संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पाक केबल कार हादसा, जिंदगियां बच गईं लेकिन सबक लेने की जरूरत
23-Aug-2023 6:50 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  पाक केबल कार हादसा, जिंदगियां बच गईं लेकिन सबक लेने की जरूरत

पाकिस्तान में अभी दो पहाडिय़ों के बीच केबल कार से जा रहे आठ लोग एक केबल टूटने से फंस गए। केबल कार तार से टंगी हुई तो थी, लेकिन वह नीचे खाई से नौ सौ फीट की ऊंचाई पर थी, यानी करीब 90 मंजिल ऊंची इमारत जितनी। और नीचे गहरी नदी थी जिसमें बाढ़ भी थी। यहां तक हेलीकॉप्टर से जाना भी आसान नहीं था क्योंकि उसके पंखों से इतनी तेज हवा पैदा होती है कि उसके झोंकों में यह केबल कार गिर सकती थी। प्रधानमंत्री और खैबर राज्य की सरकार के साथ फौज भी लगातार इस पर निगरानी रख रही थी, और इसमें फंसे लोगों में छह बच्चे और दो टीचर थे। एक लडक़ा ऐसा भी था जिसकी सेहत बहुत खराब थी, और वह बेहोश हो गया था। बड़ी मुश्किल से लोगों को एक-एक करके निकाला गया, और यह बहुत खतरनाक हालत थी। इस बचाव को एक असंभव किस्म का काम माना जा रहा था, और फौज की इसे लेकर तारीफ हो रही है। पाकिस्तान के इस हिस्से में सडक़ और पुल की कमी है, और नदी पर पुल न होने से सैकड़ों बच्चे और दूसरे लोग रोज इसी केबल कार से स्कूल आते-जाते हैं। एक रिपोर्ट बताती है कि यह केबल कार कोई निजी कारोबारी चलाता था, और उसने स्थानीय जुगाड़ से यह सब बनाया हुआ था, जिसकी क्वालिटी का कोई ठिकाना नहीं था। यह एक बड़ा संयोग है कि सारे के सारे लोग बचाए जा सके, वरना कुछ भी हो सकता था। 

अब पाकिस्तान हो या हिन्दुस्तान, एशिया के इस हिस्से में गरीबी की वजह से बहुत किस्म की जुगाड़ टेक्नालॉजी काम करती है। पंजाब-हरियाणा के इलाके में मारूति कार की तर्ज पर नाम रखकर मारूटा बनाया गया है जिसमें किसी एक इंजन के पीछे फसल ढोने सरीखी एक ट्रॉली लगा दी जाती है, और उस पर दर्जनों लोग एक साथ सफर करते हैं। न ऐसी किसी गाड़ी की इजाजत सडक़ कानूनों में है, और न ही यह सुरक्षित रहती है, लेकिन स्थानीय स्तर पर यह धड़ल्ले से चलती है। हर प्रदेश और शहर में अपने-अपने किस्म की ऐसी जुगाड़ तकनीक आम दिखती है, और कानून लागू करने वाली पुलिस इस तरफ से आंखें बंद रखती है, किस वजह से, इसे आसानी से समझा जा सकता है। हम अपने आसपास ही देखते हैं कि पहले हाथठेलों पर लंबे-लंबे पाईप और लोहे की छड़ें ले जाई जाती थीं जिन्हें एक-दो ठेले वाले मिलकर मुश्किल से धीरे-धीरे धकेलकर चलते थे। अब एक मोटरसाइकिल के पीछे के चक्के की जगह एक ट्रॉली जोड़ दी जाती है, और उस पर वैसे ही लंबे पाईप या छड़ लादकर बहुत रफ्तार से सडक़ों पर उसे ले जाया जाता है। हाथठेलों की धीमी रफ्तार से यह लंबाई भी कम खतरनाक रहती थी, लेकिन अब वैसी ही खतरनाक लंबाई के सामान तेज रफ्तार से दौड़ते हैं, और किसी भी दिन कोई बड़ा हादसा हो सकता है। हर मुसाफिर ऑटोरिक्शा में कई तरह की सीट जोड़ दी जाती है, और तीन मुसाफिरों की कानूनी सीमा के कई गुना अधिक लोग लादकर ले जाए जाते हैं, और इनके एक-एक हादसे में आधा-एक दर्जन लोग भी मारे जाते हैं। गरीब मजदूरों से लेकर तीर्थयात्रियों तक, और गरीब या गांव की बारातों तक को मालवाहक गाडिय़ों पर ले जाया जाता है जिसकी किसी तरह की हिफाजत नहीं रहती, और न उनके ऊपर कोई रोक है। हर बरस ऐसे हादसों में हजारों मौतें एक छोटे राज्य में हो जाती हैं, लेकिन सरकारों की नींद नहीं टूटती। ऐसे जुर्म को रोकने के जिम्मेदार विभाग परले दर्जे के भ्रष्ट भी हो जाते हैं, और सत्ता के चहेते बने रहते हैं। इसलिए पुलिस और आरटीओ महकमे के साथ सभी तरह के नियम तोडऩे वालों की गिरोहबंदी जिंदगियों को रात-दिन बेचती है। 

