संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : लेखकों को लिखना छोड़ जनता से जुडऩे की सलाह पर सोच-विचार की जरूरत
22-Aug-2023 6:38 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : लेखकों को लिखना छोड़ जनता से जुडऩे की सलाह पर सोच-विचार की जरूरत

जबलपुर में अभी प्रगतिशील लेखक संघ का 18वां राष्ट्रीय अधिवेशन चल रहा है। यह सम्मेलन वामपंथी विचारधारा के लेखकों का है, और जबलपुर के हरिशंकर परसाई देश के सबसे बड़े व्यंग्यकार भी थे, और इस संगठन से जुड़े हुए भी थे। परसाई के लिखे हुए पर बहुत कुछ लिखा गया है। और आलोचकों के लिखे बिना भी अखबारों के मार्फत आम पाठकों ने परसाई को खूब पढ़ा है। वे अपनी सरल और सहज जुबान के साथ राजनीतिक जागरूकता और सामाजिक सरोकार से लदे हुए थे। इसलिए यह सम्मेलन उनकी स्मृति के साये में हो रहा है, और सोशल मीडिया पर पिछले कुछ हफ्तों में परसाई पर जितना लिखा गया है, उतना पहले कभी नहीं लिखा गया था। परसाई अपनी जिंदगी में कई अखबारों में लगातार नियमित कॉलम लिखते थे, और देश की किसी भी भाषा के व्यंग्यकार के मुकाबले शायद उनके पाठक भी अधिक थे, और वे किताबों से परे भी एक हस्ती थे। अभी जबलपुर का यह आयोजन हरिशंकर परसाई की स्मृति, उनकी लेखन पर खूब चर्चा कर रहा है। और यह चर्चा दूसरे किसी गुजर चुके लेखक पर चर्चा से अलग इसलिए है कि चले जाने के बाद भी परसाई किसी भी दूसरे हिन्दी लेखक के मुकाबले आज अधिक प्रासंगिक इसलिए हैं कि जिन बातों पर उन्होंने लिखा, वे तमाम आज भी मौजूद हैं, और यह जरूरत है कि उन बातों पर परसाई से आगे बढक़र भी लिखा जाए। 

हम स्मृतियों में बहुत ज्यादा जीने के खिलाफ हैं। इधर-उधर लिखते भी रहते हैं कि जो लोग आज हौसले से लिख नहीं पाते, वे पुराने हौसलामंद लेखकों की स्मृतियों के जलसे करके उसकी भरपाई करने की कोशिश करते हैं। आज का वक्त जब आज के लिखे जा रहे, और न लिखे जा सक रहे पर चर्चा का होना चाहिए था, बहुत से सरकारी और गैरसरकारी कार्यक्रम इतिहास के कुछ बड़े लेखकों या पत्रकारों की स्मृतियों से शुरू होते हैं, और उन्हीं पर खत्म भी हो जाते हैं। ऐसे में आज ही सुबह जबलपुर के एक लेखक ने इस सम्मेलन में एक लेखक की कही हुई एक बात को लिखा है कि लेखकों को लिखना बंद कर देना चाहिए, नाटककारों को नाटक बंद कर देना चाहिए, और जनता से सीधे जुडऩा चाहिए। उनके कहे का मतलब शायद यह है कि लेखक और रंगकर्मी अपनी रचनाओं के माध्यम से जनता से जुड़ नहीं पा रहे हैं, ऐसे में रचना से अधिक महत्वपूर्ण जुडऩा है, और लोगों को आम लोगों से जुडऩा चाहिए। 

यह एक बड़ी दिलचस्प सोच है, और चाहे जिस किसी ने सामने रखी हो, इस पर सोच-विचार होना चाहिए। क्या लेखक और दूसरे किस्म के रचनाकार, कलाकार जनता से सचमुच कट गए हैं? क्या वे जो लिख रहे हैं, वह भी जनता तक जाता है या नहीं जाता है, इसकी परवाह उन्हें नहीं रह गई है? हाल के बरसों में जिस तरह साहित्य पर चर्चा के पर्यटन से होने लगे हैं, कहीं जयपुर तो कहीं किसी और शहर में अब साहित्य महोत्सव होते हैं जो कि पांच सितारा भव्य आयोजन सरीखे दिखते हैं, जिनमें बड़े नामी-गिरामी लेखक, कलाकार, और पत्रकार पहुंचते हैं, पहले से चर्चित और पहले से जिनके बारे में बहुत कुछ छपा हुआ है, वैसे लोग मंचों पर एक-दूसरे से बात करते हैं, कुल मिलाकर लेखकों और उनके सरीखे कुछ छोटे-छोटे दूसरे तबकों के लोगों का यह जमावड़ा आपस में ही एक-दूसरे में मगन दिखता है, और फिर अगले जलसे तक ये तमाम लोग सोशल मीडिया पर ऐसे पिछले जलसे के बारे में लिखते रहते हैं। 

