संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बेकाबू परिवार वाली कांग्रेस गठबंधन-मुखिया कैसे बने?
06-Dec-2023 4:00 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :   बेकाबू परिवार वाली कांग्रेस गठबंधन-मुखिया कैसे बने?

कार्टूनिस्ट कीर्तिश भट्ट

हिन्दुस्तान में मोदी या एनडीए के खिलाफ बने इंडिया नाम के गठबंधन में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद दरारें दिख रही हैं। गठबंधन की होने वाली बैठक को भी शायद आगे बढ़ा दिया गया है क्योंकि कांग्रेस की अगुवाई में इस गठबंधन ने अलग-अलग राज्यों में सहयोगी दलों के साथ बुरा सुलूक किया है। और इससे तमाम क्षेत्रीय दल निराश और नाराज हैं कि कांग्रेस एक बॉस की तरह बर्ताव कर रही है। गठबंधन के बनने से लेकर अब तक के वक्त को देखें तो यह बात साफ है कि बाकी तमाम पार्टियों ने यह मान लिया था कि कांग्रेस ही पूरे देश में फैली हुई अकेली पार्टी है, और उसे ही एक धुरी की तरह बाकी तमाम लोगों को साथ लेकर चलना है। जो लोग कांग्रेस के कटु आलोचक थे, उन्होंने भी वक्ती तौर पर कांग्रेस की अगुवाई को गठबंधन के मुखिया के तौर पर मान लिया था कि अगर 2024 के आम चुनाव में मोदी से कोई मुकाबला करना है, तो उसके लिए कांग्रेस के साथ काम करना जरूरी और मजबूरी दोनों है। ऐसी तस्वीर उभरकर आने के बाद एक गठबंधन के सबसे बड़े दल, और अघोषित मुखिया के रूप में कांग्रेस को जो बर्ताव करना था, उसे कांग्रेस के नेताओं के अहंकार ने नामुमकिन कर दिया। 

हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हमने ये खतरा पहले भी बताया था कि कांग्रेस जैसे-जैसे मजबूत होगी, वैसे-वैसे यह गठबंधन कमजोर होते जाएगा। और इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का तीन राज्यों में समूल नाश सा हो गया है, लेकिन नतीजे आने के पहले तक महज ओपिनियन पोल की बदौलत कांग्रेस की बददिमागी सिर चढक़र बोलने लगी थी, और मध्यप्रदेश के कमलनाथ ने राज्य में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को एक भी सीट देने के बजाय जिस हिकारत के साथ अखिलेश-वखिलेश की भाषा बोली थी, वह किसी भी गठबंधन को बर्बाद करने वाली थी। कमलनाथ की जगह कोई और छोटे नेता होते तो ऐसी जुबान के लिए यह भी माना जा सकता था कि वे इस गठबंधन के खिलाफ भाड़े पर यह बयान दे रहे थे। 

कांग्रेस के साथ हर स्तर पर एक दिक्कत यह है कि यह अपने घर के भीतर एक बेकाबू पार्टी है। राज्यों में बिखरे इसके क्षेत्रीय नेता अपने इलाकों को स्वायत्तशासी प्रदेशों की तरह लीज पर चलाने लगे हैं, और राष्ट्रीय संगठन की पकड़ वहां बुरी तरह घट गई है। क्षेत्रीय-छत्रप संगठन को उसी वक्त महत्व देते हैं जब संगठन के फैसले उन्हें अपने फायदे के दिखते हैं। इससे परे उनके लिए राहुल गांधी की कही बातें भी कोई मायने नहीं रखतीं, जैसा कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के मुद्दों पर पिछली भूपेश सरकार ने साबित किया है। यही हाल देश में दूसरी जगहों पर भी दिखता है जहां राहुल गांधी, और प्रियंका गांधी भी, कोई सैद्धांतिक बात करते दिखते हैं, और उन बातों को महज मंच को सजाने का सामान बना दिया जाता है। पार्टी के प्रदेश के नेता उन पर अमल करने, या पार्टी के भीतर चर्चा करने की जहमत भी नहीं उठाते। इस किस्म से चापलूसी से भरी हुई पार्टी को उसके मौजूदा अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने कुछ हद तक तो पैरों पर खड़ा किया है, लेकिन कांग्रेस सरकारें इतने कम राज्यों में रह गई हैं कि दिल्ली की जुबान अधिक नहीं रह गई। इसी का नतीजा है कि इंडिया गठबंधन के साथियों को छत्तीसगढ़ या मध्यप्रदेश में एक सीट भी नहीं दी गई, और कांग्रेस के क्षेत्रीय नेता अपने पूरे अहंकार में डूबे हुए पार्टी की संभावनाओं को मटियामेट करते रहे। किसी से कोई गठबंधन या तालमेल करना है या नहीं, यह सबकी अपनी मर्जी की बात हो सकती है, लेकिन 2024 के लिए एक व्यापक गठबंधन बनाने चली पार्टियों में से सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को जो एक छोटी सी दरियादिली दिखानी थी, वह एक डबरादिली भी नहीं दिखा पाई। राज्यों में तो जनता से जिसे जो मिलना था वही मिला है, हम अभी यहां उस मुद्दे को छेडऩा नहीं चाहते, लेकिन इन विधानसभा चुनावों ने कांग्रेस की बर्बादी राज्यों से परे, राज्यों से अधिक इंडिया-गठबंधन में भी की है, जो कि आज एक साथ बैठने के लायक भी नहीं रह गया है। 

