संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : किसी समझौते के अंगने में नैतिकता का क्या काम है?
13-Sep-2023 4:09 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  किसी समझौते के अंगने में  नैतिकता का क्या काम है?

राजनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंध इन्हें लेकर कोई भी भविष्यवाणी करना ठीक नहीं रहता। इन दोनों की अजीब खूबियां और खामियां रहती हैं, और हैरतअंगेज हमबिस्तर बनते रहते हैं। अब यह किसने सोचा था कि सोते-उठते जो बाल ठाकरे कांग्रेस को गालियां देते थे, उनकी पार्टी कांग्रेस के साथ गठबंधन में सरकार बनाएगी। सोनिया गांधी के विदेशी मूल के होने के मुद्दे पर कांग्रेस छोडऩे वाले एनसीपी के नेता कांग्रेस के करीबी हो जाएंगे। ऐसे ही अभी जब अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन वियतनाम पहुंचे, और वियतनामी राष्ट्रपति वो वान थुओंग के साथ उन्होंने बड़े रणनीतिक समझौते पर दस्तखत किया तो लोगों को याद आया कि अमरीका के साथ सबसे लंबी जंग तो इसी वियतनाम की हुई थी, इसी वियतनाम को अमरीकी फौजों ने बरसों तक रौंदा था, उस दौरान वियतनाम चीन के करीब था, और आज अमरीका और वियतनाम का यह रणनीतिक समझौता एक किस्म से चीन की फौजी ताकत के मुकाबले खड़े किए जा रहे एक अमरीकी मोर्चे का हिस्सा है। आज की पीढ़ी को यह बात याद नहीं होगी कि किस तरह 1954 से 1975 तक वियतनाम पर अमरीकी हमला हुआ था और अमरीका ने इसे वियतनाम के उत्तर और दक्षिण हिस्सों के बीच जंग की तरह दिखाया था। वियतनामी जमीन पर इन दोनों हिस्सों के पीछे चीन और अमरीका थे। बीस बरस चली इस जंग के बाद वियतनामी समाज में एक ऐसी पूरी पीढ़ी ही खड़ी हो गई थी जो कि वियतनामी लड़कियों से अमरीकी सैनिकों के जबर्दस्ती या मर्जी के रिश्तों से पैदा हुई थी। लोगों को याद होगा कि वियतनाम युद्ध की वह भयानक तस्वीर अमरीकी नापाम बम के हमले से बिना कपड़ों के भागती हुई बच्ची की थी। लेकिन उन तमाम यादों से उबरकर आज अमरीका और वियतनाम के बीच यह ऐतिहासिक समझौता हुआ है। इसी तरह हिन्दुस्तानी राजनीति में कई ऐसे समझौते हो रहे हैं, होते रहते हैं जिन्हें कहने वाले अनैतिक कह सकते हैं, लेकिन वे सत्ता पर आने के लिए, सत्ता पर काबिज रहने के लिए किए जाते हैं, और उनके साथ किसी तरह की नैतिकता जुड़ी नहीं रह गई है। नैतिकता दरअसल भारतीय राजनीति, और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में जंजीरों से बांधकर पीछे के कमरे में कैद कर दी गई है। 

