संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का विशेष संपादकीय : छत्तीसगढ़ से निकला देश में लोकतंत्र के सबसे बड़े ऐतिहासिक त्याग का फैसला
04-Dec-2023 1:00 PM
‘छत्तीसगढ़’ का विशेष संपादकीय : छत्तीसगढ़ से निकला देश  में लोकतंत्र के सबसे बड़े ऐतिहासिक त्याग का फैसला

-सुनील कुमार

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में से चार के नतीजे कल आ गए, और उनमें से तेलंगाना का नतीजा तो उम्मीद के मुताबिक कांग्रेस के पक्ष में था, लेकिन राजस्थान के साथ-साथ मध्यप्रदेश, और मध्यप्रदेश के साथ-साथ छत्तीसगढ़ जिस तरह से भाजपा की जेब में गए हैं, वह तकरीबन तमाम लोगों को हैरान करने वाले हैं। इन पांचों राज्यों में से मिजोरम की मतगणना कल नहीं हुई थी, और वहां के क्षेत्रीय पार्टियों के गणित भी कुछ अलग हैं। लेकिन कल के चार राज्यों के नतीजों के बारे में सोचना जरूरी है कि ऐसा जनादेश क्यों आया है, उसका क्या मतलब है। अब इन चारों के बीच भी अगर फर्क किया जाए तो तेलंगाना इस मायने में अलग है कि वहां कांग्रेस और भाजपा आमने-सामने नहीं थे, और कांग्रेस का मुकाबला वहां सत्तारूढ़ क्षेत्रीय पार्टी बीआरएस से था। वहां यह माहौल भी बना हुआ था कि कांग्रेस की इकतरफा जीत होगी। लेकिन बाकी तीन हिन्दी राज्यों को एक साथ रखकर देखें तो यह याद रखने की जरूरत है कि 2018 के चुनाव में ये तीनों हिन्दीभाषी, अगल-बगल के राज्य कांग्रेस ने भाजपा से छीने थे, और उसे उस वक्त भाजपा को एक बड़ा सदमा गिना गया था। आज पांच बरस के भीतर इन तीनों में अलग-अलग वजहों से भाजपा जीतकर आई है। राजस्थान के बारे में तो यह कहा जा सकता है कि वहां हर पांच बरस में सत्ता पलट देने की परंपरा रही है, और वोटरों ने उसी इतिहास को दुहराया है, लेकिन मध्यप्रदेश को तो अधिकतर लोग कांग्रेस की जीत का बता रहे थे, वहां हाल यह है कि भाजपा को 163, और कांग्रेस को 66 सीटें मिली हैं, यानी कांग्रेस से ढाई गुना। वहां तो कमलनाथ ने कांग्रेस का मंत्रिमंडल कागज पर बना डाला था, और आज वह मौजूदा सीटों में भी 48 सीटें खोकर बैठी है। लेकिन इन तीनों राज्यों की चर्चा के बाद जब हम छत्तीसगढ़ पर आते हैं, तो लगता है कि चुनावी ओपिनियन पोल, एक्जिट पोल, और विश्लेषकों की अटकलें, उनकी अपनी-अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए ठीक हैं, उनका जमीनी हकीकत से अधिक लेना-देना नहीं दिखता है। या तो ये तमाम चीजें किसी दौलतमंद पार्टी के भोंपुओं की तरह काम करती हैं, और उसके एजेंडा को आगे बढ़ाती हैं, या फिर इन सबका काम खाली बैठे लोगों का मनोरंजन करने जितना रहता है। जो भी हो, छत्तीसगढ़ के बारे में पिछले कुछ महीनों के हर ओपिनियन पोल, और तकरीबन हर एक्जिट पोल, पूरी तरह गलत साबित हुए हैं, और विश्लेषकों के अंदाज भी नतीजों के आसपास भी कहीं पहुंचे हुए नहीं थे। 

