संपादकीय

दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : रेप-कत्ल के फैसले में लगे 40 बरस, और अब सुनवाई तेज करने सुप्रीम दखल हुई!
29-Sep-2023 4:33 PM
दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : रेप-कत्ल के फैसले में लगे 40 बरस, और अब सुनवाई तेज करने सुप्रीम दखल हुई!

सुप्रीम कोर्ट ने कलकत्ता हाईकोर्ट को एक सजायाफ्ता बुजुर्ग वकील के मामले को दूसरे मामलों से अलग तेज रफ्तार से निपटाने का निर्देश दिया है। अदालत ने कहा है कि वह आमतौर पर दूसरी संवैधानिक अदालतों को किसी केस की तारीखें तय करने को नहीं कहता है, लेकिन यह मामला बहुत अलग है। इसमें सजायाफ्ता वकील जिसने हाईकोर्ट में निचली अदालत के फैसले के खिलाफ अपील की है, उस पर अपनी भांजी से बलात्कार और हत्या का जुर्म लगा था, और उसमें उसे सजा हुई है। सजा के खिलाफ उसने हाईकोर्ट में अपील की है, लेकिन वहां से उसे मामले के निपटारे तक जमानत से मना कर दिया गया था। इसी के खिलाफ यह वकील सुप्रीम कोर्ट गया था, और सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि 1983 के इस मामले में फैसला 2023 में हुआ है, और 40 बरस तक मुकदमा चलने के असाधारण तथ्य को देखते हुए अदालत यह निर्देश दे रही है कि हाईकोर्ट इसकी आऊट ऑफ टर्न सुनवाई करे, और कड़ी शर्तें लगाकर इस वकील को जमानत दे। सुप्रीम कोर्ट 40 बरस लंबी चली सुनवाई की वजह से इसमें दखल दे रहा है, और उसने अपील करने वाले सजायाफ्ता वकील को कहा है कि वह अब हाईकोर्ट में तेज रफ्तार सुनवाई में सहयोग करे, और किसी तरह की बहानेबाजी से इसकी रफ्तार कम न करे। 

अब भांजी से बलात्कार और उसके कत्ल के सीधे सपाट मामले में निचली अदालत को ही सजा सुनाने में 40 बरस कैसे लगे, यह हैरान करने वाली बात है। यह भी सोचने की बात है कि क्या आरोपी के वकील रहने से ऐसी अदालती तिकड़मे चलती रहीं जिनकी वजह से फैसला नहीं हो पाया, और आरोपी जमानत पर बाहर रहा। अधिकतर ऐसे मामलों में जिनमें मुजरिम को सजा का पुख्ता अंदाज रहता है, उनमें वे कम से कम इतनी कोशिश तो करते ही हैं कि सजा का फैसला होने में अधिक से अधिक देर लगे। इसके बाद वे ऊपरी अदालतों में इस फैसले के खिलाफ और वक्त लगाते हैं। हो सकता है कि इस वकील के मामले में भी ऐसा ही हो रहा हो, लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट को यह केस तेजी से निपटाने के लिए कहा है, तो उम्मीद की जा सकती है कि जुर्म और गुनहगार का फैसला तेजी से हो पाएगा। 

