संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सहूलियत से भुला दिए गए मणिपुर का सरहदी महत्व..
15-Dec-2023 3:40 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सहूलियत से भुला दिए गए मणिपुर का सरहदी महत्व..

देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के चलते हिन्दीभाषी इलाकों से मणिपुर की खबरें गायब ही हो गई थीं। और बात महज हिन्दी इलाकों की नहीं है, उत्तर-पूर्व के बाहर भारत के बहुत कम हिस्से की कोई बड़ी दिलचस्पी उत्तर-पूर्वी राज्यों में रहती है, और ये इलाका देश की खबरों की मूलधारा से तब तक कटा सा रहता है जब तक वहां से किसी बड़ी हिंसा की बड़ी खबर नहीं आ जाती। पिछले कई महीनों से मणिपुर धीरे-धीरे खबरों में किनारे होते चले गया, और अब एक बार फिर वहां की एक खबर सामने आई है कि कई महीने पहले जातीय हिंसा में मारे गए 64 लोगों के शव उनके परिवारों को दिए जा रहे हैं, और आज उनके अंतिम संस्कार के लिए मणिपुर के अलग-अलग इलाकों में सुरक्षाबलों ने छूट दी है, और संघर्ष कर रहे समुदायों ने भी कुछ घंटे की शांति का आव्हान किया है। सुप्रीम कोर्ट की बनाई भूतपूर्व हाईकोर्ट जजों की एक कमेटी की रिपोर्ट के बाद अदालत के आदेश पर महीनों से मुर्दाघरों में रखे गए वे शव अब परिवारों को दिए जा रहे हैं, जिनमें 60 ईसाई-आदिवासी कुकी समुदाय के हैं, और 4 मणिपुर के शहरी और गैरआदिवासी, हिन्दू मैतेई समुदाय के हैं। 

मई के महीने से मणिपुर में शुरू हुई हिंसा का अभी भी कोई अंत नहीं हुआ है, और जिन दो समुदायों के बीच टकराव चल रहा है, वे अलग-अलग इलाकों में सीमित हो गए हैं, और मणिपुर के भीतर जातीय आधार पर एक भौगोलिक विभाजन हो गया है जो कि सुरक्षाबलों की असाधारण बड़ी मौजूदगी की वजह से किसी तरह टकराव को टालते हुए जारी है। लेकिन यह यथास्थिति शांति से कोसों दूर है, और महज बंदूकें हंै जो कि बड़ी संख्या में तैनात हैं, और मणिपुर के दो समुदायों को एक-दूसरे को मारने से रोक रही हैं। जिन लोगों को मणिपुर के इस तनाव के ताजा इतिहास की याद न हो, उन्हें यह बताना ठीक होगा कि इस छोटे से राज्य की 40 लाख से कम आबादी में आधी आबादी नगा-कुकी आदिवासी समुदाय की है जो कि ईसाई हैं, और जिन्हें आदिवासी-आरक्षण मिला हुआ है। ये लोग राजधानी इम्फाल के शहरी इलाके से परे के पहाड़ी इलाकों पर अधिक बसे हैं। दूसरी तरफ इम्फाल के घाटी जैसे इलाके में मैतेई समुदाय बसा है जिसके अधिकतर लोग हिन्दू हैं, और इस समाज के कुछ लोगों ने मणिपुर हाईकोर्ट में एक याचिका लगाई थी जिसमें उन्हें भी आदिवासी-आरक्षण में शामिल करने की मांग की गई थी। इस पर मई के पहले हफ्ते में हाईकोर्ट का एक फैसला आया जिसमें राज्य सरकार से कहा गया था कि वह मैतेई समुदाय को आरक्षण देने की सिफारिश केन्द्र सरकार से करे। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस आदेश को उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर माना, लेकिन तब तक हिंसा के कुछ महीने गुजर चुके थे, और पौने दो सौ लाशें गिर चुकी थीं। केन्द्र सरकार की कोशिशें भी देर से शुरू हुईं, और वे मणिपुर का कोई समाधान नहीं निकाल पाईं क्योंकि राज्य के भाजपाई मुख्यमंत्री बीरेन सिंह वहां की आधी आबादी का भरोसा खो बैठे हैं, और अड़ोस-पड़ोस के दूसरे राज्यों में भी मणिपुर के आदिवासियों के खिलाफ हुई सरकारी और मैतेई हिंसा को लेकर बड़ी नाराजगी है। इस सिलसिले में यह याद दिलाना बेहतर होगा कि अभी पांच राज्यों में मणिपुर के पड़ोस के मिजोरम में भी चुनाव हुआ है, और वहां आदिवासियों के बीच जिस तरह की नाराजगी है उसे देखते हुए एनडीए में भागीदार मिजोरम की सत्तारूढ़ पार्टी के मुख्यमंत्री ने चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ एक मंच पर आने से भी इंकार कर दिया था कि मिजो आदिवासी मतदाता उससे नाराज होंगे। 

