संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : महिला आरक्षण, विधेयक सामने आने के पहले लिखी हमारी कुछ बातें...
19-Sep-2023 3:56 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : महिला आरक्षण, विधेयक  सामने आने के पहले  लिखी हमारी कुछ बातें...

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जो लोग बारीकी से देखते आ रहे हैं उन्हें मालूम है कि मोदी का मिजाज एक जादूगर किस्म का है, और वे बार-बार अपने हैट में हाथ डालकर खरगोश निकालकर दिखाते हैं। उनके कई फैसले नोटबंदी दर्जे के आत्मघाती रहे, लेकिन उनके कुछ फैसले ऐतिहासिक महत्व के भी रहे। और ऐसा ही एक फैसला महिला आरक्षण को दुबारा लाने का है। यह फैसला कांग्रेस सरकार के लाए हुए एक विधेयक का किसी तरह का विस्तार होगा जिसे कि यूपीए सरकार खुद पास नहीं कर पाई थी, लेकिन मनमोहन सिंह ने राज्यसभा में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की बिल को बहुमत से पारित करा लिया था। उस वक्त यूपीए का समर्थन करने वाले लालू-मुलायम ने सरकार से समर्थन वापिस लेने की धमकी दी थी, और बिल को लोकसभा में पेश नहीं किया गया था। ये दोनों पार्टियां महिला आरक्षण के भीतर ओबीसी के लिए अलग से कोटे की मांग कर रही थीं, क्योंकि उनका मानना था कि इससे संसद में सिर्फ शहरी महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा। 

अब पुराने इतिहास बहुत ज्यादा चर्चा की जरूरत नहीं है, और यह माना जाना चाहिए कि नये संसद भवन में लोकसभा के हॉल में बढ़ी हुई सीटों के साथ अब महिला आरक्षण कई तरह से होना मुमकिन है, जिनमें मौजूदा सीटों में एक तिहाई पर आरक्षण तो एक जरिया हो सकता है, दूसरा यह भी हो सकता है कि लोकसभा की मौजूदा सीटों में एक तिहाई अतिरिक्त सीटें जोड़ दी जाएं। कल इसे मोदी मंत्रिमंडल ने मंजूरी दे दी है, और आज-कल में संसद के इस चार दिनों के सत्र में इस विधेयक के विवरण सामने आ जाएंगे। यह जाहिर है कि महिला आरक्षण पर काफी हद तक काम कर चुकी कांग्रेस पार्टी इस विधेयक के इतिहास को लेकर अपना योगदान गिनाएगी, और मोदी सरकार भी नई पैकिंग में पुराना माल पेश करने के बजाय कुछ नया तरीका ईजाद कर सकती है कि महिला आरक्षण को सिर्फ मोदी के नाम से याद रखा जाए। 

अब जिस वक्त हम यह बात लिख रहे हैं उस वक्त तक यह विधेयक पेश नहीं हुआ है, इसलिए इसकी अलग-अलग कई किस्म की संभावनाओं पर ही लिखा जा सकता है। हम उन बारीकियों पर जाना नहीं चाहते जो कि इस विधेयक में चौंकाने के अंदाज में आ सकती हैं, लेकिन कुल मिलाकर इससे देश में जो फर्क पड़ेगा, हम अभी इस पल उसी पर लिख रहे हैं। आज किसी समय संसद में यह विधेयक रख दिया जाएगा, और ऐसा अंदाज है कि एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएंगी, 33 फीसदी आरक्षण की पुरानी कोशिश अब कामयाब होगी, चौथाई फीसदी बाद जाकर महिलाओं को उनके हक से काफी कम मिलने की बात किसी किनारे पहुंच पाएगी। महिलाओं की आधी आबादी है, और यह आरक्षण भी एक अहसान की तरह उन्हें एक तिहाई सीटें देने वाला हो सकता है। आज देश में संसद और विधानसभाओं में महिलाएं बहुत कम हैं, और 33 फीसदी आरक्षण से भी यह संख्या दुगुनी हो सकती है। 

अब अगर ‘इंडिया’ गठबंधन में पार्टियों के बीच इसे लेकर मतभेद बढ़ता है, तो उससे गठबंधन की मजबूती पर आंच आ सकती है। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी अपनी सत्तारूढ़ चतुराई से इस गठबंधन पर तरह-तरह के दबाव खड़े कर रहे हैं, पहला दबाव वन-नेशन-वन इलेक्शन को लेकर हुआ, जिसे लेकर ‘इंडिया’ गठबंधन के दलों के बीच मतभेद सामने आए, और एक पखवाड़े के भीतर ही यह दूसरा मामला उन्होंने पेश कर दिया है। यह भी हो सकता है कि संसद में पार्टियों के मौजूदा रूख और उनके सदस्यों की गिनती लगाकर लालू-मुलायम की पार्टियों को यह समझ आ जाए कि उनका विरोध कारगर नहीं होगा, और वे शहादत के अंदाज में इसका विरोध न करें। लेकिन उससे भी फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि अगर संसद में विधेयक पास करने जितना बहुमत मोदी सरकार जुटा लेती है, तो भी वाहवाही तो मोदी सरकार की ही होगी। यूपीए सरकार के पास भी महिला आरक्षण करने के लिए पूरे दस बरस थे, और वह अगर अपने साथी दलों को इसके लिए सहमत नहीं करा पाई थी, तो यह उसकी नाकामयाबी थी। 

