संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ऐसी कालिख लगी संसद को धोने का कोई इंतजाम सुप्रीम कोर्ट से होना जरूरी
23-Sep-2023 4:07 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ऐसी कालिख लगी संसद को धोने का कोई इंतजाम सुप्रीम कोर्ट से होना जरूरी

भारत की संसद में भाजपा के एक सांसद ने जिस तरह बसपा के मुस्लिम सांसद को मजहब को लेकर गालियां बकीं, उसे आतंकवादी कहा, उसके धर्म को गालियां बकीं, उससे हिन्दुस्तान का सभ्य समाज हक्का-बक्का है, दहशत में है। दहशत में इसलिए भी है कि सदन के मुखिया और भाजपा के सबसे बड़े नेता नरेन्द्र मोदी ने अब तक इस पर मुंह भी नहीं खोला है, मानो उन्हें अपनी सांसद की कही बातों से कोई दिक्कत नहीं है, उन्होंने इतना भी नहीं कहा कि वे उसे कभी दिल से माफ नहीं कर पाएंगे। सदन में भाजपा के उपनेता राजनाथ सिंह ने किंतु-परंतु, और अगर-मगर की भाषा में जिस तरह खेद व्यक्त किया है, उससे यह जाहिर है कि वे भी मजहबी गाली-गलौज करने वाले अपने सांसद के खिलाफ कुछ करने की ताकत नहीं रखते हैं। लेकिन यह तो पार्टी की राजनीतिक बातें हैं, जब बसपा सांसद दानिश अली ने तमाम गालियों का जिक्र करते हुए लोकसभा अध्यक्ष को शिकायत लिखी, तो भाजपा से आए लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने भाजपा सांसद को इतनी चेतावनी भर जारी की कि अगली बार ऐसा कुछ करने पर उन पर कार्रवाई की जाएगी। जाहिर है कि भारतीय संसद अध्यक्ष को जिस तरह के अंधे अधिकार देती है, उसके तहत वे हजार खून माफ कर सकते हैं, और किसी बेकसूर को सूली पर भी चढ़ा सकते हैं, और उनसे कोई सवाल नहीं किया जा सकता। इस मामले में उन्होंने ठीक यही किया है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की जुबान में देश की सबसे हिंसक हेट-स्पीच करने वाले के गुनाह को माफ कर दिया है जो कि सदन के बाहर एक बड़ी सजा का हकदार होता। अब अगर ओम बिड़ला की मिसाल देकर अदालतें इंसाफ करने लगें, तो पहले कत्ल और पहले बलात्कार पर भी चेतावनी देकर छोड़ दिया जाएगा कि अगली बार ऐसा करने पर उसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। 

सवाल यह उठता है कि क्या तानाशाह सरीखे अधिकारों वाले लोकसभा अध्यक्ष के ओहदे पर बैठा व्यक्ति जब इतने बड़े जुर्म पर कोई भी कार्रवाई करने से इंकार कर दे, तो लोकतंत्र में इंसाफ कैसे हो सकता है? हो सकता है कि जिस वक्त संविधान में सदन के भीतर की कार्रवाई के लिए लोकसभा अध्यक्ष को ऐसे अधिकार दिए गए थे, उस वक्त संविधान निर्माताओं ने ऐसा दु:स्वप्न भी नहीं देखा होगा कि किसी दिन सदन के अध्यक्ष का बर्ताव ऐसा हो सकता है, वरना वे लोकसभा या विधानसभा के अध्यक्षों के फैसलों पर अधिक कड़ा अदालती शिकंजा रखते। अब आज हालत यह है कि सुप्रीम कोर्ट के साफ आदेश के बावजूद महाराष्ट्र के विधानसभा अध्यक्ष चार महीने में एकनाथ शिंदे और उनके साथियों की सदस्यता-अपात्रता के मुद्दे पर कोई फैसला नहीं ले रहे हैं, बल्कि कोई कार्रवाई भी नहीं कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट इस बात पर हैरान और परेशान है, लेकिन सदन के अध्यक्ष अपनी पिछली पार्टी के साथ वफादारी निभाते हुए अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी को धता बता रहे हैं। यह नौबत इसलिए भयानक है कि ऐसी ही नौबत से देश की दूसरी संवैधानिक में अदालत दखल का रास्ता खुलता है। हमारा ख्याल है कि जो बात सडक़ पर सुप्रीम कोर्ट की परिभाषा में हेट-स्पीच कहलाती है, वह बात अगर सदन के भीतर अपनी सबसे हिंसक शक्ल के साथ भी माफी पाती है, तो फिर ऐसी संसदीय व्यवस्था किस काम की? ऐसी संसदीय व्यवस्था पर से जनता का विश्वास पूरी तरह खत्म हो जाता है, और लोगों को यह भी समझ पड़ता है कि यह व्यवस्था किसी इज्जत के लायक नहीं है। 

