संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : फालतू के कोर्स के बजाय लीडरशिप विकास के लिए पाठ्यक्रम क्यों नहीं हों?
05-Dec-2023 4:43 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : फालतू के कोर्स के बजाय लीडरशिप विकास के लिए पाठ्यक्रम क्यों नहीं हों?

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद अब सार्वजनिक रूप से अलग-अलग पार्टियां अपनी जीत की वाहवाही, या हार की बहानेबाजी के दौर से गुजर रही हैं। यह बात सही है कि लोकतंत्र में जनधारणा बनाने के लिए कई किस्म के झूठ बोले जाते हैं, लेकिन चुनावी नतीजों के बाद का यह मौका ऐसा रहता है कि नेताओं और पार्टियों को एक ईमानदार आत्ममंथन करना चाहिए। अगर इस मौके पर भी अपनी जीत के पीछे विरोधियों या विपक्षियों की खामियों, और उनके गलत कामों के योगदान को न गिना जाए, तो फिर अपनी खूबियों और सही कामों के योगदान को जरूरत से अधिक आंक लिया जाएगा। इसलिए जटिल चुनावी नतीजों को इस किस्म से भी देखना चाहिए कि लोगों ने आपको और आपकी पार्टी को कितना जिताया है, और कितना आपके प्रतिद्वंद्वी और उसकी पार्टी को हराया है। इस तरह अलग-अलग करके देखना आसान नहीं रहता है, लेकिन जिंदगी और दुनिया के और किसी भी ईमानदार काम की तरह यह काम भी मुश्किल रहता है, लेकिन नामुमकिन नहीं रहता है। 

आज जब कहीं पर सरकार गिरी है, कहीं पर नई सरकार बनने जा रही है, और अलग-अलग विधानसभा क्षेत्रों में पुराने दिग्गज निपट गए हैं, नए चेहरे सामने आए हैं, तो जिन लोगों को राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में बने रहना है, जिन पार्टियों को अपनी दुकान का शटर पूरी तरह बंद नहीं करना है, उन सबको बंद कमरे में कम से कम अपने भरोसेमंद सहयोगियों के साथ बैठकर यह सोचना चाहिए कि उनकी जीत या हार के पीछे वजहें क्या रहीं? जीत जाने पर भी यह तो सोचने का मौका सबके सामने रहता है कि यह जीत किस कीमत पर मिली है, उसमें से कितने के दाम अनैतिक सिक्कों की शक्ल में दिए गए हैं, कौन-कौन से और गैरकानूनी काम किए गए हैं, और इनमें से किसका जीत में कितना योगदान रहा है। इसी तरह हारने वाले को भी यह सोचना चाहिए कि उनकी तपस्या में क्या कमी रह गई है। 

अब इस मुद्दे को यहीं छोडक़र हम पांच बरस बाद के चुनाव की तरफ आते हैं कि इस बार के चुनाव से सबक लेकर कौन से नेता, और कौन सी पार्टियां अगले किसी चुनाव के लिए क्या तैयारियां कर सकते हैं? कुछ राज्यों में छह महीने के भीतर लोकसभा के आम चुनाव होने हैं, कई राज्यों में उसके कुछ महीनों के भीतर पंचायत और म्युनिसिपल के चुनाव होंगे, और राष्ट्रीय पार्टियों के सामने तो भारत में यह एक स्थाई चुनौती बनी रहती है कि उन्हें तकरीबन हर बरस कुछ राज्यों में चुनाव लडऩा पड़ता है। इसलिए हम राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टियों के बारे में यह भी सोचते हैं कि उन्हें अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के हुनर में कुछ जोडऩे के लिए गंभीर योजना बनानी चाहिए। इसके अलावा पार्टी के संगठन को भी एक पेशेवर अंदाज में एक राजनीतिक मशीन की तरह विकसित भी करना चाहिए ताकि चुनाव के वक्त हड़बड़ी में भाड़े की एजेंसियों के भरोसे न रहना पड़े। आज तो हालत यह है कि देश-प्रदेश में जगह-जगह बड़े नेता और उनके सहयोगी अपने और पराए नामों से तरह-तरह की कंपनियां चलाते हैं, वही चुनाव का सारा काम करते हैं, और एक जेब से पार्टी का पैसा निकालकर अपनी दूसरी जेब में डालते रहते हैं। यह काम इतने बड़े पैमाने पर चल रहा है कि नेताओं और संगठन के पदाधिकारियों ने अब मेहनत करना भी कम कर दिया है, और वे वोट डालने के अलावा बाकी तमाम कामों के लिए एजेंसियों की तरफ देखते हैं। राजनीतिक दलों के खर्च का इंतजाम और प्रबंधन करने वाले लोग इस धंधे में लाल होते रहते हैं, और कार्यकर्ताओं की जरूरत कम मान ली गई है। 