भारतीय लोकतंत्र में दो किस्म की पार्टियां हैं, एक जो कि राष्ट्रीय पार्टियां हैं, और दूसरी वे जो कि क्षेत्रीय पार्टियां हैं। देश में कोई भी गठबंधन इन दोनों के मेलजोल के बिना नहीं बन सकता। और अब देश के अगले कुछ चुनाव कोई गैरभाजपाई दल अपने बूते जीतते भी नहीं दिखता। ऐसे में जितनी जरूरत क्षेत्रीय पार्टियों को कांग्रेस की है, उससे कहीं अधिक जरूरत कांग्रेस को क्षेत्रीय पार्टियों की है जिनकी पीठ पर सवार होकर वह चुनाव में उतर सके। कांग्रेस के मुकाबले कुछ क्षेत्रीय पार्टियां अपने-अपने प्रदेशों में एक बेहतर चुनावी संभावना रखती हैं, उनकी जिंदगी तो कांग्रेस के बिना चल सकती है, लेकिन कांग्रेस आज एक ऐसी अमरबेल सरीखी हो गई है जिसे सहारे के लिए किसी पेड़ के तने की जरूरत है, और उस पेड़ का रस चूसकर वह बेल अपने को बढ़ा सके। कांग्रेस की अपनी जरूरत, और उसका अपना रूख, इन दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं दिख रहा है। राहुल और सोनिया गांधी व्यवहार में विनम्र हैं, लेकिन उनकी पार्टी के बाकी नेता कुछ अलग ही किस्म की जुबान बोलते हैं। यह तो गनीमत है कि कांग्रेस राज्यों के चुनाव इस बुरी तरह हार गई, यह अगर इन राज्यों को जीत गई होती तो कमलनाथ जैसे लोग अखिलेश का पोस्टर जलाते दिखते। अगले आम चुनावों में अगर मोदी-एनडीए के खिलाफ किसी तरह की कोई विपक्षी संभावना बन सकती है, तो वह एक कमजोर कांग्रेस की अगुवाई में ही बन सकती है। किसी मामूली सी कामयाबी से भी जिस पार्टी के क्षेत्रीय नेता बदजुबानी करने लगते हैं, उस पार्टी की कामयाबी गठबंधन के साथियों को भुनगा साबित करने लगती। हम पहले भी इस बात को कह चुके हैं कि कांग्रेस का मजबूत होना गठबंधन को कमजोर करेगा। और आज चुनावी नतीजों को देखते हुए क्षेत्रीय साथियों ने कांग्रेस की ताकत और औकात को आईना दिखा दिया है, और यह जरूरी भी था। किसी भी गठबंधन या संगठन में अगुवाई करने वाली बड़ी पार्टी के कुछ गठबंधन धर्म होते हैं, जब तक सोनिया यूपीए की मुखिया थीं, यह धर्म अच्छी तरह निभ गया। यही वजह थी कि वह गठबंधन दस बरस सत्ता पर रहा। अब राज्यों में बौने साबित हो चुके नेता भी कांग्रेस के भीतर वजनदार बने हुए हैं, और ऐसे लोग गठबंधन को हिकारत की नजर से देखते भी हैं। कांग्रेस को अपने इस आंतरिक विरोधाभास से उबरना होगा, वह भारत के संघीय ढांचे की तरह अपनी राज्य इकाईयों के एक संघीय ढांचे की तरह नहीं चल सकतीं। पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र के नाम पर क्षेत्रीय-छत्रपों की अराजक स्वायत्तता ने ही कांग्रेस को चुनाव में यह बदहाली दी है। अपना घर सुधारे बिना कांग्रेस इंडिया-गठबंधन नाम के तम्बू का बम्बू नहीं बन सकती। अब लोकसभा चुनाव तक कांग्रेस के सामने अपने क्षेत्रीय नेताओं की अधिक चुनौतियां नहीं हैं, लेकिन जैसे-जैसे आम चुनाव में सीटों की बंटवारे की बात आएगी, वैसे-वैसे इसके छत्रप फिर लीडरशिप के मुकाबले खड़े होने लगेंगे। यह खरगे और सोनिया-परिवार के कड़े इम्तिहान का मौका है। 

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