संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कालेधन के खिलाफ ट्वीट, और मिले नगद 350 करोड़!
11-Dec-2023 3:56 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : कालेधन के खिलाफ ट्वीट,  और मिले नगद 350 करोड़!

ओडिशा और झारखंड के एक शराब कारोबारी और कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य धीरज प्रसाद साहू के ठिकानों से देश की सबसे बड़ी नगदी, साढ़े 3 सौ करोड़ से ऊपर के नोट बरामद हुए हैं। यह बरामदगी कई सवाल खड़े करती है। एक सवाल तो यह है कि मोदी सरकार की लाई गई नोटबंदी से देश में कालाधन खत्म होने का जो दावा किया जा रहा था, उससे इस हद तक कालेधन की गुंजाइश बनी हुई है, और कहीं भी खत्म या कम नहीं हुई है। दूसरी बात यह है कि कांग्रेस पार्टी जिसे राज्यसभा में भेजती है, उसकी ऐसी दौलत के बारे में भी या तो उसे कोई अंदाज नहीं है, या फिर वह पार्टी में ऐसे अरबपति-खरबपति का इस्तेमाल करती है। अब कहने के लिए यह राजनीतिक बयान जरूर दिया जा सकता है कि केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियां सिर्फ गैरभाजपाई, या एनडीए-विरोधी पार्टियों के नेताओं पर ही कार्रवाई करती है, लेकिन इस बात को कैसे अनदेखा किया जा सकता है कि जब देश में कुछ लाख रूपए से अधिक की नगदी रखने पर सवाल खड़े होते हैं, तब सैकड़ों करोड़ के नोट इस तरह एक कब्जे से बरामद होना एक राजनीतिक नैतिकता का पाखंड भी साबित करता है। ऐसे में इसी कांग्रेस सांसद धीरज प्रसाद साहू का अगस्त 2022 का एक ट्वीट भी सोशल मीडिया पर तैर रहा है जिसमें उसने लिखा था- नोटबंदी के बाद भी देश में इतना कालाधन और भ्रष्टाचार देखकर मन व्यथित हो जाता है। मेरी तो समझ में नहीं आता कि कहां से लोग इतना कालाधन जमा कर लेते हैं? अगर इस देश से भ्रष्टाचार को कोई जड़ से खत्म कर सकता है, तो वह सिर्फ कांग्रेस पार्टी ही है। 

देश के अधिकतर राजनीतिक दलों के पास अपने नेताओं के चाल-चलन पर निगरानी रखने का या तो कोई जरिया नहीं रहता है, या उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती है। अभी जितनी खबरें हमें याद पड़ रही हैं, उनके मुताबिक अकेले वामपंथी दल हैं जिनके नेताओं में इस किस्म का भ्रष्टाचार उस वक्त भी देखने नहीं मिला, जिस वक्त पश्चिम बंगाल में लगातार 30 बरस से अधिक का वामपंथी राज था। इसके त्रिपुरा के एक के बाद एक मुख्यमंत्री गरीबी की जिंदगी जीने वाले रहे। शायद बंगाल की संस्कृति ऐसी थी कि वहां वाममोर्चा सरकार के बाद आने वाली तृणमूल कांग्रेस की ममता बैनर्जी सरकार को भी सादगी की जिंदगी जीनी पड़ती थी। यह एक अलग बात है कि बाद के बरसों में ममता बैनर्जी के एक के बाद एक कई मंत्री बहुत परले दर्जे के भ्रष्टाचार में दसियों करोड़ की नगदी के साथ भी पकड़ाए, और इससे अधिक बड़े भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ भी। ममता के मंत्री चिटफंड घोटालों में भी पकड़ाए, और बंगाल की राजनीतिक संस्कृति को गहरी चोट पहुंची। लेकिन त्रिपुरा के माक्र्सवादी मुख्यमंत्री पूरे देश में ईमानदारी और सादगी की मिसाल बने रहे, और उन्होंने गरीबी की जिंदगी जीने को बिना किसी प्रचार के अपनाया। भारत की राजनीति में अगर गांधीवादी सादगी कहीं पर दिखी, तो वह उनसे कई मामलों में असहमत रहने वाले वामपंथियों में ही दिखी, खुद गांधी की कांग्रेस पार्टी के लोगों का कोई भरोसा सादगी या ईमानदारी में नहीं रहा। 