खैर, मिजोरम का चुनाव तो निपट गया, लेकिन मणिपुर में ऐसी गहरी दरार पड़ी है कि पहाडिय़ों के बीच घाटी की तलहटी की तरह बसा हुआ राजधानी इम्फाल शहर मैतेई समुदाय का एक ऐसा इलाका बन गया है जहां पर राज्य की सरकार, विधानसभा, हाईकोर्ट सब कुछ है, लेकिन वहां पर प्रदेश की आधी नगा-कुकी आदिवासी आबादी पहुंच भी नहीं सकती। केन्द्र सरकार के सुरक्षाबलों की बहुत बड़ी मौजूदगी से हिंसा स्थगित चल रही है, वह किसी भी तरह से खत्म नहीं हुई है, उसे बस बंदूकों की नोंक पर रोककर रखा गया है, लेकिन ऐसी जिंदगी में मणिपुर के लोगों का वक्त थम गया है। दोनों समुदायों के लोग एक-दूसरों के इलाकों में आ-जा नहीं सकते, और तो और, आदिवासी इलाकों के अस्पतालों से मैतेई डॉक्टरों को भी छोडक़र जाना पड़ गया है, दोनों तरफ के अफसर-कर्मचारी एक-दूसरे के इलाकों में काम नहीं कर सकते, दस हजार से अधिक स्कूली बच्चे मां-बाप के साथ सैकड़ों राहत शिविरों में बंटे हुए हैं, और वहां उनकी कोई पढ़ाई भी नहीं हो रही है। मणिपुर की जिंदगी के बाकी तमाम पहलू भी इन दो तबकों के बीच बंटे हुए, थमे हुए हैं, और एक प्रदेश के भीतर नौबत दो दुश्मन देशों की तरह की हो गई है। आठ महीने से अधिक का वक्त गुजर चुका है, और मणिपुर के इस आंतरिक टकराव का कोई राजनीतिक समाधान आसपास भी नहीं दिख रहा है। दिक्कत यह भी है कि मणिपुर की एक बड़ी लंबी सरहद पड़ोसी देश म्यांमार के साथ लगी हुई है जो कि चार सौ किलोमीटर लंबी है। म्यांमार चीन के प्रभाव वाली एक ऐसी फौजी तानाशाही बना हुआ है जो कि नशे की तस्करी के बड़े धंधे में शामिल है। इसलिए वहां से मणिपुर में बड़े पैमाने पर हथियार, हथियारबंद म्यांमारी लोग, और नशे की कमाई आने की खबरें भी बनी रहती हैं। एक फौजी-रणनीतिक महत्व के इस सरहदी प्रदेश में इतनी लंबी अशांति और हिंसा के अपने खतरे हैं, और भारत के साथ फौजी मुकाबले वाले चीन का इस नौबत से फायदा उठाना बड़ा स्वाभाविक लगता है। 

देश के सरहदी राज्यों को भुला देना एक आम और आसान बात दिखती है। और ऐसा सिर्फ देश की राजनीति में नहीं हो रहा है, प्रदेशों में भी जो हिस्से राजधानियों से सबसे दूर रहते हैं, वहां तक पहुंचते हुए शासन-प्रशासन बेअसर होने लगते हैं। ठीक उसी तरह की नौबत उत्तर-पूर्व के राज्यों को लेकर भारत सरकार की रहती है। कई बार तो ऐसा लगता है कि केन्द्र सरकार इन इलाकों को यह सोचकर भुला देती है। यहां की समस्याएं अपने आप सुलझ जाएंगी। जो भी हो, मणिपुर आज देश की बाकी बड़ी आबादी को सीधा खतरा न दिख रहा हो, यहां के लोगों के बुनियादी हक आज निलंबित हैं, और यह सिलसिला जल्द से जल्द खत्म होना चाहिए। जिस प्रदेश में वहां के सबसे बड़े हिस्से के विधायक भी राजधानी, और विधानसभा न पहुंच सकें, उसे उस राज्य के रहमोकरम पर छोड़ देना समझदारी नहीं है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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