संपादकीय
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भारत की संसदीय प्रणाली ब्रिटेन के मॉडल पर ढली हुई है, इसलिए भारतीय संसद या यहां की विधानसभाओं के जानकार लोगों को यह बात चौंका सकती है कि अभी ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण एक बिल संसद में पेश किया, तो उन्हीं की पार्टी के 29 सांसद गैरहाजिर थे। ऐसा नहीं कि वे इस बिल के खिलाफ थे, लेकिन वे कानून बनने जा रहे इस बिल के प्रावधानों को और कड़ा बनाना चाहते थे, और इसलिए उन्होंने वोट नहीं दिया। फिर भी वहां संसद के निचले सदन ने इसे बहुमत से पास कर दिया। रवांडा बिल नाम का यह विधेयक ब्रिटेन में दूसरे देशों से पहुंचने वाले लोगों को रोकने के लिए बनाया गया है क्योंकि देश अब शरणार्थियों और घुसपैठियों से थक गया सा लगता है। वहां के कुछ आंकड़े देखें, तो ब्रिटिश सरकार ने हर बरस एक लाख प्रवासियों को बसाने का वायदा किया था, लेकिन 2022 में ऐसे लोगों की संख्या 7 लाख 45 हजार पहुंच गई थी। ऐसे में ब्रिटेन ने एक अफ्रीकी देश रवांडा के साथ मिलकर यह योजना बनाई है कि ब्रिटेन रवांडा में ऐसे गैरकानूनी पहुंचने वालों को बसाएगा, और उसका खर्च खुद उठाएगा। अब इस योजना को लेकर खुद ब्रिटेन के भीतर कुछ लोग सरकार की इस सोच के खिलाफ हैं, वे इसको अमानवीय मानते हैं, और इसे ब्रिटेन का अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी से मुंह चुराना कहते हैं। दूसरी तरफ सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी इस पर प्रधानमंत्री के पेश किए गए रवांडा प्लान के मुकाबले अधिक कड़ा कानून चाहती है क्योंकि अवैध घुसपैठियों, और इजाजत पाकर आए शरणार्थियों से ब्रिटिश खजाने की कमर टूट रही है।
लोगों के याद होगा कि 2016 में जब ब्रिटेन में यूरोपियन यूनियन को छोडऩे के मुद्दे पर ब्रेक्जिट नाम का जनमतसंग्रह हुआ था, तब लोगों ने जिन वजहों से इस ऐतिहासिक गठबंधन को छोडऩा चाहा था, उसमें बाहर से आने वाले लोगों का मुद्दा एक सबसे बड़ा था। तब से लेकर अब तक ब्रिटेन में सरकार के सामने यह एक दुविधा बनी रही कि यूनियन छोड़ देने के बाद भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए ब्रिटेन की जवाबदेही खत्म नहीं हुई थी, और खुद उसके लोग देश के भीतर भी गरीब और हिंसा झेल रहे देशों से आ रहे मजबूर लोगों को रवांडा में शरणार्थी या राहत शिविरों जैसे इंतजाम में बसाने के खिलाफ हैं। ब्रिटेन में यह नया कानून लागू हो जाने के बाद भी इस पर चर्चा खत्म नहीं होगी, और खुद सत्तारूढ़ पार्टी अपने प्रधानमंत्री की इस पहल से संतुष्ट नहीं हैं, और इसमें और कड़ाई चाहती है।
हम दो पहलुओं से इस मुद्दे को हमारे पाठकों के बीच चर्चा के लायक पाते हैं, एक तो यह कि किसी देश की शरणार्थी नीति कैसी होनी चाहिए, क्योंकि खुद भारत म्यांमार और बांग्लादेश से कानूनी और गैरकानूनी तरीकों से आने वाले लोगों को लेकर एक चुनौती से गुजरता है, यह देश में आज बसे हुए लोगों की नागरिकता को पीढिय़ों पहले से साबित करने के कानून की बहस में भी उलझा हुआ है। दूसरी बात यह कि किसी संसदीय व्यवस्था में सत्तारूढ़ या कोई दूसरी पार्टी किस तरह अपने सदस्यों की असहमति को बर्दाश्त कर सकती है। हिन्दुस्तान में तो हम बात-बात में संसद या विधानसभाओं