संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : रूसी मीडिया की मिसाल से लेकर देसी एंकरों तक
26-Sep-2023 4:00 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : रूसी मीडिया की मिसाल से लेकर देसी एंकरों तक

यूक्रेन में रूस के फौजी हमले के बाद चल रही जंग में बहुत बड़ी रूसी सेना छोटे से यूक्रेन पर जिस तरह ज्यादती कर रही है, उसे संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी बहुत अच्छी तरह दर्ज किया है। संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट में कल यह कहा गया है कि किस तरह रूस यूक्रेन के दसियों हजार बच्चों को उठाकर ले गया है, और वह अंतरराष्ट्रीय नियमों के मुताबिक जंग की ज्यादती है। बच्चों को उनके मां-बाप से दूर करना, हिफाजत के नाम पर रूस ले जाना, इन सबका संयुक्त राष्ट्र ने जमकर विरोध किया है। यह भी कहा है कि यूक्रेन के जिन इलाकों पर रूस ने कब्जा जमाया है वहां आम नागरिकों पर उसका बड़ा जुल्म चल रहा है, और महिलाओं के साथ रूसी सैनिकों के बलात्कार की बहुत सी घटनाएं हो रही हैं। लोगों को याद होगा कि कुछ महीने पहले भी संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अधिकारी ने ऐसे तथ्य सामने रखे थे कि रूसी महिलाओं ने अपने फौजी पतियों को बिदा करते हुए कहा था कि वे चाहें तो यूक्रेन की महिलाओं से बलात्कार करके लौटें, बस कंडोम का इस्तेमाल करना ना भूलें। संयुक्त राष्ट्र की तरफ से ऐसी बात हाल के बरसों में शायद किसी और फौजी मोर्चे के बारे में नहीं कही गई थी। 

लेकिन आज यहां इस मुद्दे पर लिखने का एक दूसरा मकसद है। संयुक्त राष्ट्र ने यूक्रेन से जंग के इस दौर में रूसी मीडिया का बारीकी से अध्ययन किया है, और यह पाया है कि रूस में सरकार के नियंत्रण और प्रभाव वाले मीडिया ने युद्धोन्माद के इस दौर में जो छापा और दिखाया है, वह यूक्रेन में रूसी फौजों को जनसंहार के लिए उकसाने और भडक़ाने का काम रहा। 

जब माहौल जंग और नफरत का रहता है, जब राष्ट्रवाद सिर चढक़र बोलता है, तो सबसे पहली लाश हमेशा ही सच की गिरती है। फौज के एक दस्ते की तरह ही राष्ट्रवाद में डूबा हुआ मीडिया सरकारी प्रोपेगंडा करने में लग जाता है, और देश के लोगों को यह लगता है कि उनके फौजी जितने किस्म की ज्यादतियां कर रहे हैं, वह सब जायज है, क्योंकि दुश्मन सचमुच ही बहुत बुरा है। रूस में आज सरकारी और सरकार नियंत्रित मीडिया का ठीक यही काम रूसी फौजियों को यूक्रेन के कब्जे वाले इलाकों में तरह-तरह की ज्यादतियों के लिए एक नैतिक साहस भी दे रहा है, और उकसावा भी दे रहा है। वहां पर जिस तरह बेकसूर नागरिकों को मारा जा रहा है, और कल की संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि कम से कम एक बुजुर्ग महिला भी बलात्कार की शिकार हुई है, जो कि 83 बरस उम्र की थी। जब फौज के दिमाग में हिंसा इतने ऊपर चली जाती है, तब युद्ध के अंतरराष्ट्रीय नियम भला किस काम के रह जाते हैं। 

