संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : उपराष्ट्रपति की मिमिक्री, बदमजा और अपमानजनक तो हो सकती है, जुर्म नहीं
20-Dec-2023 2:57 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : उपराष्ट्रपति की मिमिक्री, बदमजा और अपमानजनक तो हो सकती है, जुर्म नहीं

edit photo PTI

भारतीय संसद के दोनों सदनों में लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति दोनों की कड़ी कार्रवाई से विपक्ष का एक बड़ा हिस्सा सदन के बाहर हो गया है। दस से अधिक दिन हो गए हैं, और विपक्ष और सत्ता के चल रहे टकराव के बीच हालत यह है कि संसद विपक्षमुक्त होने की तरफ बढ़ रही है। 18 दिसंबर को एक दिन में 78 सांसदों को निलंबित किया गया। लगातार टकराव, और आसंदी द्वारा लगातार निलंबन और निष्कासन के चलते हुए विपक्ष अपने को प्रताडि़त महसूस कर रहा है, और उसे ऐसा लग रहा है कि अध्यक्ष और सभापति विपक्ष के खिलाफ आमादा हैं। हम अभी निलंबन सही या गलत होने पर जाना नहीं चाहते, क्योंकि जिस तरह थोक में संसद खाली करवाई जा रही है, उससे देश का संसदीय लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। यह पूरा सिलसिला अभूतपूर्व है। ऐसे में जब निलंबित सांसदों की भीड़ संसद परिसर में जुटी हुई थी, तो तृणमूल कांग्रेस के एक सांसद कल्याण बैनर्जी ने बाकी सांसदों के सामने उपराष्ट्रपति जो कि राज्यसभा के सभापति भी होते हैं, जगदीप धनखड़ के सदन चलाने के तरीके की नकल करना शुरू किया, और वहां मौजूद सभी पार्टियों के सांसदों ने उसका मजा लिया। राहुल गांधी अपने मोबाइल पर उसका वीडियो बनाते दिखे। सांसदों के इस बर्ताव पर प्रधानमंत्री सहित बहुत से सत्तारूढ़ नेताओं ने अफसोस जाहिर किया, और उपराष्ट्रपति ने इस घटना को शर्मनाक बताया है कि एक सांसद मजाक उड़ा रहा है, और दूसरा सांसद उसका वीडियो बना रहा है। धनखड़ ने कहा कि यह एक किसान और एक समुदाय का अपमान मात्र नहीं है, यह राज्यसभा के सभापति के पद का भी अपमान है। उन्होंने कहा कि यह सबसे गिरा हुआ स्तर है, और उन्हें इससे बहुत कष्ट हुआ है। उन्होंने इसे अपने जाट होने से भी जोड़ा, और सदन के बाहर कल ही किसी जाट संगठन ने इस पर सार्वजनिक आपत्ति भी की थी। एक दूसरी खबर बताती है कि दिल्ली के किसी वकील ने वहां थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई है कि यह उपराष्ट्रपति का अपमान है। अभी तक इस रिपोर्ट के बारे में और जानकारी तो नहीं मिली है, लेकिन पुलिस ने रिपोर्ट ले ली है। 

इस मामले के इतिहास को भी थोड़ा सा समझना जरूरी है कि जगदीप धनखड़ इससे पहले पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे, और वहां तृणमूल सरकार के साथ उनका नियमित और लगातार टकराव चलते ही रहता था। अभी तृणमूल सांसद ने निलंबन के बाद उनकी जो नकल की इसके पीछे धनखड़ के बंगाल राजभवन के कार्यकाल का टकराव भी रहा है। राज्यसभा में अलग-अलग पार्टियों के साथ उनका टकराव अलग-अलग मुद्दों पर चल रहा है, जो कि गंभीर संवैधानिक मुद्दे भी हैं। ऐसे में सदन से निलंबित सदस्यों के बीच उनकी मिमिक्री करके उनकी खिल्ली उड़ाना कितना बड़ा अपमान है, और कितना बड़ा जुर्म है इसकी साफ मिसालें अभी नहीं हैं, और पुलिस रिपोर्ट के बावजूद इस पर कोई कानून लागू होगा ऐसा लगता नहीं है। हालांकि दिल्ली पुलिस केन्द्र सरकार के मातहत काम करती है, और वह अगर कोई जुर्म दर्ज करके तृणमूल सांसद की गिरफ्तारी भी कर लेती है, तो भी उन्हें अपने आपको बेकसूर साबित करने में बरसों लग सकते हैं। इसलिए यह बात साफ है कि बहुत से दूसरे मामलों की तरह किसी भी राज्य या केन्द्र के मातहत काम करने वाली पुलिस के रिपोर्ट दर्ज कर लेने से उस काम के जुर्म होने का अधिक लेना-देना नहीं रहता। इसलिए हम कानूनी बारीकियों से परे अपनी सामान्य समझबूझ से इसकी चर्चा कर रहे हैं। 

