संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सस्ता रोए बार-बार, महंगा रोए एक बार..
10-Dec-2023 5:22 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  सस्ता रोए बार-बार, महंगा रोए एक बार..

देश के पांच राज्यों में हुए चुनाव के बाद अभी सरकारें बनने का सिलसिला चल रहा है, सैकड़ों नए विधायक चुनकर आए हैं, और ऐसे में विधायक ही सबसे अधिक खबरों में हैं। लोगों को यह पता नहीं होगा कि देश के अलग-अलग राज्यों में विधायकों को कितना मेहनताना मिलता है? यह तनख्वाह की शक्ल में भी है, सहूलियतों की शक्ल में भी, और पेंशन के भी अलग-अलग इंतजाम हैं। देश में तेलंगाना, जहां कि अभी चुनाव हुआ है और सरकार बनी है, वहां किसी भी दूसरे राज्य के मुकाबले विधायक की तनख्वाह अधिक है, जो कि ढाई लाख रूपए महीने हैं। दूसरी तरफ मेघालय में 28 हजार से कम तनख्वाह है, और त्रिपुरा में देश की सबसे कम तनख्वाह, 26 हजार से कम है। त्रिपुरा में शायद ऐसा इसलिए भी होगा कि वहां वामपंथी सरकार लंबे समय तक रही है, और नेताओं को जनता के पैसों पर अधिक सहूलियत देने की संस्कृति नहीं रही। शायद इसीलिए बंगाल में भी यह तनख्वाह कुल 52 हजार रूपए महीने है, और इन राज्यों में तनख्वाह जरा भी बढऩे पर उसका बड़ा विरोध होता है। वामपंथी शासन में लंबे समय तक रहने वाले केरल में तनख्वाह बंगाल से भी कम, 44 हजार से कम है। अलग-अलग राज्यों में मुख्यमंत्रियों या मंत्रियों की तनख्वाह भी बहुत अधिक कम या अधिक है। भारत में निर्वाचित नेताओं में प्रधानमंत्री को करीब दो लाख रूपए तनख्वाह और कुछ भत्ते मिलते हैं। जबकि कम से कम तेलंगाना में ही मुख्यमंत्री की तनख्वाह इससे दोगुनी से अधिक है। 

तमाम राज्यों के आंकड़े अलग-अलग गिनाना आज का मकसद नहीं है, लेकिन यह सोचने की जरूरत है कि विधायकों और सांसदों की तनख्वाह आखिर कितनी होनी चाहिए? उनके कौन से खर्च जनता उठाए, उनके परिवारों को किस दर्जे की जिंदगी जनता के पैसों से दी जाए? अगर हम हिन्दुस्तान को बुनियादी तौर पर एक बेईमान देश मानकर यह मानकर चलें कि नेता तो करोड़ों की कमाई कर ही लेते हैं, उन्हें कोई अच्छी तनख्वाह देना जरूरी क्यों है, तो एक पुरानी कहावत याद रखनी चाहिए कि सस्ता रोए बार-बार, महंगा रोए एक बार। देश और प्रदेश को चलाने के लिए जिन सांसदों और विधायकों की जरूरत है, उन्हें सस्ता ढूंढने का मतलब काबिल लोगों को इस काम में आने से रोकना है। जनसेवा की बात और सोच तो ठीक है, लेकिन यह हकीकत अपनी जगह बनी रहती है कि जनप्रतिनिधियों के भी परिवार रहते हैं, और उनकी अपनी जरूरतें भी होती हैं, और महत्वाकाक्षाएं भी रहती हैं।  आज के वक्त हर किसी से त्याग की ऐसी उम्मीद करना नाजायज होगा कि हर सांसद और विधायक वामपंथियों की तरह की गरीब जिंदगी गुजार लें, और अपनी तनख्वाह पार्टी ऑफिस में जमा करके उसके एक छोटे से हिस्से को पाकर उससे अपना घर चलाएं। ऐसा समर्पण किसी एक पार्टी में हो सकता है, या कि देश में आजादी की लड़ाई के दौरान था, लेकिन अब ऐसा समर्पण स्थाई रूप से नहीं हो सकता, और जब देश को आजाद कराने जैसा बड़ा मकसद न हो, तब तो बिल्कुल नहीं हो सकता। आज जब सांसद और विधायक बनते ही लोगों को 50-50 लाख की गाडिय़ां सूझने लगती हैं, और वे उसके इंतजाम करने में लग जाते हैं, या कि पहले दिन से ही कुछ लोग पूंजीनिवेश की तरह उनके लिए इंतजाम कर देते हैं, तब जनता को यह सोचना चाहिए कि अगर कोई सांसद या विधायक ईमानदार बने रहना चाहते हैं, तो जनता भी उसमें मदद करे। अपने लोगों को बेईमानी की तरफ धकेलकर सरकारी खजाने के पैसे को बचाना कोई समझदारी नहीं है। 

हम पहले भी इसी विचार के रहे हैं कि सांसद और विधायक से यह उम्मीद नाजायज है कि वे बिना तनख्वाह, या बहुत कम तनख्वाह पर जनसेवा करें। ऐसी चुनावी राजनीति में आने वाले अधिकतर लोग जिंदगी भर के लिए अपने किसी पेशे या कारोबार से बाहर सरीखे भी हो जाते हैं। और अगर उनके लिए कार्यकाल में बेहतर तनख्वाह और बाद में ठीकठाक पेंशन रहे, तो उनमें से कम से कम कुछ लोग तो ईमानदार बने रहना पसंद कर सकते हैं। हमारा ख्याल है कि देश में सांसदों की तनख्वाह केन्द्र सरकार को कम से कम सीनियर आईएएस की तनख्वाह के बराबर तय करना चाहिए, और राज्य अपनी आर्थिक क्षमता के आधार पर विधायकों की तनख्वाह तय कर सकते हैं, वो भी हमारे हिसाब से ऐसी ही तनख्वाह के आसपास होनी चाहिए। जनप्रतिनिधियों को परिवार की जरूरतों से बेफिक्र होने का एक मौका मिलना चाहिए, उन पर सामाजिकता निभाते हुए पडऩे वाले शिष्टाचार के बोझ को भी समझने की जरूरत है। आज हिन्दुस्तान में किसी सांसद या विधायक के घर जाने पर अगर वहां कोई पानी पिलाने को न रहें, तो यह सामाजिक शिष्टाचार के भी खिलाफ रहेगा। बहुत से सांसद और विधायक बरसों तक मेहनत के बाद इस जगह पहुंचते हैं, और पांच-दस बरस के भीतर वे भूतपूर्व भी हो जाते हैं। इसलिए जिंदगी के बहुत से हिस्से को पूंजीनिवेश की तरह लगाना पड़ता है, तब जाकर लोग संसद और विधानसभाओं तक पहुंच पाते हैं। जनता के एक बड़े हिस्से के बीच यह सोच बनाई जाती है कि सांसदों और विधायकों को अधिक तनख्वाह नहीं मिलनी चाहिए, और यह जनता पर बोझ रहता है। हम यह साफ कर देना चाहते हैं कि किसी भी राज्य में इनकी गिनती बड़ी सीमित रहती है, और राज्य को चलाने, वहां के विकास से जुड़ी हुई जिम्मेदारियां इन पर बहुत रहती हैं, इनके बेईमान हो जाने के खतरे भी बहुत रहते हैं। इसलिए इन्हें पर्याप्त तनख्वाह देना एक किस्म से बचत होगी, फिजूलखर्ची नहीं होगी। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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