संपादकीय
किसी संगठन के भीतर फैसले कितने सही हैं और कितने गलत, यह उस संगठन के अपने तौर-तरीकों पर भी निर्भर करता है। आज देश के तीन प्रमुख हिन्दीभाषी राज्यों में बड़ी जीत के बाद भाजपा के मुख्यमंत्री तय होने हैं। लोकतांत्रिक तौर-तरीकों के हिसाब से जीते हुए विधायकों के बहुमत से मुख्यमंत्री बनने चाहिए, लेकिन इस देश में हाल के दशकों में शायद ही कभी, और कहीं इस आधार पर मुख्यमंत्री तय किए गए हों। देश की दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों में हाईकमान की संस्कृति विकसित और मजबूत हो चुकी है, और कांग्रेस और भाजपा के ऐसे फैसले राज्यों की राजधानी में नहीं, देश की राजधानी में तय होते आए हैं, और भाजपा में आज यही हो रहा है। 15-15 बरस मुख्यमंत्री रहे हुए नेता भी अपने राज्यों में बैठे दिल्ली के फैसले का इंतजार कर रहे हैं, और यही कांग्रेस में भी कुछ अरसा पहले तक होता था, जब तक कुछ राज्यों में उसकी सरकारें थीं। धीरे-धीरे कांग्रेस के पास अपने चुनाव चिन्ह पंजे की उंगलियों जितने राज्य भी नहीं रह गए, और इसके साथ ही राज्य के नेताओं पर उसकी पकड़ भी खत्म हो गई। अब कांग्रेस के राज्यों के संगठन स्वायत्तशासी संगठनों की तरह काम कर रहे हैं, और दिल्ली दिखावे के लिए मुखिया बनी हुई है।
खैर, आज मुद्दा कांग्रेस नहीं भाजपा है। और भाजपा के भीतर भी हाईकमान की संस्कृति उसी तरह विकसित हो गई है जिस तरह दर्जन भर प्रदेशों पर राज करने वाली किसी भी दूसरी पार्टी में हो सकती थी, कांग्रेस में हमेशा से रहते आई थी, अभी कुछ बरस पहले तक। आज देश में भाजपा के 10 सांसद विधायक बनकर आए हैं जिनके कल लोकसभा से इस्तीफे हुए हैं। जब पार्टी देश में इस हद तक मजबूत हो जाती है कि वह राज्यों में अपने नेताओं में से जिसे चाहे बना सके, और जिसे चाहे हटा सके, तो फिर सांसदों और विधायकों को प्यादों की तरह इधर-उधर करना उसके लिए आसान भी हो जाता है, और उसका हक भी हो जाता है। हम इसे सही और गलत की परिभाषा में बांटना नहीं चाहते, क्योंकि यह भी ताजा इतिहास ही है कि मध्यप्रदेश में पांच बरस की सत्ता के बाद दुबारा जीतकर आए अर्जुन सिंह को शपथ ग्रहण के अगले ही दिन पंजाब का राज्यपाल बनाकर भेज दिया गया था। ऐसा लगता है कि भारतीय लोकतंत्र में जब कोई पार्टी या नेता जरूरत से अधिक ताकतवर हो जाते हैं, तो उन्हें किसी लोकतांत्रिक नीति-सिद्धांत, या प्रक्रिया की जरूरत नहीं रह जाती है। छत्तीसगढ़ के पांच बरस के अतिशक्तिशाली मुख्यमंत्री रहे भूपेश बघेल के हटने के बाद अब लोगों को यह कहने का हौसला जुट रहा है कि उन्होंने पार्टी और अपनी सरकार में लोकतंत्र को पूरी तरह खत्म कर दिया था। बीते पांच बरस में सिवाय दबी-छुपी जुबान के किसी ने खुलकर यह बात नहीं कही थी, क्योंकि देश या प्रदेश में अंधाधुंध ताकत के सामने मुंह खोलने के खतरे सबको पता थे।
आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, और गृहमंत्री अमित शाह देश के इतिहास के सबसे अधिक विपरीत और खतरनाक दौर से उबरकर, गुजरात में बचकर पूरे देश पर जिस तरह जीत हासिल कर चुके हैं, उससे वे एक ऐसी अनोखी ताकतवर स्थिति में आ गए हैं कि वे अपनी पार्टी और सरकार को लेकर कोई भी फैसले कर सकते हैं। इसलिए जब उन्होंने इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में पार्टी के उम्मीदवार तय करते हुए शायद दर्जनभर सांसदों को चुनाव में उतारा, तो भी किसी के पास कहने को कुछ नहीं था। आज इन सांसदों को जीतने के बाद विधायक बनाने के फैसले पर भी कहने को किसी के पास कुछ नहीं है, और पार्टी तीन राज्यों में नए मुख्यमंत्री किन्हें बनाएगी, इस बारे में भाजपा के इन दो सबसे ताकतवर नेताओं से परे किसी और को कोई खबर नहीं है। जाहिर है कि ऐसी अनोखी ताकत हासिल करने के लिए राजनीतिक और चुनावी रूप से अंधाधुंध कामयाब होना जरूरी रहता है। अगर किसी पार्टी का केन्द्रीय संगठन चुनावों में लगातार कामयाब नहीं है, तो उसकी बात प्रदेश के नेता ठीक उसी तरह अनसुनी कर देते हैं, जिस तरह परिवार में बैठे बूढ़े मां-बाप की बात को बड़बड़ाहट मान लिया जाता है। इन तीन राज्यों को खोने के बाद कांग्रेस कुछ ऐसी ही हालत में है, और 2018 के चुनाव में खोए हुए इन तीन राज्यों को पाने के बाद भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व अभूतपूर्व ताकत से लैस है। मोदी और शाह की जोड़ी लोकसभा चुनावों से लेकर बहुत से राज्यों के चुनावों में कामयाबी पा चुकी है, पार्टी को दिला चुकी है, और उनकी आज की ताकत इस कामयाबी पर भी टिकी हुई है। न सिर्फ किसी राजनीतिक दल में, बल्कि जिंदगी के बाकी दायरों में भी यह बात लागू होती है कि कामयाबी के साथ बहस नहीं की जाती। इसलिए भाजपा लीडरशिप से कोई सवाल भी नहीं हो सकते कि वे किसे मुख्यमंत्री बनाएंगे।
हम सोशल मीडिया पर अक्सर होने वाली चुनिंदा निशानेबाजी को लोगों की अपनी भड़ास निकालने की एक तरकीब मानते हैं, और हम राजनीति या सार्वजनिक जीवन में चुनिंदा निशानों पर हमले करने, और कुछ दूसरे चुनिंदा निशानों को रियायतें देने के खेल में शामिल नहीं होते। अगर हाईकमान की संस्कृति आज किसी पार्टी में है, तो इसकी शुरुआत तो कांग्रेस से ही हुई है, यह एक अलग बात है कि कांग्रेस की आज की दुर्गति को देखते हुए दूसरी पार्टियों को ऐसी संस्कृति से बचना चाहिए, या कांग्रेस की मिसाल का इस्तेमाल करना चाहिए? ऐसा करने के लिए भी एक बड़ी ताकत की जरूरत पड़ती है जो कि कांग्रेस में इतिहास के पन्नों पर दर्ज है, और भाजपा के वर्तमान में आज बैनर पर लिखी हुई है।
आज की इस नौबत को देखते हुए राजनीति में चुनावी कामयाबी के महत्व को समझने की जरूरत है। चुनावी लोकतंत्र में कामयाबी बुरी बात नहीं होती है, और कई मायनों में वह अपनी नीतियां लागू करने के लिए एक जरूरी औजार भी रहती है। नेताओं और पार्टियों की नीतियां चाहे कितनी अच्छी क्यों न हों, अगर सत्ता हाथ नहीं है, तो वे हसरत और नारों की तरह रह जाती है। पार्टियों के लिए अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए चुनावों में जीतना जरूरी रहता है, और हर चुनावी नतीजे के बाद उससे जुड़ी हुई पार्टियों को आत्ममंथन करना चाहिए। यह बात हम कांग्रेस के सिलसिले में अभी दो-चार दिन पहले ही लिख चुके हैं, और पार्टी को देश के लोकतंत्र के भले के लिए न सही, अपने खुद के अस्तित्व के लिए एक ईमानदार आत्मविश्लेषण करना चाहिए। कई बार घर के भीतर ईमानदार सोच-विचार मुमकिन नहीं हो पाता, ऐसे में पार्टी को बाहर के कुछ लोगों से भी अपनी हार का विश्लेषण मांगना चाहिए।