आज यह सवाल पहले के मुकाबले कुछ अधिक परेशान करता है कि लेखक किसके लिए लिखते हैं? हरिशंकर परसाई का लिखा हुआ तकरीबन तमाम, अखबारों में छपते रहा, और चौबीस घंटे के भीतर रद्दी में जाते रहा। बाद में उनकी किताबें भी छपीं, लेकिन किताबों के पाठक उनके अखबारी पाठकों के मुकाबले गिनती के ही थे। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आज सजिल्द छपने वाली महंगी किताबों पर फिदा लेखकों को क्या पाठकों तक पहुंचने की परवाह नहीं रह गई है, चुनिंदा हजार-पांच सौ लोगों के बीच महंगी छपी किताब पहुंच जाना ही सब कुछ हो गया है? क्या लिखना पाठक के पढऩे के लिए होता है, या आलमारियों में हार्डबाउंड किताबों की शक्ल में महफूज हो जाने के लिए? ऐसे बड़े से सवाल हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि खुद लेखक भी इनके जवाब नहीं चाहते, वे किसी नामी-गिरामी प्रकाशक से अपनी अगली किताब की शानदार छपाई चाहते हैं। यह किताब जाहिर है कि महंगी होने की वजह से भी कम लोगों तक पहुंचती है, और आम पाठकों का रिश्ता इस महंगेपन की वजह से किताबों से टूट सा गया है। अब मोटेतौर पर लेखक ही पाठक रह गए हैं, और जैसा कि जबलपुर में अभी एक लेखक ने लिखा कि लेखक आलोचकों को ध्यान में रखकर भी लिखने लगे हैं। 

यह पूरा सिलसिला निराश करता है कि जिस परसाई पर इतनी चर्चा हो रही है उनका तो सब कुछ लुग्दी वाले अखबारी कागज पर, अखबारों में ही छपा, और वे लुग्दी पर ही एक महान लेखक बने। किताबें तो शायद उनके पूरी स्थापित हो जाने के बाद आई होंगी, लेकिन तब तक वे दसियों लाख पाठकों तक पहुंच चुके थे। यह बात हमें हैरान करती है कि आज अधिकतर लेखक अधिक पाठकों तक पहुंचने की कोशिश को अहमियत नहीं देते, और अपनी किताब की शानदार छपाई उनके लिए अधिक मायने रखती है। यह सोच, अगर सचमुच है, तो फिर यह अपने लिखे हुए को महत्व देने के बजाय उसकी छपाई को महत्व देने की बात है। लिखे हुए की सार्थकता तो अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचने में होनी चाहिए, ताकि उसका मकसद पूरा हो सके। महंगी किताब छापकर कमाई करना एक प्रकाशक की नीयत तो हो सकती है, लेकिन पाठकों के लिए लिखने वाले लेखक के लिए यह महंगा काम अटपटा लगता है। 

हालांकि इन बरसों में सोशल मीडिया ने छपे हुए शब्द की महत्ता को सीमित कर दिया है, अब बिना छपे भी लोग अधिक लोगों तक पहुंच सकते हैं, और हालत यह है कि छपने वाले नामी-गिरामी लोग भी सोशल मीडिया पर अपनी किताबों को उसी तरह बढ़ावा देते दिखते हैं, जिस तरह फिल्मी सितारे अपनी फिल्मों के प्रमोशन के लिए शहर-शहर घूमकर मंचों पर जाते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन जिस बात से हमने लिखना शुरू किया उस पर भी अब आ जाना चाहिए कि लेखकों को जनता से जुडऩा चाहिए। एक लेखक ने तो लिखना बंद करके जुडऩे को कहा है, लेकिन हमारा हमेशा से यह मानना है कि लेखक को लिखने के पहले भी लोगों से जुडऩा चाहिए। समाज के अलग-अलग तबके, उनकी अलग-अलग दिक्कतें, उन पर मंडराते खतरे, लोकतंत्र और राजनीति के मौजूदा हाल, मजदूरों, और दूसरे वंचित तबकों के बदहाल से सामना किए बिना किसी लेखक की अपनी सोच का संसार कैसे पूरा हो सकता है? जरूरी नहीं है कि हर लेखक इन मुद्दों पर लिखे लेकिन लेखकों को इन मुद्दों का सामना तो करना ही चाहिए, और उस तजुर्बे के साथ वे फिर जिस चीज पर चाहें उस पर लिखें। जिंदगी की असली हकीकत से रूबरू होने के बाद उन्हें यह भी समझ आएगा कि उनका लिखा कितने तबकों तक पहुंचेगा, वे लोग क्या सोचेंगे, उनके कितने काम का यह लिखा हुआ रहेगा? कुल मिलाकर एक लेखक के मानसिक और बौद्धिक विकास के लिए असल दुनिया से उसका जितना साबका पडऩा चाहिए, उसका कोई विकल्प नहीं हो सकता। दुनिया की अधिकतर महान साहित्य-कृतियां असल जिंदगी को देखने के बाद ही शायद बनी होंगी। परसाई से अधिक बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है कि लोगों से जुड़े रहने का उनके लेखन पर कैसा असर पड़ा, और महानता तक का उनका सफर किस तरह जिंदगी की हकीकतों से होते हुए गुजरा। अब आज के लेखक लोगों से जुडऩे के लिए लिखना बंद करके जुड़ें, यह भी बहुत देर हो जाएगी। हमारा मानना है कि लेखकों को लिखना शुरू करने के पहले ही लोगों से जुडऩा चाहिए, इससे जितना भला लोगों का होगा, उससे अधिक भला लेखकों का होगा। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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