संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : शिक्षिका की साम्प्रदायिकता किसी समझौते लायक नहीं, सख्त कानूनी कार्रवाई जरूरी
27-Aug-2023 3:57 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  शिक्षिका की साम्प्रदायिकता किसी समझौते लायक नहीं, सख्त कानूनी कार्रवाई जरूरी

photo : twitter

बहुत से काम अच्छी नीयत से किए जाते हैं, या कम से कम वे अच्छी नीयत से किए हुए कहे जा सकते हैं, बताए जा सकते हैं। लेकिन इनमें से कुछ काम अपने मकसद से ठीक उल्टा भी कर सकते हैं। अब कल जैसे मुजफ्फरनगर में स्कूल में मुस्लिम बच्चे को टीचर के कहे हुए पीटने वाले हिन्दू बच्चों को किसान नेता नरेश टिकैत ने वहां जाकर पीटने वाले के गले लगवाया, और यह कहा कि बच्चों के मन में एक-दूसरे के लिए नफरत नहीं रहनी चाहिए। पहली नजर में उनका यह काम बड़ा सद्भावना का लगता है कि दोनों समुदायों में कोई नफरत न फैले। लेकिन दूसरी तरफ इसे एक अलग नजरिए से भी देखने की जरूरत है। देश में मुस्लिम राजनीति करने वाले सबसे चर्चित सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कल से ही मुजफ्फरनगर की क्लासरूम हिंसा को लेकर बयान देना शुरू किया था, अब उन्होंने टिकैत पर भी निशाना साधा है। उन्होंने कहा कि नरेश टिकैत तो इस प्रिंसिपल के खिलाफ एफआईआर खत्म करने की बात कर रहे हैं, वह नरेश टिकैत की क्या लगती है, बहन, या कोई करीबी दोस्त? उन्होंने पूछा कि अगर टिकैत के बेटे या पोते को स्कूल में इस तरह पीटा जाता तो वह क्या करते? उन्होंने टिकैत से पूछा- अगर आप किसानों की लड़ाई लड़ते हैं, तो क्या इंसानियत की लड़ाई नहीं लड़ेंगे? भारत के संविधान में गरिमा का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। इसके पहले ओवैसी ने कल ही लिखा था कि भारतीय मुसलमानों को उसी उत्पीडऩ और भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है जैसा कि 1930 के दशक में जर्मनी में हिटलर के हाथों यहूदियों को झेलना पड़ा था। ओवैसी ने मोदी से भी यह सवाल किया था कि इस मुस्लिम बच्चे के पिता को मालूम है कि योगीराज में इंसाफ नहीं मिलेगा, इसलिए वह रिपोर्ट नहीं लिखा रहा था। उन्होंने सीएम योगी आदित्यनाथ से सवाल किया था कि अब उनकी बुलडोजर और ठोक दो नीति का क्या हुआ? 

अब कुछ दूसरी खबरें फिक्र पैदा करती हैं कि सुप्रीम कोर्ट के बार-बार के हुक्म के बाद भी किसी देश की सरकार किस तरह उसे धता बता सकती है। यूपी में योगी की पुलिस ने इस स्कूल संचालिका के खिलाफ जो मुकदमा दर्ज किया है उसमें किसी धर्म के खिलाफ कुछ करने का कोई जिक्र नहीं है। और यह बात भी तब है जबकि उसके वीडियो चारों तरफ फैले हुए हैं जिन्हें कि सुप्रीम कोर्ट अब तक देख चुका होगा। देश की सबसे बड़ी अदालत की नजरों के सामने अगर उसके हुक्म के खिलाफ पुलिस इतने धड़ल्ले से काम करती है, तो उन तमाम नौबतों की तो कल्पना ही की जा सकती है जो जहां तक अदालत की नजरें पहुंचती नहीं हैं, और जो मामले वीडियो-कैमरों से परे होते हैं। नफरती हिंसा के मामले में कार्रवाई के लिए मुजफ्फरनगर का यह मामला एक मिसाल बन सकता था, लेकिन अगर टिकैत के बीच-बचाव की कोई पहल इस कार्रवाई को खत्म करवाने की शर्त के साथ हो रही है, तो यह इंसाफ के खिलाफ बात है। नफरती और साम्प्रदायिक आतंकी हिंसा का यह मामला किसी समझौते या माफी के लायक नहीं है। यह तो एक ऐसी मिसाल है जिस पर अदालत की सबसे सख्त कार्रवाई एक नजीर पेश कर सकती है जो कि बाकी देश के लिए भी एक सबक और नसीहत हो सकती है। हमारा ख्याल है कि सद्भावना के लिए ऐसा कोई बीच-बचाव जायज नहीं है जो कि ऐसी नफरती हिंसा को माफी दिलवा दे। हमने कल भी इस जगह लिखा था कि शिक्षिका का काम कर रही यह औरत वहां मौजूद हर एक बच्चे के दिल-दिमाग पर एक हिंसक छाप छोडऩे के जुर्म में बाकी तमाम जिंदगी जेल में रखने के लायक है, और उसके लिए खुली दुनिया में कोई जगह नहीं होना चाहिए। 