लेकिन कुछ देर के लिए रूस और यूक्रेन के इस मोर्चे से अलग हटकर देखें, तो दुनिया में कई और ऐसे देश मिलेंगे जहां पर किसी पड़ोसी देश के खिलाफ नफरत का एजेंडा मीडिया ढोकर चलता है। कुछ ऐसे देश भी मिलेंगे जहां पर अपनी ही जमीन के, अपने ही नागरिकों को धर्म और जाति के नाम पर छांट-छांटकर मारा जाता है, और मीडिया का एक छोटा या बड़ा हिस्सा उस पर तालियां बजाते हुए, किसी मैच के स्टेडियम के चीयरलीडर्स की तरह नाचते हुए जुल्म को बढ़ावा देता है। हिन्दुस्तान में अभी कुछ दिन पहले 28 विपक्षी पार्टियों ने एकजुट होकर देश के 14 ऐसे टीवी एंकरों के बहिष्कार की घोषणा की जिन पर विपक्ष के खिलाफ अभियान चलाने, देश में नफरत और हिंसा फैलाने की तोहमतें चली ही आ रही थीं। और हमारा खुद का देखा हुआ है कि इनमें से जितने लोगों को हमने कभी-कभी टीवी स्क्रीन पर देखा था, उन पर यह तोहमत बिल्कुल सही समझ आती है। इनमें से कई टीवी एंकर पेट्रोल का कनस्तर और माचिस लेकर बैठते हैं, और अपने पसंदीदा निशानों पर उन्हें छिडक़कर आग लगाने में लगे रहते हैं। इसके लिए उन्हें भाड़े पर पंडित और मौलवी मिल जाते हैं जो कि चैनल के नफरती एजेंडा में लिखे गए किरदारों को निभाने में लग जाते हैं। देश का सुप्रीम कोर्ट टीवी समाचार-चैनल कहे जाने वाले इन आग भडक़ाओ केन्द्रों को लेकर कई बार फिक्र और नाराजगी जाहिर कर चुका है लेकिन उसका कोई असर नहीं होता है। सरकार की खास मेहरबानी ऐसे कई चैनलों और एंकरों पर दिखती है, और वहां जाकर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनके नफरती एजेंडा में मददगार बनने के मुकाबले विपक्ष का यह फैसला बेहतर है कि वह इन एंकरों का बहिष्कार करे। इसके बाद जरूरत हो तो इन चैनलों का भी बहिष्कार करना चाहिए। दूसरी तरफ रूस की मिसाल को हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र को याद रखना चाहिए कि वहां पर किस तरह रूसी फौजियों को यूक्रेनियों के जनसंहार के लिए भडक़ाने में रूसी मीडिया लगा हुआ है, उस मिसाल से क्या सबक लिया जा सकता है। 

लोकतंत्र में अखबारों का काम सरकार की कठपुतली बने रहने से परे का था। मीडिया एक वक्त अपने आपको लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहता था, जिसका मतलब यह था कि वह सरकार, संसद, और न्यायपालिका इन तीनों से परे का एक स्वतंत्र स्तंभ है। अब अखबारों के अधिकतर हिस्सों को देखें, और अधिकतर टीवी समाचार-चैनलों को देखें तो यह साफ दिखाई पड़ता है कि यह स्तंभ एक कालीन बनकर सत्ता के पैरोंतले से तलुओं को सहलाने का काम करता है। जाहिर है कि ऐसे में सत्ता जिस देश या जिस समुदाय, धर्म या जाति को कुचलना चाहेगी, मीडिया चारण और भाट की तरह सरकार के उस फैसले को राष्ट्रवाद करार देते हुए चीयरलीडर्स की तरह डांस करेगा। रूस की यह मिसाल दुनिया के बाकी लोकतंत्रों को एक सबक और समझ दे सकती है कि जहां कहीं मीडिया सरकार का गुलाम रहता है, वह सरकार की चापलूसी करते हुए, उसे भडक़ाने की हद तक चले जाता है, और उसके जुल्म पर भी वीर रस की कविताएं गाने लगता है। 

हिन्दुस्तान में किस धर्म, किन जातियों, किन प्रदेशों के लोगों के साथ जुल्म पर देश के मीडिया का ऐसा रूख जाना-पहचाना सा लगता है, उस बारे में सोचकर देखना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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