अब भारत की राजनीति के कुछ बुनियादी सवालों पर आएं, तो देश के कालेधन का एक बड़ा योगदान इस देश के लोकतंत्र का अपहरण कर लेने में दिखता है। कारोबारी घराने जिस तरह से हर दर्जे के नेताओं को अपनी जेब में रखते हैं, उसके खतरे को कम नहीं समझना चाहिए। आज चाहे जिस पार्टी के निशान से लोग संसद और विधानसभाओं में पहुंचें, उनमें से बहुतों के पीछे देश के बड़े कारोबारी रहते हैं, जो कि स्थानीय स्तर पर चुनिंदा नेताओं को बढ़ावा देने का दांव लगाते हैं, उन पर पूंजीनिवेश करते हैं, उन्हें अलग-अलग पार्टियों की टिकटें दिलाते हैं, उनके मुकाबले कमजोर विपक्षी उम्मीदवार के लिए दूसरी पार्टियों में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हैं, चुनाव में कालाधन देते हैं ताकि उनका पसंदीदा उम्मीदवार वोटर खरीद सके। और इतना कुछ हो जाने के बाद बड़े कारोबारी यह ख्याल भी रखते हैं कि उनके पसंदीदा और पूंजीनिवेश वाले निर्वाचित जनप्रतिनिधि को सरकार में अच्छी जगह मिले, कारोबारी की दिलचस्पी वाले विभाग और मंत्रालय मिलें, और जब किसी जिले के प्रभारी मंत्री बनाने की बात आए, तो कारोबारी अपने धंधों के जिलों के प्रभारी मंत्री तय करने के लिए पार्टियों और सरकारों में अपने प्रभाव का और भी इस्तेमाल करते हैं। 

आज हिन्दुस्तानी लोकतंत्र कारोबार के पूंजीनिवेश का गुलाम हो चुका है। अभी-अभी राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव हमने देखे हैं, और उनमें चुनाव आयोग की तथाकथित निगरानी के बाद भी खर्च हुए सैकड़ों करोड़ देखे हैं। यह पैसा गैरकानूनी तरीकों से कमाया जाता है, और चुनाव में गैरकानूनी इस्तेमाल से विधानसभा या संसद तक पहुंचा जाता है। आज हिन्दुस्तानी चुनावों का पूरा सिलसिला ही ऐसा हो गया है कि पैसे वाले लोग या तो खुद उम्मीदवार बनकर मोटा पूंजीनिवेश करें, और जीत जाने के बाद उसके मुनाफे सहित वापिसी में जुट जाएं। दूसरा तरीका यह है कि जिन लोगों के पास खुद का पूंजीनिवेश नहीं रहता है, उनके लिए कई किस्म के कारोबारी लागत लगाने तैयार रहते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह की कई कारोबार अलग-अलग खेलों और खिलाडिय़ों को बढ़ावा देने के लिए, या उस नाम पर खर्च करते हैं। कारोबार के लिए यह एक किस्म का ही रहता है कि सामाजिक वाहवाही के लिए वह कोई तीरंदाज या टीम तैयार कर दे, या सांसदों और विधायकों के अपने भाड़े के जत्थे खड़े कर ले। आज बड़े कारोबार इसी अंदाज में संसद और विधानसभाओं में अपने लोगों को पहुंचाते हैं, और कई जगह यह भी सुनाई पड़ता है कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनाने के लिए, मंत्री या उनका मंत्रालय तय करने के लिए ये कारोबार पहले दी गई अपनी रकम का जवाबी उपकार भी मानते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह आजकल संपन्न तबके में जन्मदिन पर तोहफा देने वाले बच्चों को रिटर्न गिफ्ट दी जाती है। देश के बड़े-बड़े दल उन्हें मोटी रकम देने वाले लोगों को ऐसी ही रिटर्न गिफ्ट देते हैं। 

कुछ पार्टियों के बारे में लंबे समय से यह बात प्रचलित रही है कि वे मोटी रकम लेकर कारोबारियों को सीधे राज्यसभा मेंं मनोनीत करती हैं, और बिना किसी राजनीतिक या सामाजिक योगदान के, बिना किसी विचारधारा या प्रतिबद्धता के ऐसे बड़े उद्योगपति, कारोबारी, या दलाल रातोंरात राज्यसभा के भीतर दिखते हैं, जिनमें से कुछ तो अभी देश से फरार भी हैं। यह सिलसिला बताता है कि हिन्दुस्तानी लोकतंत्र किस हद तक कालेधन की गिरफ्त में है, और जिस मौजूदा कांग्रेस राज्यसभा सदस्य से साढ़े 3 सौ करोड़ से अधिक के नोट मिले हैं, उसकी भी ताकत हो सकता है अपनी पार्टी में इसी की बदौलत हो। और फिर उसे ऐसा नैतिक दुस्साहस भी मिला हुआ था कि वह कालेधन के खिलाफ ट्वीट करते आ रहा था। यह पूरा सिलसिला गजब का है, और यह देश में राजनीति, और सत्ता के माफिया अंदाज के जुर्मों की तरफ भी सोचने को मजबूर करता है। हमने पिछले बरसों में सत्ता के गैरकानूनी धंधों से अंधाधुंध कमाई की पार्टी पर बाहुबलि ताकत देखी हुई है, और अब हमें हिन्दुस्तानी लोकतंत्र की माफियाकरण से वापिसी की कोई उम्मीद भी नहीं दिखती। इटली के माफियागिरोहों की तरह हिन्दुस्तान में भी अलग-अलग कई गिरोह हो सकते हैं जो कि राजनीतिक दलों, और उसके नेताओं को भाड़े के हत्यारों की तरह किराए पर रख सकते हैं। जनता के सामने भी इस लोकतंत्र में पूरी आजादी है कि वह इनमें से किस हत्यारे के मुकाबले किसको चुने, और यह तो इतिहास में कहा ही गया है कि जनता वैसी ही सरकार पाती है, जैसी सरकार की वह हकदार रहती है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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