एक अकेले मुस्लिम सांसद के खिलाफ भाजपा के सांसद ने जितनी गंदी, हिंसक, साम्प्रदायिक गालियां बकी हैं, और जिस तरह उसके बगल में बैठे भाजपा के दो-दो भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री पूरे वक्त जोर-जोर से हॅंसे जा रहे थे, वह नौबत भी भयानक थी। इसके खिलाफ भी संसद की विशेषाधिकार समिति में जाने की जरूरत है। कांग्रेस सांसद राहुल गांधी संसदीय जिम्मेदारी निभाने वाले पहले व्यक्ति रहे जो तुरंत ही बसपा सांसद दानिश अली के घर पहुंचे, उनके साथ एकजुटता बताई, और कहा देश में लोकतंत्र चाहने वाले तमाम लोग उनके साथ हैं। यह बात छोटी नहीं थी, खासकर उस वक्त जब कुछ किलोमीटर पर ही विराजमान बसपा की तथाकथित सुप्रीमो मायावती ने भी यह जहमत नहीं उठाई कि वे अपने सांसद का हौसला बंधाने उसके घर जातीं। यह देखना हैरानी की बात है कि किस तरह भाजपा के एक और भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने दानिश अली के खिलाफ सबसे घटिया जुबान में बयान दिए हैं। अगर भाजपा के एक नेता ने परले दर्जे का हिंसक बयान मुस्लिमों के खिलाफ दिया है, तो उस पर इस तरह कूद-कूदकर तालियां बजाकर नकवी यही साबित कर रहे हैं कि भाजपा में उनकी उपयोगिता क्या है, किस तरह वे केवल मुस्लिम-विरोध के लिए वहां पर पाले गए हैं। 

देश में यह सिलसिला बहुत ही तकलीफ का है, और जिस संसद को लेकर प्रधानमंत्री ने अभी संविधान की कॉपी थामकर पुराने से नए भवन तक शोभायात्रा निकाली थी, उसी संसद भवन में, उसकी नई मयूरपंखी इमारत में जिस तरह की कालिख उन्हीं के सांसद ने पोती है, वह इतिहास में अच्छी तरह दर्ज होने वाली बात है। जिस तरह कल भाजपा सांसद ने सदन के पौन सदी के इतिहास में सबसे गंदी गालियां बकी हैं, उस पर भी प्रधानमंत्री का मुंह अब तक न खुलना, उस जुर्म को कई गुना अधिक गंभीर बना देता है। भारतीय लोकतंत्र सदन के मुखिया की हैसियत से मोदी से अधिक जिम्मेदारी की उम्मीद करता है, जिसे दिखाने से उन्होंने साफ-साफ कन्नी काट ली है। जिस तरह उन्होंने 9 बरस पहले संसद भवन की सीढ़ी पर माथा टिकाकर भीतर पहला कदम रखा था, वह माथा टिकना आज कहीं नहीं दिख रहा है। वे सीढिय़ां तो मानो अब खत्म हो गई हैं, और झुका हुआ वह सिर इस नए भवन में इतना तन गया है कि वह अब अपने साथी की इतिहास की सबसे शर्मनाक हरकत पर भी झुकने से मना कर दे रहा है। 

हमें नहीं मालूम कि सांसद और उसके अध्यक्ष की ऐसी बेरहमी और बेइंसाफी के खिलाफ कोई अदालती रास्ता निकल सकता है या नहीं, लेकिन अगर आज के कानूनों में ऐसा कोई रास्ता नहीं भी है, तो भी जिस दिन संसदीय बाहुबल जिम्मेदार-समझदार हाथों में रहे, उस दिन उन्हें ऐसा रास्ता निकालना चाहिए, ताकि संसद की गैरजिम्मेदारी का ऐसा काला दिन इस लोकतंत्र को दुबारा न देखना पड़े। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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