हिन्दुस्तानी अदालतों की रफ्तार के बारे में भी अगर सुप्रीम कोर्ट अपने इस आदेश में कुछ कहता तो बेहतर लगता। इस मामले में तो जुर्म की शिकार लडक़ी बलात्कार के बाद मार दी गई थी, इसलिए फैसले से अब उसका तो कोई भला नहीं होना है, लेकिन अगर उसकी जगह किसी जिंदा गरीब की बात होती, तो फैसले से उसे कोई भी राहत मिलने की बात तो 40 बरस खिसक ही गई रहती। ऐसे में हमें इसी जगह पर अपनी कई बार की लिखी गई एक बात याद आती है कि किसी भी तरह के जुर्म में अगर मुजरिम संपन्न हैं, तो बलात्कार की शिकार, या किसी और जुर्म के शिकार परिवार को मुजरिम की दौलत का एक हिस्सा मिलना चाहिए। यह हिस्सा बलात्कार के मामलों में उस मुजरिम की बीवी या उसके बच्चों के कानूनी हक के बराबर का हो सकता है। भारतीय कानून में ऐसे एक फेरबदल की जरूरत है कि संपन्नता या किसी तरह की सत्ता की ताकत से लैस मुजरिम अगर किसी कमजोर को शिकार बनाते हैं, तो ऐसे कमजोर को मुजरिम की क्षमता के अनुपात में भरपाई मिलनी चाहिए। जिस दिन बलात्कारी की जायदाद का आधा हिस्सा बलात्कार की शिकार को मिल जाएगा, बलात्कारी को कैद के बाद अपने परिवार में भी असली सजा मिलेगी। 

भारतीय समाज में ताकतवर और कमजोर के बीच जुर्म की गुंजाइश बहुत बड़ी रहती है। दलित और आदिवासी तबकों को अपने तबके के बाहर के लोगों के जुल्म से बचाने के लिए अलग कानून बनाया गया है, लेकिन जाति व्यवस्था की ताकत से परे ओहदे या संपन्नता की ताकत के लिए भी अलग कानून रहना चाहिए। आज कोई बड़ा अफसर अपनी मातहत से बलात्कार करे, तो उस पर सजा तय हो जाने पर उस अफसर की बकाया तनख्वाह, सरकार में जमा बाकी रकम, और उसकी दौलत से पत्नी के बराबर का हिस्सा बलात्कार की शिकार को मिलना चाहिए। अदालत का आज के कानूनों के तहत न्याय, सामाजिक न्याय नहीं है। सामाजिक न्याय के लिए जाति व्यवस्था, संपन्नता या ताकत का फर्क, शारीरिक ताकत का फर्क, इन सबका ध्यान रखना जरूरी है। 

एक बार फिर से कलकत्ता हाईकोर्ट के इस मामले पर लौटें, तो कानून के शोधकर्ता असाधारण देर होने वाले ऐसे मामलों का अध्ययन कर सकते हैं कि किस तरह की तिकड़म लगाकर सजा से 40 बरस बचा गया था। इस मामले में यह जाहिर है कि बलात्कारी-हत्यारे को सजा मिलने की ही आशंका थी, और इसलिए सुनवाई में जितनी देर हुई होगी, उसमें शायद उसी का बड़ा योगदान रहा होगा। जो भी हो, सुप्रीम कोर्ट को कुछ किस्म के मामलों के लिए देश के अलग-अलग विधि विश्वविद्यालयों से बात करनी चाहिए कि असाधारण किस्म के मामलों पर वहां के प्राध्यापक और छात्र शोध करके सुप्रीम कोर्ट के सामने अपने निष्कर्ष रखें, ताकि बाकी मामलों को उस किस्म की साजिश से बचाया जा सके। आज देश में जाने कितने ही विधि विश्वविद्यालय हैं, और दुनिया भर में मशहूर आईआईएम हैं, टेक्नालॉजी के मामले में आईआईटी हैं, लेकिन इनका फायदा अमरीका की बड़ी-बड़ी कंपनियों को मिलते दिखता है, खुद भारत की सरकारी व्यवस्था या न्याय व्यवस्था को इनका फायदा नहीं दिखता। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि देश के अदालती कामकाज में सुधार के लिए इन संस्थानों के विशेषज्ञों को मिलाकर एक ऐसी टीम बनाए जो कि निचली अदालतों के कामकाज को देख-समझकर उनमें सुधार के तरीके बताए। जहां इंसाफ में इस तरह की अंधाधुंध देर लगती है, वहां पर अदालत को कुछ कल्पनाशील और असाधारण तरीकों का इस्तेमाल करना चाहिए। देश के तीन किस्म के प्रमुख संस्थानों को इसमें झोंकना चाहिए, और इससे देश के दसियों करोड़ लोगों की जिंदगी आसान हो सकेगी। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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