में पार्टियों के व्हिप देखते हैं जिनके मुताबिक अगर सदस्य सदन में मौजूद नहीं रहे, और उन्होंने पार्टी के फैसले के मुताबिक वोट नहीं दिया, तो उनकी सदस्यता खत्म हो सकती है। ऐसे में दूसरे कुछ अधिक विकसित लोकतंत्रों में यह देखना दिलचस्प रहता है कि आंतरिक असहमति से पार्टियां किस तरह जूझती हैं। हिन्दुस्तान की संसदीय व्यवस्था में यह कल्पना से परे है कि किसी पार्टी के इतने सदस्य अपनी ही सरकार से असहमत होकर किसी विधेयक पर मतदान के दौरान गैरहाजिर हों। कुछ लोगों को यह बात अटपटी लग सकती है कि हम ऐसी असहमति की वकालत कर रहे हैं जो कि भारत जैसे माहौल में किसी मुद्दे पर दाम पाकर भी खड़ी हो सकती है। आज भारत में संसदीय व्यवस्था की जो साख है, उसमें ऐसा भी हो सकता है कि किसी कारोबारी घराने के हाथों बिककर सांसद या विधायक किसी फैसले को प्रभावित करें। दूसरी तरफ पार्टियों को भी यह बात सहूलियत की लगती है कि सदन में मौजूदगी और पार्टी के फैसले के मुताबिक वोट देने का एक कानून रहे, ताकि जिस किस्म का भी सौदा-समझौता करना हो, उसे पार्टी खुद करे, और सांसदों को अलग-अलग अपनी ‘आत्मा’ बेचने की छूट न रहे। हम असहमति की गुंजाइश को खत्म करने को अलोकतांत्रिक भी पाते हैं कि वोटरों के फैसले से चुनकर आए सांसद या विधायक उनकी या अपनी पसंद से वोट नहीं डाल सकते, बल्कि अपनी पार्टी की गिरोहबंदी का एक पुर्जा बनकर रह जाते हैं। इससे किसी पार्टी के भीतर लोकतांत्रिक विचार-विमर्श की संभावना भी खत्म हो जाती है। इसलिए लोकतंत्र में दलबदल कानून के रास्ते, व्हिप (कोड़ा) चलाकर अपने सांसदों को जानवरों की तरह एक रास्ते पर, एक दिशा में हांकने का इंतजाम पूरी तरह लोकतांत्रिक नहीं लगता है।
फिर दूसरी तरफ ब्रिटेन, और योरप के दूसरे देशों की तरह इस मुद्दे पर सोचने की जरूरत भी है कि पड़ोस के देशों से, या दूर-दराज के देशों से भी आने वाले लोगों को अपनी जमीन पर किस तरह बर्दाश्त किया जा सकता है। अफ्रीका से लेकर सीरिया और इराक तक, पाकिस्तान और दूसरे कई देशों से आने वाले शरणार्थियों तक के लिए योरप-अमरीका जैसे विकसित इलाकों की नीति कैसी रहती है, उसे भी भारत जैसे देशों को देखना चाहिए, क्योंकि यहां पर पड़ोस के म्यांमार जैसे हिंसाग्रस्त देश से बहुत ही मजबूर शरणार्थी पहुंचते हैं, और उन्हें उनके धर्म के आधार पर रोक देने की एक मजबूत सरकारी सोच भारत में बनी हुई है। लोकतंत्र तंगदिली का नाम नहीं रहता है, और यह एक आक्रामक राष्ट्रवाद का शिकार होकर भी नहीं चल सकता है। लोकतंत्र अपने देश की सरहदों के पार भी लोकतांत्रिक बने रहने का नाम है, और सरहद पार के लोगों के लिए भी एक लोकतांत्रिक रूख बने रहना जरूरी रहता है। हम ब्रिटेन के इस ताजा मामले को लेकर भारत के बारे में इन दोनों ही पहलुओं से सोचते हैं कि अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों के प्रति भारत का रूख क्या रहना चाहिए, और भारत के भीतर संसदीय लोकतंत्र में पार्टी के भीतर की असहमति का क्या महत्व हो सकता है। दुनिया के लोकतंत्र एक-दूसरे से हमेशा ही कुछ न कुछ सीखते रहते हैं, और हो सकता है कि ब्रिटेन के इस रवांडा-प्लान और उस पर सत्तारूढ़ पार्टी के दर्जनों सदस्यों की संसदीय असहमति से भारत में भी सोच-विचार का सामान जुटे।