छत्तीसगढ़ में चुनावी नतीजों के साथ इस पृष्ठभूमि को भी समझने की जरूरत है कि यह राज्य बनने के बाद की पांच बरस की पहली कांग्रेस सरकार का लड़ा हुआ चुनाव था। शुरू की जोगी सरकार निर्वाचित नहीं थी, कुल तीन बरस की थी, और वह राज्य के ढांचे को खड़ा करने के एक मुश्किल दौर से गुजरी हुई थी। लेकिन 2018 में आई भूपेश बघेल सरकार को न सिर्फ राज्य का एक ढांचा बना हुआ मिला था, बल्कि प्रदेश के करीब डेढ़ दर्जन सालाना बजट का सरकारी तजुर्बा भी विरासत में मिला था। उसके पास चीजों की तुलना करने के लिए बहुत सी मिसालें थीं, और चार विधानसभा चुनावों का एक तजुर्बा भी था कि घोषणाओं और उन पर अमल का क्या होते आया है। 2018 में मुख्यमंत्री बने भूपेश बघेल को अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के मंत्रिमंडल में काम करने का तजुर्बा भी हासिल था, और उनसे बिल्कुल अलग अंदाज में काम करने वाले अजीत जोगी के साथ भी उन्होंने काम किया था। फिर रमन सिंह के 15 बरस के कार्यकाल में विपक्ष में भूपेश बघेल ने लगातार यह भी बताया था कि कौन-कौन से काम नहीं होने चाहिए, और किस-किस तरह काम नहीं किया जाना चाहिए। 

इस पृष्ठभूमि में जब पिछले पांच बरस की भूपेश बघेल सरकार को देखें, तो एक आम जनधारणा 2023 के विधानसभा चुनावों को लेकर बनी हुई थी कि सरकार ने आम जनता को 2018 के घोषणापत्र के मुताबिक जो-जो दिया है, और अभी इस चुनाव में और जो-जो देने के वायदे किए हैं, उनके मुताबिक कांग्रेस पार्टी वोटरों के लिए सबसे अधिक फायदेमंद पार्टी दिखती है। हम भी जब हिसाब लगाते थे, तो लगता था कि कांग्रेस के वायदे कई तबकों को इतने बड़े निजी फायदे पहुंचाने वाले थे, कि भाजपा के चुनावी वायदे उनके मुकाबले कहीं बैठते नहीं थे। लेकिन घोषणापत्रों की यह लड़ाई मतदान में काम आई नहीं दिखती है। प्रदेश के वोटरों के एक बहुत बड़े बहुमत ने जो ऐतिहासिक फैसला दिया है, उसे बहुत साफ-साफ समझने की जरूरत है, लेकिन यह बात कहना आसान है, समझना बड़ा मुश्किल है। कल आए नतीजों में भाजपा को राज्य बनने के बाद से अब तक रिकॉर्ड सीटें मिली हैं, और दूसरी तरफ कांग्रेस की इतनी कम सीटें पिछले किसी चुनाव में नहीं थीं। यह फर्क उस समय सामने आया जब चारों तरफ यह हवा थी कि इन चार-पांच प्रदेशों में अगर किसी एक में कांग्रेस की संभावनाएं सबसे अधिक मजबूत हैं, तो वह छत्तीसगढ़ में हैं। लेकिन यहां जिस अंदाज में सत्ता की शिकस्त हुई है, वह कांग्रेस के लिए एक लंबे आत्ममंथन का सामान है, और ओपिनियन पोल, एक्जिट पोल करने वालों से लेकर राजनीतिक विश्लेषकों के लिए भी। भूपेश कैबिनेट के डिप्टी सीएम टीएस सिंहदेव सहित 8 सबसे ताकतवर मंत्री चुनाव हार गए हैं, और जो 3 मंत्री चुनाव जीते हैं, वे ऐसे हैं जो कि सत्ता की ताकत के घमंड की नुमाइश करने वाले नहीं थे। जो सरकार में दीन-हीन किस्म के मंत्री थे, वही तीन जीत पाए हैं। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल बड़ी मामूली लीड से जीते हैं, और उनसे परे अकेले बड़े नेता डॉ.चरणदास महंत जीत पाए हैं, जो कि सत्ता के घमंड से परे रहे, जिन्हें सत्ता की ताकत हासिल नहीं रही, और जिन्हें अपने खुद के इलाकों में सत्ता की उपेक्षा का शिकार होना पड़ा। कुल मिलाकर नतीजा यह दिखता है कि जिसके पास सत्ता की ताकत जितनी अधिक थी, उन्हें जनता ने उतना ही अधिक निपटाया, मुख्यमंत्री शायद इसका अपवाद इसलिए रहे कि उनकी सीट के मतदाता विधायक नहीं मुख्यमंत्री चुनने के लिए वोट दे रहे थे। 