लोकसभा, राज्यसभा, या राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों के कुछ विशेषाधिकार रहते हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह कि अदालती जजों को हम बात-बात पर अदालत की अवमानना मानकर किसी को कटघरे में खड़ा करते देखते हैं। हो सकता है कि संसद के विशेषाधिकार में यह आता हो कि सदनों के मुखिया, या कि किसी आम सदस्य भी, की अवमानना पर सदन की विशेषाधिकार कमेटी को मामला दिया जा सके। और ऐसी कमेटियां चूंकि सत्ता के बहुमत वाली होती हैं, इसलिए सत्ता के साफ रूख को देखते हुए उनके रुझान का अंदाज भी लगाया जा सकता है, जैसा कि लोकसभा से तृणमूल की ही सांसद महुआ मोइत्रा को आनन-फानन बर्खास्त करने के मामले में दिखा है। यह एक अलग बात है कि इसी संसद में एक मुस्लिम सांसद को नफरती और साम्प्रदायिक गंदी गालियां देने वाले भाजपा सांसद को अगली बार ऐसा न करने की चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। जबकि सदन के बाहर अगर ये गालियां दी गई होतीं, तो सुप्रीम कोर्ट के दर्जन भर बार के आदेशों के मुताबिक उस पर हेट-स्पीच का जुर्म दर्ज होता ही, और हमारा अंदाज है कि उस पर कैद भी हुई होती। लेकिन संसद के भीतर की हिंसक बात पर भी अदालती दखल नहीं हो सकता, और लोकसभा ने इसे अपने रूख और रुझान के मुताबिक नरमी से निपटा दिया, भाजपा सांसद को एक असाधारण रियायत मिली, जो कि देश के कानून के तहत संसद के बाहर नहीं मिल सकती थी। इसलिए आज अलग-अलग पार्टियों के सांसद कई वजहों को लेकर लोकसभा, राज्यसभा, और सरकार के रूख से बहुत ही हक्का-बक्का हैं, और ऐसे में बंगाल के एक राज्यसभा सदस्य ने राज्यसभा के उपसभापति की खिल्ली उड़ाई, और बाकी लोगों ने उसका मजा लिया। 

लोकतंत्र में कानून दो किस्म के हैं, एक संसद और विधानसभाओं के भीतर के लिए, और एक इन सदनों के बाहर के लिए। सदन के बाहर किसी की खिल्ली उड़ाने को हम लोगों का लोकतांत्रिक अधिकार मानते हैं। वह सही या गलत हो सकता है, उसकी तारीफ या निंदा की जा सकती है, लेकिन वह जुर्म नहीं होता। लोकतंत्र बहुत किस्म के व्यंग्य और हास्य की आजादी देता है। लेकिन जब सदन और अदालतें कुछ खास कानूनों हिफाजत में काम करती हैं, तो किसी जज या किसी संसद सदस्य की ऐसी खिल्ली उड़ाना, अदालत या सदन के भीतर एक अलग परेशान का सामान बन सकता है। अदालतों और सदनों के अवमानना और विशेषाधिकार भंग होने के ये अधिकार अपने आपमें अलोकतांत्रिक रहते हैं, लेकिन ये ताकतवर तबके के अपने आपको अधिक हिफाजत देने की मनमानी रहते हुए भी भारत जैसे लोकतंत्र में कानूनी हैं। अब आज तो देश का कानून ऐसा है कि सांसद की किसी भी बात को सदन के अध्यक्ष या सभापति अनदेखा कर सकते हैं, या किसी की भी किसी दूसरी बात को जुर्म ठहरा सकते हैं। संसदीय परंपरा में सदन के मुखिया को कल्याणकारी-तानाशाह (बेनेवलेंट-डिक्टेटर) कहा जाता है, जबकि ये दो शब्द अपने आपमें विरोधाभासी हैं। न कोई तानाशाह जनकल्याणकारी हो सकते, और न किसी जनकल्याणकारी व्यक्ति को तानाशाही की छूट दी जा सकती। अब आज के संसद के विशेषाधिकार के चलते तृणमूल सांसद की व्यंग्य की मिमिक्री पर संसद की विशेषाधिकार कमेटी, या सांसदों की आचार कमेटी जो चाहे वह सजा सुना सकती हैं, लेकिन लोकतंत्र की भावना व्यंग्य को छूट देती है, और वह तीखा, हमलावर, और अपमानजनक, या बदमजा होने के बावजूद लोकतांत्रिक ही कहलाता है। हमारा ख्याल है कि सभ्य और विकसित लोकतंत्रों के इतिहास में इस मिमिक्री को सजा के लायक ठहराना, न तो देश के आम कानून के तहत मुमकिन होगा, और न ही संसद के विशेषाधिकार से महफूज लोगों को इस पर सजा दिलवाना ठीक लगेगा। इतिहास ऐसी कार्रवाई को लोकतंत्र की परिपक्वता से परे ही दर्ज करेगा। लोकतंत्र का एक मतलब मखौल उड़ाने की आजादी भी होता है। सत्ता चाहे वह अदालत की हो, संसद की, या सरकार की, उसे लोगों के पीछे लगातार लाठी लेकर नहीं दौडऩा चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी किसी की खिल्ली उड़ाने की हद तक जा सकती है, और उस पर कार्रवाई लोकतंत्र का गौरव नहीं बढ़ाएगी।

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