खैर, हम अगर आज की हकीकत पर आएं, तो ऐसा लगता है कि पंचायत और म्युनिसिपलों में महिला आरक्षण से अगर कोई सबक इस संसद-विधानसभा महिला आरक्षण को मिलेगा, तो ऐसा लगता है कि महिला आरक्षित सीटें हर पांच या दस बरस में रोटेशन से बदलती रहेंगी। और ऐसा होने पर देश की हर विधानसभा और लोकसभा सीट पर पार्टियों को महिला लीडरशिप तलाशनी होगी, उन्हें तैयार करना पड़ेगा, और अगर वे खुद होकर तैयार हैं, तो उनके मौके बढ़ते रहेंगे। हमारा तो यह भी मानना है कि इस देश में इस कानून को ऐसा गतिशील बनाना चाहिए कि हर पांच बरस में महिला आरक्षण पांच फीसदी बढक़र 50 फीसदी तक पहुंचाया जाए, और वही सामाजिक न्याय होगा। इतना लंबा वक्त मर्द नेताओं को मिलने से वे भी धीरे-धीरे अपनी मर्दानगी के दूसरे तरह के गैरचुनावी इस्तेमाल सोच सकेंगे, और एक पीढ़ी गुजरने तक, अगले 20 बरस में यह सामाजिक न्याय पूरी तरह शक्ल ले सकेगा।

अब इस विधेयक की जानकारियां कुछ घंटों में सामने रहेंगी, और ऐसा लगता है कि इसे खारिज करने का खतरा आमतौर पर कोई भी पार्टी नहीं उठाएगी, क्योंकि उसे अपनी महिला समर्थकों को यह समझाना मुमकिन नहीं होगा कि उसने महिला आरक्षण का विरोध क्यों किया। तथाकथित समाजवादी, कुनबापरस्त हिन्दीभाषी इलाकों की पार्टियों के लिए भी शायद इसे खारिज करना मुश्किल होगा, और महिला आरक्षण के भीतर ओबीसी आरक्षण का उनका तर्क इसलिए निहायत खोखला और फिजूल है कि आज तो संसद और विधानसभाओं में किसी तरह का ओबीसी आरक्षण नहीं है, और जब ओबीसी के मर्द ऐसे आरक्षण के बिना चल सकते हैं, तो महिला आरक्षण बिना ओबीसी आरक्षण के क्यों नहीं हो सकता? 

आज एक दूसरा बड़ा सवाल यह है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव एकदम सामने है, और क्या इन तीन दिनों में संसद में पास हो जाने पर यह विधेयक मौजूदा सीटों पर सीधे-सीधे लागू हो जाएगा, और इसी चुनाव को प्रभावित करेगा, या फिर यह आगे की किसी तारीख पर लागू होगा? अभी जो खबरें आ रही हैं उनसे ऐसा नहीं लगता है, ऐसा लगता है कि यह लोकसभा और विधानसभा की सीटों के डीलिमिटेशन से भी जोड़ा जाएगा, और अगली जनगणना से भी। ऐसा कुछ भी होने पर यह विधेयक अभी सैद्धांतिक रूप से पारित होगा, और इस पर अमल आने वाली तारीखों से बाकी पहलुओं के हिसाब से होगा।

अभी हम विधेयक को देखे बिना यह चर्चा कर रहे हैं, महिला आरक्षण के कई अलग-अलग तरीके मुमकिन हैं, उन पर चर्चा भी चल रही है, लेकिन जादूगर मोदी पिटारे से क्या निकालेंगे, यह अभी इस पल तो हमारे सामने नहीं है। फिर भी देश में महिला लीडरशिप के विकास में इससे जमीन-आसमान का एक फर्क आएगा, जो कि चौथाई सदी पहले से संसद में इंतजार कर रहा था, और भारतीय राजनीति से मर्दों का दबदबा भी इससे कुछ हद तक घटेगा, हालांकि सरपंच पति या पार्षद पति की तरह विधायक पति और सांसद पति का खतरा भी कुछ चुनावों तक रह सकता है, लेकिन यह सोच भी कौन सकते हैं कि हिन्दुस्तानी महिला को उसका कोई भी हक आसानी से मिल जाएगा। यह बिना अधिक जानकारी लिखी गई एक प्रारंभिक बात है, और हम कल इसी जगह शायद इसी मुद्दे के बाकी नए सामने आने वाले पहलुओं पर फिर से लिखेंगे। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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