यह शर्मनाक बात है कि जो खबर पूरे हिन्दुस्तान में यूपी सरकार को धिक्कार रही है, उस पर अब तक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मुंह भी नहीं खोला है। आमतौर पर वे ठोक दो, और बुलडोजर की जुबान बोलते हैं, उनकी बात से यह साफ हो जाता है कि वे किस धर्म का राज चाहते हैं, लेकिन लोकतंत्र का लचीलापन यह है कि इसमें उनकी साम्प्रदायिकता पर कोई रोक नहीं लग पा रही है। उत्तरप्रदेश में साम्प्रदायिक भेदभाव का यह पहला और अकेला मामला नहीं है, यह सिलसिला वहां चलते ही आ रहा है। इसलिए अब सुप्रीम कोर्ट में जरूरत इस बात की है कि यूपी पुलिस को कटघरे में लाया जाए कि उसने इतने साफ-साफ वीडियो और बयानों के बाद भी साम्प्रदायिकता की कोई धारा इस केस में क्यों नहीं लगाई है। हेट-स्पीच के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने इतने कड़े निर्देश दिए हैं, लेकिन उनकी भी कोई परवाह न यूपी पुलिस को दिख रही है, और न ही देश के बहुत से और राज्यों की पुलिस को। छत्तीसगढ़ में साम्प्रदायिक हत्याओं के बाद बस्तर में खुलेआम विश्व हिन्दू परिषद और भाजपा के नेताओं ने सडक़ पर लाउडस्पीकर पर राम की कसम खाकर तमाम मुस्लिम कारोबारियों का बहिष्कार करने की कसम खाई, और छत्तीसगढ़ पुलिस ने आज तक उस पर कोई जुर्म कायम नहीं किया क्योंकि सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के लिए वह हिन्दू बहुल प्रदेश में मतदाताओं के बीच घाटे का काम हो सकता था।
 
अब सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि हेट-स्पीच पर अपने जुबानी जमा-खर्च से परे अपना एक कमिश्नर नियुक्त करे जो कि देश के जाने-माने, साख वाले धर्मनिरपेक्ष लोगों की मदद से पूरे देश से हर दिन ऐसी जानकारी इकट्ठी करे जो कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के खिलाफ है। और हर महीने अदालत को ऐसी रिपोर्ट पर कार्रवाई करनी चाहिए। अब जब देश की दोनों बड़ी पार्टियां, भाजपा और कांग्रेस, हिन्दू वोटों की राजनीति कर रही हैं, तो अदालत से ही उम्मीद रह जाती है। सुप्रीम कोर्ट को देश की धर्मनिरपेक्षता के लिए न सही, कम से कम अपने अनगिनत आदेशों की इज्जत के लिए ऐसा एक जांच कमिश्नर तुरंत बनाना चाहिए, जिसके पास देश भर से सुबूतों सहित शिकायतें आ सकें, और सरकारों से जवाब-तलब हो सके। 

फिलहाल मुजफ्फरनगर का यह मामला किसी भी किस्म के समझौते का मामला नहीं है, यह एक शिक्षिका और एक बच्चे के बीच का मामला भी नहीं है, यह देश की धर्मनिरपेक्षता का मामला है, और उसे बेचकर समझौता करने का हक न तो इन दोनों पक्षों को है, और न ही टिकैत सरीखे किसी सद्भावना वाले मध्यस्थ को। इस मामले को इस परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए कि एक गरीब मुस्लिम परिवार उत्तरप्रदेश में हिन्दू-साम्प्रदायिकता के खिलाफ भला कितनी शिकायत करने का हौसला दिखा सकता है? 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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