अब सरकारों के जिम्मेदारी न निभाने के खिलाफ कोई कब तक अदालत जाए? ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तानी अदालतों का बुनियादी काम सरकार के खिलाफ लडऩा ही रह गया है, सरकार के किए जा रहे गलत कामों को रोकने में अदालतों का खासा वक्त लगता है। ऐसा लगता है कि सरकार चलाने की जिम्मेदारी का एक हिस्सा अदालतों पर है जो कि रात-दिन सरकार को रोकने-टोकने का काम करती हैं, गलत कामों से रोकती हैं, जवाब-तलब करती हैं, और किसी किनारे नहीं पहुंचती हैं। पाकिस्तान में अगर स्थानीय सरकार जुगाड़ तकनीक से बनी ऐसी केबल कार को पहले ही रोकती, या उस पर हिफाजत का जिम्मा डालती, तो ऐसी खतरनाक नौबत नहीं आती जिसमें इतने लोग मौत के मुंह में जाकर वापिस लौटे हैं। अब तो हिन्दुस्तान में हमें इस बात की भी कोई उम्मीद नहीं रहती कि देश या परदेस में किसी तरह का हादसा देखने के बाद यहां के अफसर, यहां की सरकारें, अपनी-अपनी जिम्मेदारी के दायरे में जांच कर लें, सुधार कर लें। अभी तो हाल यह है कि जिस शहर में ओवरलोड ऑटोरिक्शा के हादसे में ढेरों मौतें हो जाती हैं, वहां उस दिन भी बाकी ऑटोरिक्शा का ओवरलोड नहीं जांचा जाता। दरअसल सरकार के निकम्मेपन पर कोई अदालती कार्रवाई नहीं हो सकती, और यही वजह है कि सरकार की कोई जवाबदेही नहीं रह गई है। हम अधिकतर प्रदेशों में देखते हैं कि चाहे किसी पार्टी की सरकार रहे, उसका ढर्रा यही रहता है, और जब सभी पार्टियां बराबरी से भ्रष्ट हैं, तो वोटर के सामने पसंद रह क्या जाती है? 

हम छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में देखते हैं कि सडक़ों पर मौत इस रफ्तार से दौड़ती है, कदम-कदम पर रहती है, लेकिन उसे रोकने में किसी की दिलचस्पी नहीं है। पिछले बीस बरस में जिस पार्टी का भी राज रहा हो, उसने सडक़ों को वसूली और उगाही का जरिया बनाकर रखा, और इस बारे में कांग्रेस और भाजपा की नीति और विचार बिल्कुल एक सरीखे हैं। यह सिलसिला टूटना चाहिए, लोगों को खुद इकट्ठे होकर सडक़ों पर आना चाहिए। कानून तोड़ती गाडिय़ों को घेरकर पुलिस को आने पर मजबूर करना चाहिए, और कार्रवाई करवानी चाहिए। जागरूक लोगों के संगठन सोशल मीडिया पर ऐसे पेज बना सकते हैं जो कि सडक़ों पर तोड़े जाते कानून के फोटो-वीडियो पोस्ट करें, और सरकारों को मजबूर करें कि वे उन पर कार्रवाई करें। मैदानी प्रदेशों में केबल कार जैसी जरूरत कम रहती है, लेकिन कुछ जगहों पर तीर्थयात्रा के लिए, या सैलानियों के लिए केबल कार अगर है, तो जागरूक नागरिकों को जाकर उसकी सुरक्षा के सर्टिफिकेट देखने चाहिए, और गड़बड़ मिलने पर तुरंत ही उसकी शिकायत करनी चाहिए। 

इन सबकी कोई जरूरत न रहे, अगर सरकारें अपना काम जिम्मेदारी से करें। लेकिन जनता को वैसी ही सरकारें मिलती हैं जिनकी वह हकदार रहती है। मुर्दा जनता को मरघट के चौकीदार किस्म की सरकार ही मिलती है। अगर अच्छा काम करने वाली सरकार चाहिए, तो उसके लिए जनता का अपना जागरूक होना भी जरूरी है। लोगों को नेताओं और अफसरों से सार्वजनिक रूप से सवाल करना सीखना चाहिए, और अब तो सोशल मीडिया की मेहरबानी से यह काम मुमकिन भी है। हर शहर को जागरूक नागरिकों के संगठन बनाने चाहिए, और उन्हें अपने हक के लिए सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ लडऩा चाहिए। अदालतें भी तभी लोगों के काम आ सकती हैं जब लोग खुद आवाज उठाएं। लोकतंत्र में यह भी है कि जनआंदोलनों का अदालतों पर भी असर पड़ता है क्योंकि जज अखबार भी पड़ते हैं, टीवी भी देखते हैं, और हो सकता है कि बहुत से बड़े जज सोशल मीडिया पर जनमुद्दे देखते हों। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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