संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : खडग़े ने धनखड़ को दिखाया सही आईना
21-Dec-2023 4:31 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : खडग़े ने धनखड़ को  दिखाया सही आईना

Photo : cartoonist kamal kishore

राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने सदन के बाहर तृणमूल कांग्रेस के लोकसभा सदस्य कल्याण बैनर्जी द्वारा की गई उनकी मिमिक्री (नकल का अभिनय) को जिस तरह अपनी जात से जोड़ लिया है, और इसे जाट समुदाय का अपमान बताया है, उस पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने आपत्ति की है। उन्होंने कहा है कि हर चीज को जाति से जोड़ लेना ठीक नहीं है। उन्होंने कहा कि उन्हें भी राज्यसभा में कई बार बोलने का मौका नहीं मिलता है तो क्या वे यह दावा करें कि संसद में दलितों को बोलने का अवसर नहीं दिया जाता? उन्होंने सभापति को सलाह दी है कि उन्हें सदन में जाति का मुद्दा उठाकर लोगों को नहीं भडक़ाना चाहिए। धनखड़ ने उनकी मिमिक्री को जाट समुदाय का अपमान करार दिया था, और किसानों का भी। पाठकों को याद होगा कि हमने कल ही इस बारे में लिखा, और यूट्यूब पर कहा है कि इसका जाति से क्या लेना-देना है? और मानो धनखड़ की बात को इशारा समझकर एक जाट संगठन ने अगले चुनाव में विपक्ष को सबक सिखाने का सार्वजनिक बयान भी जारी कर दिया है। 

हिन्दुस्तान में जाति की एक भूमिका तो रहती है, लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि जाति हर जगह हथियार की तरह इस्तेमाल नहीं होती है। जगदीप धनखड़ का परिचय देखें, तो वे राजस्थान के गांव में पैदा होकर सैनिक स्कूल में पढ़े, कानून की पढ़ाई की, राजस्थान हाईकोर्ट में वे सीनियर वकील रहे, और वे सुप्रीम कोर्ट में भी एक सीनियर वकील का दर्जा पाए हुए थे, और कई हाईकोर्ट में भी वे संवैधानिक मामलों में वकालत करते आए हैं, वे जनता दल और कांग्रेस के भी सदस्य रहे, लोकसभा का चुनाव जीतकर आए, विधायक भी रहे, और 2003 से भाजपा में हैं। वे 2019 से 2022 तक पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे, और वहां रहते हुए वे सार्वजनिक रूप से और सोशल मीडिया पर ममता सरकार से लगातार टकराते भी रहे। 2022 में वे उपराष्ट्रपति चुने गए, और उसी नाते वे राज्यसभा के सभापति भी हैं। अब जिन्हें अलग-अलग वक्त पर अलग-अलग राजनीतिक दलों ने इतना महत्व दिया, और जो खुद अपनी पढ़ाई और अपनी वकालत की वजह से सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे हुए हैं, उन्हें एक मिमिक्री को अपनी जात पर नहीं ले लेना  था। उन्होंने दर्जनों सांसदों को निलंबित किया है, और लोकसभा से भी ऐसे ही निलंबित सांसद बाहर प्रदर्शन कर रहे थे, जिसमें धनखड़ के सदन-संचालन की नकल की गई। किसी ने भी उनकी जाति का कोई जिक्र नहीं किया, और इतने ऊंचे ओहदे पर पहुंचने के बाद उन्हें खुद भी अपनी जाति को ढाल की तरह इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था। वैसे भी भारत के संदर्भ में देखा जाए तो जाट एसटी-एससी जैसे किसी सामाजिक उपेक्षा और शोषण की शिकार जाति नहीं है। जाट एक मजबूत बिरादरी है, और यह संपन्न तबका भी है। जाटों को लेकर किसी तरह की सामाजिक हिकारत कहीं नहीं रहती, इसलिए धनखड़ का जाति को जगाना एक किस्म की राजनीति है, जिससे राज्यसभा की कुर्सी पर बैठे हुए व्यक्ति को, उपराष्ट्रपति को बचना चाहिए था। 

यह संपादकीय लिखने वाले संपादक को अच्छी तरह याद है कि जब दो दशक पहले, भारतीय क्रिकेट टीम के खिलाड़ी मोहम्मद अजहरुद्दीन के बारे में दक्षिण अफ्रीकी टीम के कप्तान ने यह बयान दिया था कि अजहर ने उन्हें सट्टेबाजों से मैच फिक्सिंग के लिए मिलवाया था, इसके बाद इस मामले की सीबीआई जांच हुई थी, और अजहर को इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल और बीसीसीआई ने जिंदगी भर के लिए प्रतिबंधित कर दिया था। यह एक अलग बात है कि 2012 में आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया था। अजहर ने प्रतिबंध के खिलाफ एक बयान में यह कहा था कि वे मुस्लिम हैं इसलिए उनके साथ यह भेदभाव किया जा रहा है। उस वक्त इस संपादक के साप्ताहिक कॉलम (आजकल) में इस मुद्दे पर लिखते हुए यह अफसोस जाहिर किया गया था कि जिस देश ने अजहर को राष्ट्रीय टीम का कप्तान बनाया था, और जिसने 47 टेस्ट मैच और 174 वनडे इंटरनेशनल में टीम की अगुवाई की थी, 14 टेस्ट और 90 वनडे में टीम को जीत दिलाई थी, उसे इतना महत्व मिलने के बाद मैच फिक्सिंग के आरोप पर मुस्लिम होने की आड़ नहीं लेनी थी। उस वक्त इस संपादक ने कॉलम में लिखा था कि देश से इतना सब पाने के बाद जब अजहर पर एक आरोप साबित हुआ, तो उसने पतलून उतार दी। 

