संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दलित छात्रों को सेप्टिक टैंक की सफाई की सजा, घटना नहीं राष्ट्रीय सोच है
19-Dec-2023 3:56 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  दलित छात्रों को सेप्टिक  टैंक की सफाई की सजा, घटना नहीं राष्ट्रीय सोच है

कर्नाटक के एक सरकारी हॉस्टल-स्कूल में दलित बच्चों को सजा देने के लिए प्रिंसिपल ने उनसे पखाने के सेप्टिक टैंक की सफाई करवाई। स्कूली बच्चे जब सेप्टिक टैंक के भीतर उतरकर उसकी सफाई कर रहे थे, तो उस वक्त के कुछ फोटो और वीडियो चारों तरफ फैले। सोशल मीडिया पर इनके आने के बाद सरकार की नींद खुली, और प्रिंसिपल और उसके मातहत कुछ शिक्षक-कर्मचारी निलंबित किए गए, और सरकार की तरफ से पुलिस में इसके खिलाफ एसटी-एससी कानून के तहत रिपोर्ट दर्ज कराई गई। कोलार जिले के मोरारजी देसाई आश्रम-स्कूल के इस मामले में हिन्दुस्तान में दलितों के खिलाफ भेदभाव, छुआछूत, और हिंसा को एक बार फिर बुरी तरह उजागर कर दिया है। भारत में सफाई कर्मचारी हर बरस सेप्टिक टैंक और गटर साफ करते हुए मारे जाते हैं, और पिछले पांच बरस में सवा तीन सौ से अधिक ऐसी मौतें हो चुकी हैं। जो लोग आरक्षण के खिलाफ हिंसक बातें करते हैं, कभी उनके मुंह से यह सुनाई नहीं पड़ता कि सफाई कर्मचारियों में भी गैरदलितों के लिए आरक्षण होना चाहिए। सच तो यह है कि शहरी संपन्न तबका पूरी तरह से इस भरोसे पर गंदगी करते चलता है कि सफाई करने को दलित तबका अनंतकाल तक मौजूद रहेगा। अब दलितों के बारे में गैरदलितों की यह सोच हिंसक होकर इस हद तक पहुंच गई कि एक सरकारी स्कूल-हॉस्टल के प्रिंसिपल ने दलित बच्चों को सेप्टिक टैंक की सफाई की सजा दी, जबकि ऐसी सफाई में मौतों की खबरें आती रहती हैं। 

हम किसी एक प्रदेश की एक स्कूल के प्रिंसिपल और शिक्षकों पर ही आज की इस पूरी बात को खत्म करना नहीं चाहते क्योंकि देश के कई प्रदेशों में इस तरह की हिंसा होती रहती है। आज कर्नाटक में जिस कांग्रेस पार्टी की सरकार है, उसी पार्टी की सरकार राजस्थान में थी, जब आजादी की 75वीं सालगिरह देश भर में मनाई जा रही थी, और एक शिक्षक ने एक दलित छात्र को पीट-पीटकर इसलिए मार डाला था कि उसने सवर्ण जाति के लिए अलग से रखी गई मटकी का पानी पी लिया था। शिक्षक ने उसे गालियां बकते हुए इतना पीटा था कि भीतरी चोटों से वह मर गया। तमिलनाडु में जहां पर कि दलित-हिमायती डीएमके सरकार है, वहां पर अभी सितंबर के महीने में ही एक दलित स्कूली बच्चे को तीन गैरदलित छात्रों ने इतना मारा कि वह टूटे हाथ-पैर सहित अस्पताल में पड़ा है, और उसकी बहन भी द हिन्दू अखबार में छपी इस तस्वीर में टूटे हाथ सहित अस्पताल के कमरे में एक कुर्सी पर दिख रही है। इस अखबार की खबर कहती है कि तमिलनाडु के ग्रामीण इलाकों में बहुत से छात्र-छात्राएं अपनी कलाई पर जाति सूचक धागे बांधते हैं। एक दलित-हिमायती शासन वाले राज्य में जाति सूचक ऐसे संगठनों की भरमार है जो कि अपने सवर्ण होने के अहंकार में डूबे रहते हैं। आजादी की सालगिरह वाले अगस्त महीने में ही तमिलनाडु में दलितों पर ऐसे तीन हमले हुए हैं। भाजपा के योगीराज वाले यूपी के अमेठी जिले में दस-दस बरस के दलित स्कूली बच्चों को दोपहर के भोजन की कतार में अलग खड़े रखने के लिए स्कूल प्रिंसिपल ने ही उन पर हिंसा की थी। यह एक सरकारी स्कूल का मामला था, और गैरदलित प्रिंसिपल दलित बच्चों को लगातार पीटती रहती है। यूपी में ही सितंबर 2022 में एक दलित बच्चे की हिज्जे की एक गलती पर एक टीचर ने उसे इतना पीटा था कि यह बच्चा इन चोटों से अस्पताल में मर गया। 

ऐसी घटनाओं को इंटरनेट पर बड़ी आसानी से एक पल में ढूंढा जा सकता है, और हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के इस अमृतकाल में देश में आज दलितों की जो हालत है उसे देखने के लिए मोबाइल-इंटरनेट वाले लोगों को ऐसी खबरों को पल भर में ढूंढ भी लेना चाहिए, और कुछ मिनट देश की इस हकीकत को जानने में लगाना भी चाहिए क्योंकि गैरदलितों के बीच इन मुद्दों की ऐसी कोई समझ नहीं है, न उनके कोई सरोकार हैं। संविधान में दलितों को जो आरक्षण मिला है, उससे परे उन्हें कानून से भी पूरी हिफाजत नहीं मिल पाती, क्योंकि उसे लागू करने वाले अफसर, जुर्म पर सजा देने वाली अदालतें, इन सबके भीतर एक बहुत गहरा दलित-विरोधी पूर्वाग्रह भरा हुआ है। दलित-आदिवासी आरक्षण को लेकर देश के अनारक्षित तबकों में अब तक सरकारी दामाद कहने का चलन रहा है। और तो और वे ओबीसी लोग भी इसी जुबान का इस्तेमाल करते थे, जो कि कुछ अरसे से ओबीसी आरक्षण पा रहे हैं, और आज जाति जनगणना के बाद संसद और विधानसभाओं में भी राजनीतिक आरक्षण पाने का भरोसा रख रहे हैं। 

हमारे पाठकों को याद होगा कि हमने अभी दो-चार दिन पहले ही हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों में आरक्षण लागू करने की वकालत की है, और ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि आरक्षित तबके के लोगों को, खासकर दलित-आदिवासियों को नालायक मानने की एक सवर्ण सोच खत्म हो। देश के संविधान निर्माताओं में एक दलित, डॉ.भीमराव अंबेडकर का नाम सबसे ऊपर है, जो कि दलित समाज के थे, लेकिन आज 140 करोड़ आबादी के इस शहर में सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि उसकी 32 कुर्सियों में से कुछ कुर्सियों पर आरक्षण के लायक भी दलित नहीं मिल पाएंगे। हमारा ख्याल है कि कर्नाटक के स्कूल में प्रिंसिपल ने दलित बच्चों को जो यह सजा दी है, वह ऐसे ही सवर्ण अहंकार से उपजी हुई सजा है। जब तक देश की बड़ी अदालतों में यह आरक्षण लागू नहीं होगा, तब तक स्कूली प्रिंसिपलों और टीचरों से दलितों के सम्मान की उम्मीद करना फिजूल बात होगी। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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