संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अफसरों का कुछ घंटों में बुलडोजरी निष्ठा प्रदर्शन
09-Dec-2023 3:55 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : अफसरों का कुछ घंटों में बुलडोजरी निष्ठा प्रदर्शन

छत्तीसगढ़ में सत्तारूढ़ कांग्रेस की जमकर शिकस्त हुई, और भाजपा किसी की भी उम्मीद से अधिक सीटों के साथ सरकार पर आई। जाहिर है कि ताकतवर, और शायद कमाऊ भी, कुर्सियों पर बैठे हुए अफसर इससे सबसे पहले प्रभावित होंगे। इधर लीड के आंकड़े आते जा रहे थे, और उधर राजधानी रायपुर सहित कुछ दूसरे शहरों में भी पुलिस-प्रशासन, और म्युनिसिपल के अफसर बुलडोजर लेकर निकल गए, और जगह-जगह से ठेले और गुमटियां हटाने लगे। यह काम इस रफ्तार से चालू हुआ कि मानो यह यूपी और एमपी हो, जहां पर सत्ता बुलडोजर को एक प्रतीक बनाकर काम करती है। अभी तो विधायकों की शपथ भी बाकी थी, सरकार बनना तो अभी भी बाकी है, लेकिन बड़े-बड़े अफसर मानो एक किस्म से नई सत्ता के प्रति वफादारी दिखाने के लिए घर से दफ्तर कार के बजाय बुलडोजर पर बैठकर आने लगे हों। 

इन पांच बरसों में इन्हीं अफसरों ने एक संगठित गिरोह की तरह शराब का गैरकानूनी कारोबार किया था, ये सरकार से परे के लोगों के निजी नौकरों की तरह काम करते हुए अखिल भारतीय सेवाओं का नाम डुबा रहे थे, लेकिन कमाऊ कुर्सियों पर बने रहना चाहते थे, बने हुए थे। अब एकाएक ऐसे अफसरों को शराब दुकानों के आसपास के ठेलों और गुमटियों पर हमले के लिए हाईकोर्ट में चल रही एक सुनवाई का सहारा मिल गया, दूसरी तरफ इनके बुलडोजर ऐसे इलाकों में भी जाकर गरीबों को उजाडऩे लगे जहां पर आसपास कोई भी शराब दुकान नहीं है। प्रदेश कांग्रेस भवन के अहाते से लगे हुए दर्जनों ठेलों और गुमटियों को उठाकर फेंक दिया गया, और अफसरों ने एक मजबूत बुलडोजरी-निष्ठा की नुमाइश करके अपनी अगली कुर्सियां पक्की करने की एक कोशिश कर ली। कहीं किसी अफसर ने मातहत थानेदारों के तबादले कर दिए, तो किसी कलेक्टर ने डिप्टी कलेक्टर इधर-उधर कर दिए। जब दो-तीन दिन के भीतर नई सरकार काम संभालने वाली है, उस वक्त किसी अफसर को ऐसे तबादलों में क्यों उलझना चाहिए जहां वे खुद भी कल जिले के मुखिया रहेंगे या नहीं? 

दरअसल पिछले पांच बरसों में सरकारी अमले ने जिस किस्म से अपने आपको बैठने को कहने पर लेटना महफूज समझा था, उस नौबत को सुधारने में खासा वक्त लग सकता है। एक तो तमाम पार्टियों और नेताओं को यह समझ में आ गया है कि अफसर हों, या कि मीडिया, उन्हें किस तरह काबू में रखा जा सकता है, और किस तरह सरकार के एकाधिकार को दुहा जा सकता है। पिछले पांच बरस अगर आने वाली सरकार के लिए कोई मिसाल हैं, तो इस बात की मिसाल नहीं बनने चाहिए कि गलत काम कैसे-कैसे करवाए जा सकते हैं, भाजपा सरकार के लिए बेहतर यही होगा कि वह यह सबक ले कि कैसे-कैसे गलत काम नहीं करने हैं जिनकी वजह से इतनी ताकतवर दिखती सरकार इतनी गहराई में डूब सकती है। राजनीति और सरकार में एक दिक्कत यह रहती है कि अच्छी मिसालों के मुकाबले बुरी मिसालें अधिक मुनाफे की रहती हैं। लोगों को याद रहना चाहिए कि सत्ता के इर्द-गिर्द के लोग चाहे उसकी खामियों, गलतियों, और गलत कामों को न गिनाएं, जनता उन्हें गिनती रहती है। और जैसा कि इस बार के नतीजे आने के बाद समझ आ रहा है, लोगों ने ठीक जोगी सरकार की तरह इस बार भूपेश सरकार को खारिज किया है। भाजपा को यह बात सुनने में बहुत अच्छी नहीं लगेगी, लेकिन उसकी इस बार की असाधारण, और उम्मीद से परे की जीत में भूपेश सरकार का योगदान कम नहीं था। 

