संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मीडिया-कारोबार के ताजा विस्फोट को देखते हुए देश में नई निगरानी जरूरी हुई
07-Sep-2023 4:27 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मीडिया-कारोबार के ताजा विस्फोट को देखते हुए देश में नई निगरानी जरूरी हुई

photo : twitter

हरियाणा के गुरूग्राम की एक विशेष अदालत ने एक नाबालिग के वीडियो को तोड़-मरोडक़र प्रसारित करने के मामले में 8 पत्रकारों के खिलाफ कई आपराधिक आरोप तय किए हैं। ये पत्रकार देश के चर्चित टीवी जर्नलिस्ट हैं, और इन पर पॉक्सो एक्ट के तहत आरोप तय किए गए हैं जो कि बच्चों के अश्लील इस्तेमाल का कानून है। यह करीब दस साल पहले से चले आ रहा मामला था, और एक खबर में बताया गया है कि एक परिवार में आसाराम (बापू) के पहुंचने पर परिवार के लोगों ने उनसे आशीर्वाद लिया था, और उसकी वीडियो भी बनाई गई थी। बाद में जब आसाराम का बलात्कारकांड हुआ तो कई टीवी चैनलों ने जो रिपोर्ट बनाई उनमें इस परिवार के साथ उनके आशीर्वाद के वीडियो को भी गलत तरीके से जोडऩे का आरोप है, और इस घर को अश्लीलता का अड्डा बताया गया था। अब बड़े नामी-गिरामी और चर्चित पत्रकारों पर पॉक्सो के तहत चार्जफ्रेम हो गए हैं, तो उनके लिए कुछ परेशानी हो सकती है। 

इस मामले से एक सबक तो यह मिलता है कि कानून के तहत मीडिया को जो सावधानी बरतनी चाहिए, उसमें बड़े-बड़े, अनुभवी पत्रकार भी गलती कर सकते हैं। खासकर बच्चों और महिलाओं के मामले में, दलितों और आदिवासियों के मामले में कानून बड़ा साफ है, और बड़ा कड़ा है। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बिजली सरीखी रफ्तार के चलते, और एक-दूसरे से गलाकाट मुकाबला होने की वजह से टीवी चैनलों से गलतियां कुछ अधिक होती हैं, हालांकि अखबार भी इससे अछूते नहीं रहते। दूसरी तरफ बड़ी लागत से चलने वाले टीवी चैनलों के पास तो चीजें को जांचने-परखने के लिए एक ताकत रहती है, लेकिन इन दिनों डिजिटल मीडिया के नाम पर कोई अकेले व्यक्ति भी एक वेबसाइट बनाकर उस पर समाचार-विचार, फोटो और वीडियो पोस्ट कर सकते हैं, करते हैं, और फिर इसके लिंक तरह-तरह के मैसेंजरों से आगे बढ़ाते हैं। इनमें अधिकतर ऐसे लोग हैं जिन्होंने प्रेस से जुड़े हुए कानून पढ़े नहीं हैं, और जिन्हें पत्रकारिता की लंबी सीख से गुजरने का कोई मौका नहीं मिला है, उसकी अब जरूरत भी नहीं रह गई है। अब सिर्फ एक वेबसाइट, और एक कम्प्यूटर होना काफी रहता है, और वीडियो-कैमरों की कमी को मोबाइल फोन भी पूरा कर देता है। फिर इससे भी एक कदम आगे बढक़र यूट्यूब चैनल चल रहे हैं, जिनमें वेबसाइटों और न्यूजपोर्टलों की तरह किसी संपादक की नजर से कुछ गुजरना जरूरी नहीं होता है, और लोग जो चाहे वह पोस्ट करते हैं, विवाद होने पर उसे हटाकर यह मान लेते हैं कि विवाद खत्म हो गया है, जबकि इन दिनों हटाई गई पोस्ट भी जांच एजेंसियों को पूरी तरह हासिल रहती हैं। इसके अलावा फेसबुक, इंस्टाग्राम, और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भी हैं जहां पर आम लोग भी कई किस्म की आपत्तिजनक, और हिंसक बातें पोस्ट करते हैं। 

ऐसा लगता है कि जब केन्द्र और राज्य सरकारें डिजिटल मीडिया को विज्ञापनों के लिए भी मान्यता दे रही हैं, और उन्हें पत्रकारों में शामिल भी कर रही हैं, पत्रकारों को मिलने वाली सहूलियतों और हिफाजत का फायदा ऐसे डिजिटल स्वघोषित पत्रकारों को भी मिल रहा है। ऐसे में यह सरकार की ही जिम्मेदारी बनती है कि वह देश के कानून की जानकारी तमाम ऐसे स्वघोषित पत्रकारों को देने का कोई इंतजाम करे ताकि देश में बदअमनी न फैले। अखबारों में संपादक नाम की एक संस्था होती थी, जो अपने अनुभव से बाकी लोगों के काम को कुछ या अधिक हद तक जांच ही लेते थे। लेकिन अब एक सैनिक की फौज सरीखे बहुत से डिजिटल समाचार-विचार माध्यम प्रचलन में हैं, और खुद उनके भले के लिए यह जरूरी है कि सरकार उनके प्रशिक्षण का कोई इंतजाम करे। 