भाजपा का चुनाव अभियान ऐसा लगता था कि बहुत देर से शुरू हुआ, और बहुत अनमने तरीके से चला। इन पांच बरसों में प्रदेश के भाजपा नेता उपेक्षित भी पड़े रहे क्योंकि उन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव में 15 बरसों की सत्ता के बाद पार्टी को कुल 15 सीटों पर लाकर टिका दिया था। उन्हें दी गई उपेक्षा की सजा जायज थी या नाजायज, इस पर चर्चा का यह वक्त नहीं है क्योंकि भाजपा की केन्द्रीय लीडरशिप न सिर्फ छत्तीसगढ़ बल्कि इन तीनों राज्यों में अंधाधुंध कामयाब साबित हुई है, और सफलता के साथ कोई भी बहस नाजायज होती है। आज देश भर में इन तीन राज्यों में कामयाबी का सेहरा मोदी और शाह के माथे बांधा जा रहा है।

कांग्रेस के लिए यह बात बड़ी राहत की थी कि छत्तीसगढ़ में भाजपा का अभियान दबा-सहमा सा चल रहा था, और भूपेश सरकार के खिलाफ जो सबसे बड़े मुद्दे हो सकते थे, उनको भाजपा ने छुआ भी नहीं था। यह चुनाव प्रचार असल सुबूतों के साथ बड़ा खूंखार भी हो सकता था, लेकिन भाजपा ने जाने क्यों उससे परहेज किया था, और इस बात ने भी सत्तारूढ़ कांग्रेस के आत्मविश्वास और उसकी उम्मीदों को आसमान पर बनाए रखा था। कांग्रेस की उम्मीदें एक ऐसे आसमान पर चढ़ी हुई थीं जहां तक कि सीढ़ी उसने खुद ने अपनी गढ़ी हुई एक जनधारणा की शक्ल में बनाई हुई थी। अंधाधुंध आक्रामक प्रचार, और मीडिया मैनेजमेंट के चलते, देश में शायद ही किसी को यह सूझ रहा था कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस हार भी सकती है। खुद भाजपा के नेताओं को छत्तीसगढ़ में ऐसी किसी कामयाबी की उम्मीद नहीं थी, और वे भी आपसी बातचीत में महज आधी सीटों तक पहुंचने की उम्मीद ही जताते थे। यह चुनाव लोगों को हक्का-बक्का करने वाला साबित हुआ। कुछ लोगों का यह जरूर कहना है कि भाजपा ने अपनी महतारी वंदन योजना के तहत बड़ी रफ्तार से महिलाओं से फॉर्म भरवाए थे, और उसे उसका फायदा हुआ था।