जोगी के वक्त छत्तीसगढ़ में जो जुर्म और जुल्म हुए, ठीक उसी तर्ज पर भूपेश सरकार के दौरान भी हुए, और उसी वजह से किसानों के फायदे की अभूतपूर्व योजनाओं के रहते हुए भी कांग्रेस सत्ता से बुरी तरह बाहर हुई। आज अगर भाजपा सरकार को आने के पहले ही खुश करने में जुट गए अफसर अगर बेकसूर गरीबों पर बुलडोजर चलाकर निष्ठा दिखाना चाह रहे हैं, तो ऐसी हरकतों से भी भाजपा को सावधान रहना चाहिए। हमारा ख्याल है कि जिन इलाकों में गुंडागर्दी के अंदाज में अवैध कब्जे थे, अवैध काम चल रहे थे, वहां पर तो कार्रवाई ठीक है, लेकिन जिन इलाकों में कोई संगठित गुंडागर्दी नहीं है, दारू की दुकानों के आसपास की अराजकता नहीं है, वहां चाट-गुपचुप बेचने वालों को बेदखल और बेरोजगार करके ये अफसर सत्ता पर आने वाली भाजपा का नुकसान पहले ही शुरू कर देंगे। यह सिलसिला आने वाले लोकसभा चुनाव से लेकर पंचायत और म्युनिसिपल चुनावों तक सत्तारूढ़ पार्टी का नुकसान कर सकता है। आज गरीब जनता का जो हिस्सा पूरी तरह से कानूनी काम करते हुए अपनी रोजी-रोटी कमा रहा है, किसी जुर्म से दूर है, उसे बेरोजगार करना बिल्कुल भी समझदारी नहीं है। अफसरों की पहली प्राथमिकता सत्ता पर आने वाले नेताओं को किसी भी तरह से प्रभावित और खुश करने की है, नेताओं को ऐसे खुशामदखोरों से सावधान रहना चाहिए, क्योंकि अभी-अभी निपटे विधानसभा चुनाव में बहुत से ऐसे नेता निपटे हैं, या उनकी सरकार निपटी है, जिन्हें कोई ईमानदार और जिम्मेदार अफसर रोक सकते थे। जब लोगों को अपने आसपास दूसरी, तीसरी, और चौथी सलाह लेने का इंतजाम नहीं रहता है, सत्ता उनसे कई किस्म की मनमानी करवाती है। सत्ता की ताकत ही लोगों को अलोकतांत्रिक, बददिमाग, और बेदिमाग बना देती है। ऐसा भी नहीं कि यह खतरा सिर्फ नेताओं के सामने रहता है, अफसरों में भी बहुत कम ऐसे रहते हैं जो बहुत ही ताकत की जगह पर रहकर भी अपने दिमाग को सही जगह पर रख पाते हैं। 

आने वाली भाजपा सरकार के लोगों की आज के अफसरों से अगर कोई बातचीत है, तो उन्हें अफसरों को गरीब जनता को उजाडऩे से रोकना चाहिए। किन इलाकों से अवैध कब्जों को हटाना है, किस किस्म के अवैध निर्माण गिराना है, यह करने के लिए तो पूरे पांच साल हैं। लेकिन न तो नेताओं को अपने जश्न के बीच लोगों की रोजी-रोटी छीनने के हुक्म देने चाहिए, और अगर उन्होंने ऐसे हुक्म नहीं दिए हैं, तो अफसरों को ऐसा करने से रोकना चाहिए। पिछले पांच बरस में छत्तीसगढ़ के बड़े से बड़े अफसरों ने यह साबित कर दिया है कि सत्ता उनका जैसा चाहे वैसा इस्तेमाल कर सकती है, और वे उफ भी किए बिना उपलब्ध रहेंगे। लेकिन ऐसी सत्ता का क्या हाल होता है, यह इस बार के नतीजों ने दिखा दिया है। हमारा मानना है कि भाजपा के कुछ समझदार लोग पांच बरसों के इस तजुर्बे के उन चुनिंदा हिस्सों से सबक लेंगे, जिससे पांच बरस बाद इस पार्टी का वैसा ही हाल न हो। फिलहाल जब तक कुछ तय नहीं होता है, किसी भी गरीब फुटपाथी रोजगार चलाने वाले को बेदखल नहीं करना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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