उत्तरप्रदेश जैसे राज्य ने अभी सभी तरह के मीडिया को जांचने-परखने का एक सरकारी फैसला लिया है जिसमें यह इंतजाम भी किया गया है कि अगर उनमें कोई गलत जानकारी आती है, तो उन्हें इसकी सूचना दी जाए। इसे कई लोग मीडिया पर नजर रखने की बात कह रहे हैं, लेकिन बहुत से प्रदेशों ने, और केन्द्र सरकार के मीडिया संस्थान पीआईबी ने भी फैक्ट चेक का एक औपचारिक ढांचा खड़ा किया है, और आए दिन बहुत सी खबरों को झूठ का ठप्पा लगाकर सबके सामने रखा भी जाता है। हमारा यह मानना है कि सरकार की ऐसी जांच से किसी जिम्मेदार मीडिया को नहीं डरना चाहिए। और फैक्ट चेकिंग का काम तो सरकारों से परे कई जिम्मेदार वेबसाइटें भी कर रही हैं, और कुछ बड़े मीडिया संस्थान भी अपनी और दूसरों की खबरों का फैक्ट चेक करते ही रहते हैं। 

किसी अदालत तक मामला पहुंचने, और सजा पाने से पहले हर मीडिया संस्थान के पास यह मौका रहता है कि अपनी जानकारी गलत होने की खबर लगने पर वे उसमें सुधार करें, और जरूरत रहे तो माफी मांगें। ऐसा करने के बाद अदालती खतरा घट जाता है। लेकिन हमारा लंबा तजुर्बा यह कहता है कि अधिकांश मीडिया संस्थान अपनी गलती, या अपने गलत काम के उजागर हो जाने के बाद भी माफी न मांगकर अपने अहंकार पर टिके रहते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कि बहुत से नेता अपने अपमानजनक बयानों पर टिके रहते हैं। हमारा अपना नजरिया इस बारे में बड़ा साफ है। अगर हम अपने प्रकाशित किसी समाचार में कोई गलती पाते हैं, या उसके खिलाफ कोई आपत्ति आती है जो कि जायज दिखती है, तो हम तुरंत ही उसका खंडन या स्पष्टीकरण छापते हैं, और गलती रहती है तो माफी भी मांगते हैं। हमारा मानना है कि लोग जब अपनी गलतियां मानने को तैयार रहते हैं, तो यह शर्मिंदगी उन्हें आगे गलती करने से बचाती भी है। अपनी गलतियों पर अड़े रहकर लोग आगे और गलतियों का रास्ता खुला रखते हैं। किसी भी जिम्मेदार पत्रकार या मीडिया संस्थान को ऐसा नहीं करना चाहिए। हिन्दुस्तान में कम से कम एक अखबार, द हिन्दू की मिसाल सबके सामने है कि किस तरह उसने अपने अखबार के बाहर से एक स्वतंत्र व्यक्ति को जिम्मेदारी देकर उसकी खुली सूचना अपने पन्नों पर छापी कि ये व्यक्ति इस अखबार के लिए ओम्बुड्समैन रहेंगे, और पाठक या संबंधित व्यक्ति अखबार के किसी भी हिस्से के बारे में उन्हें शिकायत भेज सकते हैं, और उनका जो भी फैसला रहेगा, उसे अखबार मानेगा। ऐसा हौसला किसी अखबार की इज्जत को बढ़ाता ही है। और अब चूंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सूचना तकनीक, और संचार क्रांति की वजह से समाचार-विचार की सुनामी ही हर दिन रहती है, इसलिए ऐसी पहल और जरूरी है। कहने के लिए तो इस देश में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया जैसा संवैधानिक अधिकार प्राप्त इंतजाम किया गया है, लेकिन उसके अधिकार नहीं के बराबर हैं, इसलिए उसका कोई असर भी मीडिया पर नहीं दिखता। लेकिन अब चूंकि मीडिया नाम के इस कारोबार के आकार में एक विस्फोट सा हुआ है, इसलिए राज्य और केन्द्र सरकारों को इस बारे में नए सिरे से सोचने की जरूरत है। आज जिस तरह अखबारों की प्रसार संख्या, टीवी चैनलों की टीआरपी, और वेबसाइटों की हिट्स के आधार पर सरकारें इश्तहार देती हैं, वह एक बहुत ही गैरजिम्मेदारी का काम है। सिर्फ आंकड़ों से मीडिया के महत्व को तय करना इस देश को बहुत ही गैरजिम्मेदार मीडिया ही दे सकता है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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