, लेकिन अगर अपनी दवाओं के प्रति जवाबदेह कुछ चुनिंदा अच्छी कंपनियां इतनी सस्ती दवा बना सकती हैं, तो सरकारें दवा उद्योगों की निगरानी करके देश की तमाम सस्ती दवाओं को भरोसेमंद बनाने की गारंटी क्यों नहीं कर सकतीं? और जहां तक घटिया दवाई बनाने की बात है तो जो दवाएं जेनेरिक नहीं भी हैं, वे भी दुनिया भर में एक्सपोर्ट होती हैं, और भारतीय दवाओं से हाल के महीनों में कई देशों में सैकड़ों बच्चों के मरने की खबर भी आई है। अब दुनिया का सबसे बड़ा दवा निर्माता देश अगर अपने इस उद्योग में क्वालिटी की गारंटी नहीं करेगा, तो उसका एक्सपोर्ट का बाजार भी चौपट हो जाएगा। इसलिए भी सरकार को दवा उद्योग पर क्वालिटी के पैमाने कड़ाई से लागू करने चाहिए, और उसी से देश में सस्ती जेनेरिक दवाओं में भी क्वालिटी आ सकेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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