अब अगर मतदाता की सोच को देखें तो यह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास की सबसे अधिक हक्का-बक्का करने वाली बात दिखती है। एक तरफ तो गरीब जनता वाले छत्तीसगढ़ के मतदाताओं को भूपेश बघेल की तरफ से आसमान छूते फायदों के वायदे किए गए थे, जिन पर राज्य के खजाने का दसियों हजार करोड़ सालाना खर्च होता, और जनता की जेब में जाता। दूसरी तरफ भाजपा के तमाम वायदे देखने पर भी जनता को उनसे कुछ खास नगद-नफा होते नहीं दिख रहा है। इसके बाद भी पूरे प्रदेश की जनता ने मानो एक राय होकर, एकजुट होकर कांग्रेस के खिलाफ वोट डाला। यह बात हैरान करती है कि गरीब जनता कर्जमाफी के फायदों को ठुकराकर, मुफ्त की बिजली को ठुकराकर, परिवार की महिलाओं के काफी अधिक फायदों को ठुकराकर भी भूपेश बघेल की कांग्रेस को ठुकरा सकती है। देश में जिन लोगों को यह लगता है कि टैक्स देने वाले लोगों के पैसों से गरीबों को रेवड़ी बांटी जाती है, उन्हें यह देखना चाहिए कि भाजपा से अपेक्षाकृत तकरीबन कुछ भी नगद न मिलने की उम्मीद के बाद भी वोटरों ने नगद-फायदे को खारिज करने की कीमत पर भी कांग्रेस को खारिज कर दिया। हमको हिन्दुस्तान के लोकतांत्रिक इतिहास में जनता का इतने बड़े त्याग का कोई दूसरा फैसला याद नहीं पड़ता है। जो जनता मुफ्तखोरी की तोहमत से बदनाम की जाती है, उस जनता ने इस बार छत्तीसगढ़ में जो फैसला दिया है, उससे वोट खरीदने वाले नेताओं और पार्टियों का दिल सहम जाएगा। छत्तीसगढ़ का यह चुनाव भारतीय जनता पार्टी की जीत का जश्न तो साबित हुआ ही है, लेकिन हमारा मानना है कि यह इस प्रदेश की गरीब जनता के त्याग का और अधिक बड़ा जश्न है जिसने अपने आपको हर लालच से ऊपर साबित किया है। 

कहने के लिए धार्मिक धु्रुवीकरण, जातिगत समीकरण जैसे कई और मुद्दों को गिनाया जा सकता है जिनसे कि ये चुनाव प्रभावित हुए होंगे। हम ऐसे कई अलग-अलग छोटे-छोटे प्रभावों से इंकार नहीं करते हैं, लेकिन इस बात को साफ-साफ समझने की जरूरत है कि ऐसे किसी भी असर से सत्तारूढ़ पार्टी, और खासकर उसके हर अहंकारी और ताकतवर चेहरे इस हद तक खारिज नहीं हो सकते थे। घमंड को खारिज करने, भ्रष्टाचार और जुर्म को खारिज करने का जनता का फैसला किसी भी पार्टी की चुनावी कोशिशों से अधिक ताकतवर साबित हुआ है। आज इस जगह पर इससे अधिक विश्लेषण मुमकिन नहीं है, लेकिन हम इस बात को जोर देकर कहना चाहते हैं कि किसी पार्टी को इसे महज अपनी जीत नहीं मानना चाहिए, और हारने वाली पार्टी को इसे महज जीतने वाली पार्टी की तिकड़म नहीं मानना चाहिए। यह फैसला एक अजीब किस्म की लोकतांत्रिक जनचेतना का संकेत देता है, जिस पर भरोसा करना कुछ मुश्किल भी हो रहा है, लेकिन जनादेश के इस पहलू पर गौर किए बिना राजनीतिक दल सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाएंगे। अगर इन चुनावों को भविष्य के लिए किसी सबक की तरह लेना है, तो इन्हें अपने नेता, अपनी पार्टी, अपने घोषणापत्र से परे, जनता की सोच को, उसके त्याग को सबसे ऊपर रखकर देखना होगा। छत्तीसगढ़ का यह चुनाव जनता का निजी नफे के ऊपर अपनी लोकतांत्रिक पसंद और नापसंद का चुनाव रहा है। 

आज इसके साथ ही बाकी प्रदेशों का विश्लेषण मुमकिन नहीं है, उनके बारे में आगे फिर कभी। 

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