हमारा मानना है कि कम से कम बड़े राजनीतिक दलों को अपनी सत्ता के प्रदेशों में लीडरशिप के कॉलेज शुरू करने चाहिए। किसी जिम्मेदार और लोक कल्याणकारी सरकार को भी यह काम करना चाहिए क्योंकि यह लोकतंत्र की परिपक्वता और उसके विकास से जुड़ा हुआ काम है। लोकतंत्र में राजनीतिक दल एक हकीकत हैं, और हर कुछ बरस में चुनाव एक नियति है। इसलिए पार्टियों को किस तरह चलना चाहिए, नेताओं को किस तैयार होना चाहिए, सत्ता और विपक्ष की अलग-अलग भूमिकाएं क्या हो सकती हैं, किस तरह विपक्ष अपने आपको एक छाया-सरकार (शैडो गवर्नमेंट) की तरह चला सकता है, और न सिर्फ सरकार की कमजोरियों पर निगाह रख सकता है, बल्कि विरोधी उम्मीदवारों पर भी निगाह रख सकता है। ऐस कॉलेज पंचायत से लेकर संसद के चुनाव तक, और गांव-कस्बे के राजनीतिक संगठन से लेकर राष्ट्रीय संगठन तक की ट्रेनिंग दे सकते हैं, देश के संविधान, इतिहास, वर्तमान, और भविष्य की ट्रेनिंग दे सकते हैं। अगर कोई जिम्मेदार पार्टी रहे, तो वह न सिर्फ चुनाव के वक्त बल्कि तमाम किस्म के दौर में अपने लोगों को बेहतर तरीके से तैयार करने का ऐसा काम कर सकती है। 

वैसे तो जिस तरह आज समाजसेवा और जनसंगठनों के कामकाज की ट्रेनिंग के लिए, तरह-तरह के डिग्री कोर्स चल रहे हैं, उसी तरह से देश की राजनीति और सामाजिक लीडरशिप के कोर्स भी चल सकते हैं जो कि भारतीय लोकतंत्र में राजनीति और चुनाव को बेहतर बना सकते हैं, पार्टियों के ढांचों को अधिक उत्पादक बना सकते हैं, और राजनीति को नारेबाजी की जगह से ऊपर उठाकर एक गंभीर लोकतांत्रिक मंच पर ले जा सकते हैं। हमने पहले भी कुछ सरकारों को इस तरह की सलाह दी थी कि उन्हें सरकारी स्तर पर लीडरशिप-विकास के लिए ऐसा कोई विश्वविद्यालय शुरू करना चाहिए जिसमें अलग-अलग विचारधाराओं के लोगों की जगह रहे, और पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों, और नेताओं को यहां अलग-अलग कोर्स में भेज सकें। लोकतंत्र, राजनीतिक दल, चुनाव, और विपक्ष, ये तमाम चीजें हमेशा रहने वाली हैं, और यह कोशिश की जानी चाहिए कि वे बेहतर हो सकें। इनमें देश के करोड़ों लोग लगे हुए हैं, और उनका हुनर अगर बेहतर किया जा सके, तो यह भारतीय लोकतंत्र का विकास ही होगा। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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