अमरीकी राष्ट्रपति अभी जी-20 सम्मेलन में दिल्ली आए, तो कई दिनों तक यह खबर रही कि वे भारत में मीडिया के सवालों का जवाब देना चाहते थे, लेकिन भारत सरकार ने इससे पूरी तरह असहमति जताई, और ऐसे सवाल-जवाब नहीं हो पाए। इसके तुरंत बाद यह खबर भी आई कि जो बाइडन वियतनाम पहुंचते ही मीडिया से बात करेंगे, जो कि किसी भी पश्चिमी या विकसित लोकतंत्र के लिए एक अनिवार्य बात सरीखी है। मीडिया से लगातार और बार-बार बात करना ही लोकतंत्र के जिंदा होने का पहला संकेत माना जाता है। भारत सरकार की तरफ से अमरीकी सरकार की कही गई बातों का कोई खंडन भी नहीं किया गया कि उसने जो बाइडन को मीडिया से बात करने से नहीं रोका था। ऐसे में यही माना जाना चाहिए कि खबरें सही थीं, और पहला मौका लगते ही हनोई पहुंचते ही उन्होंने मीडिया के सवालों का जवाब दिया जिनमें भारत में मीडिया की आजादी, और दूसरे कई किस्म की स्वतंत्रता के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से इन मुद्दों पर बात की है, जैसी कि वे दुनिया में सभी जगह करते हैं। दूसरी तरफ अमरीका की इस बात के लिए आलोचना हो रही है कि उसने वियतनाम के दौरे के बाद जो बयान जारी किया है उसके 26 सौ शब्दों में कुल 112 शब्द वियतनाम में मानवाधिकारों के बारे में हैं। वियतनाम में मानवाधिकार का बुरा हाल बताया जाता है, और वहां सरकार के आलोचकों को धमकी, प्रताडऩा, और जेल तक का सामना करना पड़ता है। हर किस्म के मीडिया पर सरकार का काबू है, लेकिन जो बाइडन ने इस बारे में कुछ नहीं कहा। जाहिर तौर पर इसलिए कि वियतनाम से समझौते के बाद अमरीका चीन के एक सबसे करीबी रहे देश के साथ भागीदारी कर रहा है, और चीन के एकदम पड़ोस में भी पहुंच गया है। दुनिया के इस हिस्से में यह एक फौजी कामयाबी है, और इसे नैतिकता के किसी भी पैमाने की वजह से नहीं रोका जाता। 

हमने कुछ अरसा पहले यह लिखा भी था कि देशों के विदेश मंत्रालयों में बाहर एक तख्ती लगी रहती है कि नैतिकता बाहर छोडक़र आएं। वही होता भी है। जिस यूक्रेन को बड़ी उम्मीद थी कि जी-20 सम्मेलन में उस पर रूसी हमले के खिलाफ कोई मजबूत बात होगी, उसने अपनी निराशा जाहिर की है, लेकिन उस पर ज्यादा लोगों का ध्यान नहीं जा रहा है। देश, जिनमें चीन से लेकर अमरीका तक शामिल हैं, उनमें से कोई भी अभी यूक्रेन के साथ जी-20 के बयान में नहीं थे। जबकि अमरीका नाटो के हिस्सेदार के रूप में रूस के खिलाफ हमलावर है, और चीन अंतरराष्ट्रीय मंच पर रूस का हिमायती माना जा रहा है। लेकिन जी-20 जैसे कोई भी दूसरे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन देशों के बीच की जमीनी हकीकत किसी भी नैतिकता को दूर रखती है। 

ठीक ऐसे ही भारत जैसे देश की राजनीति को देखें तो पार्टियों और नेताओं को अपनी नैतिकता, नीति और सिद्धांत, गठबंधन की बैठकों में बाहर रखकर आने के लिए कहा जाता है। कल के दुश्मन आज दोस्त हो जाते हैं, और आज के दोस्त कल दुश्मन। इसीलिए कुछ समझदार लोग कहते हैं कि नेताओं के कार्यकर्ताओं को आपसी रिश्ते बर्बाद नहीं करने चाहिए क्योंकि उनके बीच गठबंधन तो कभी भी हो जाते हैं, और कार्यकर्ता कटुता ढोते रह जाते हैं। भारत में आज इंडिया नाम के विपक्षी गठबंधन की सीटों पर तालमेल की पहली बैठक है। यहीं से इस गठबंधन की अग्निपरीक्षा शुरू होने जा रही है, क्योंकि बंदरगाह पर बंधे जहाज तो हर जगह महफूज दिखते हैं, जब समंदर की लहरों और तूफानों से उनका सामना होता है, तभी उनकी मजबूती पता लगती है। ‘इंडिया’ की मजबूती और उसकी संभावनाएं आज की इस बैठक के बाद ही परखना शुरू होगा, और आज से ही इस गठबंधन में दरार पडऩे का एक खतरा भी खड़ा हो सकता है। एक साथ बैठकर लंच और डिनर करना अलग बात होती है, उसमें तो कांग्रेस और केजरीवाल सब भाई-भाई दिखते रहे, आज जब चुनावी सीटों के बीच बंटवारे की बात आएगी, तो हो सकता है कि सुई की नोंक जितनी जमीन देने के बजाय महाभारत शुरू हो जाए। आगे-आगे देखें होता है क्या। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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