लोगों को अपनी जाति का इस्तेमाल सोच-समझकर, और न्यायसंगत, तर्कसंगत तरीके से ही करना चाहिए। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि सार्वजनिक जीवन में जाति का महत्व नहीं रहता, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि जाति के आधार पर अगर शोषण नहीं होता है, हमला नहीं होता है, तो उसे नाजायज तरीके से ढाल बनाना सबको समझ भी आ जाता है। अभी धनखड़ ने कुछ वैसा ही किया है। दूसरी एक बात और निराश करती है कि जब देश की संसद में दर्जनों जलते-सुलगते जनहित के मुद्दे उठ रहे हैं, विपक्ष और सत्ता के बीच टकराव चल रहा है, सत्ता अपने अंधाधुंध बाहुबल के साथ विपक्ष को कुचलकर धर दे रही है, प्रस्तावित कानूनों पर चर्चा भी नहीं हो पा रही है, तब राज्यसभा का सभापति अपना मजाक उड़ाने को ही तीन दिन से देश का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा मान बैठे, तो यह आत्ममुग्धता की एक बड़ी मिसाल है। जब दमकलकर्मी आग बुझाने कहीं जाते हैं, तो बचाव मेें लगे किसी व्यक्ति का पांव अपने पांव पर पड़ जाने को अपनी जाति से जोडक़र नहीं देखते। उपराष्ट्रपति और राज्यसभा सभापति का यह बर्ताव उनके पद की गरिमा के अनुकूल नहीं है, और उन्हें अपने आपको देश से अधिक महत्वपूर्ण साबित करने से बचना चाहिए था, अपनी जाति को ढाल बनाने से बचना चाहिए था, क्योंकि देश में जाटों को लेकर किसी तरह का जाति भेदभाव है भी नहीं। राजनीति में यह सिलसिला बहुत घटिया रहता है जब लोग दूसरों पर हमला करने के लिए उनकी किसी भी बात को अपनी जाति पर हमला करार देने लगते हैं। लोकतंत्र के सार्वजनिक बयानों के इतिहास में ऐसे खोखले काम अलग से दर्ज होते हैं, हो सकता है कि कुछ बरस के शासन काल में सत्ता पर काबिज लोगों के खिलाफ अधिक न लिखा जाए, लेकिन जब कभी राजनीति या किसी दूसरे सार्वजनिक जीवन के व्यक्ति का पूरा मूल्यांकन होता है, तो कहे और लिखे गए एक-एक शब्द कटघरे में खड़े रहते हैं। 

हमारा मानना है कि मल्लिकार्जुन खडग़े ने धनखड़ को सही आईना दिखाया है। उन्होंने धनखड़ को यह भी कहा है कि अगर उनकी मिमिक्री सदन के बाहर हुई है तो सदन में प्रस्ताव क्यों लाया जा रहा है? उनकी बात इस हिसाब से भी सही है कि मिमिक्री करने वाले सांसद लोकसभा के निलंबित सदस्य हैं, और उसकी वीडियो रिकॉर्डिंग करने के लिए जिस राहुल गांधी को घेरा जा रहा है, वे भी लोकसभा के सदस्य हैं। क्या यह मुद्दा संसद में पेश किए जा रहे कानूनों के मुकाबले अधिक अहमियत का हो गया है? और धनखड़ के बयान को देखें तो हैरानी होती है कि वे अपने सम्मान की रक्षा के लिए किसी भी आहुति देने के लिए तैयार होने जैसी बातें कह रहे हैं। देश से अपने आपको अधिक महत्वपूर्ण समझना, और साबित करना देश के किसी भी इंसान को उसके अपने व्यक्तित्व से छोटा ही साबित करता है। खडग़े ने उन्हें इस मुद्दे पर जाति को न भडक़ाने की जो सलाह दी है, वह भी एकदम सही है। लोकतंत्र में संसदीय परंपराएं ओछी नहीं, गरिमामय होनी चाहिए, और जो व्यक्ति जितनी ऊंची कुर्सी पर पहुंचे, उसे उतना ही अधिक विनम्र और न्यायप्रिय भी होना चाहिए। किसी को भी अपने सम्मान को इतना नाजुक नहीं मान लेना चाहिए कि वह एक मजाक से जख्मी हो जाएगा। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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