संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : थोक में होती हत्याओं को रोकने बंदूकें काफी नहीं..
22-Dec-2023 4:43 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : थोक में होती हत्याओं को रोकने बंदूकें काफी नहीं..

फोटो : सोशल मीडिया

चेक गणराज्य की राजधानी प्राग में एक विश्वविद्यालय में वहीं के एक छात्र ने किसी किस्म की बंदूक से गोलियां चलाईं जिसमें 15 लोगों की मारे जाने की खबर है, और दो दर्जन के करीब लोग जख्मी हुए हैं। वहां से आई इस सरकारी खबर के मुताबिक इसके पीछे कोई अंतरराष्ट्रीय उग्रवादी हाथ नहीं है, और विदेश में हुए इसी किस्म के किसी जनसंहार से प्रभावित होकर इस छात्र ने ऐसा किया है। चेक गणराज्य में ऐसी घटनाएं आम नहीं हैं, और इस हमले के पहले इस संदिग्ध हमलावर के पिता का भी शव मिला था, जिससे ऐसा लगता है कि उसकी हिंसा की शुरूआत परिवार से हुई। जो भी हो, यह वारदात दो बातों को साफ करती है, पहली तो यह कि थोक में मारने की ताकत रखने वाले हथियारों की आसान उपलब्धता, और बड़ी संख्या में मौजूदगी से ऐसे खतरे बने ही रहेंगे। दूसरी बात यह कि किसी दूसरे देश के किसी हमले से दुनिया में दूसरी जगहों पर भी लोगों को ऐसी हिंसा की प्रेरणा मिल सकती है, मिलती है। 

इस किस्म की सामूहिक हत्याओं की सबसे अधिक खबरें अमरीका से आती हैं जहां पर लोग नस्लीय नफरत से परे भी सिर्फ अपनी भड़ास निकालने को इस तरह लोगों को थोक में मार डालते हैं। खुद अमरीका का एक बड़ा तबका इस किस्म की हिंसा को लेकर परेशान है, और लगातार यह कोशिश कर रहा है कि किसी तरह अमरीकियों की दिमाग पर से हथियारों की दीवानगी घटाई जाए, ताकि बच्चे-बच्चे के हाथ अनगिनत हथियारों तक न पहुंच सकें। लेकिन वहां की एक सबसे बड़ी पार्टी, ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी हथियारों के कारोबार और शौक को बढ़ावा देते चलती है, और हथियार किसी तरह कम हो नहीें रहे हैं। दूसरी तरफ पूरी दुनिया में अमरीका की खबरें सबसे तेजी से पहुंचती हैं, और ऐसी हिंसा की मिसालें दूसरी जगहों पर भी किसी तनाव या नफरत से गुजरते हुए दिमागों को वैसा ही करने का हौसला देती होंगी, और रास्ता दिखाती होंगी। 

दुनिया के बाकी देशों को भी यह याद रखना चाहिए कि किसी भी तरह की नफरत और हिंसा की मिसालें बाकी दुनिया को भी प्रभावित करती हैं। और आज तो दुनिया के अधिकतर देशों में अधिकतर धर्मों और नस्लों के लोग मौजूद हैं, और कब, कौन, कहां का बदला कहां निकालने लगे, इसका कोई ठिकाना तो है नहीं। लोगों को याद रखना चाहिए कि जब वे अपने देश में किसी नस्ल या धर्म के लोगों के खिलाफ नफरत और हिंसा खड़ी करते हैं, तो उसकी प्रतिक्रिया दुनिया के किसी दूसरे देश में, हमलावर नस्ल या धर्म के लोगों के खिलाफ हो सकती है। यह भी हो सकता है कि ऐसी प्रतिक्रिया किसी बड़ी हिंसा की शक्ल में सामने न आए, बल्कि सामाजिक नफरत की शक्ल में निकले। आज भी पश्चिम के बहुत से देशों में इस्लाम और मुस्लिमों के खिलाफ कुछ तबकों में एक सोच है, और ऐसी सोच इन देशों में मुस्लिम शरणार्थियों के खिलाफ माहौल खड़ा करती है, और इस्लामिक रीति-रिवाजों की साख खराब करती है। भारत जैसे दूसरे देशों को भी यह समझने की जरूरत है कि भारत के जातिवाद के खिलाफ अमरीका जैसे देश में कई शहरों की स्थानीय सरकारें नियम बना रही हैं, और भारत में मुस्लिमों के खिलाफ जितने किस्म की कार्रवाई चलती है, उसकी प्रतिक्रिया मुस्लिम देशों में भारत के लोगों के खिलाफ होती है। यह एक अलग बात है कि बड़ी हिंसक घटना के बिना ऐसी प्रतिक्रिया खबरों में नहीं आती हैं, लेकिन जो लोग वहां काम करते हैं, कारोबार करते हैं, उन्हें भेदभाव झेलना पड़ता है। 

यह भी समझने की जरूरत है कि हिंसा से प्रभावित होकर कोई अकेले व्यक्ति भी बड़े पैमाने पर हिंसा कर सकते हैं जैसा कि कल चेक गणराज्य की राजधानी प्राग में सामने आया है। दुनिया को हिंसक मिसालों से भी बचने की जरूरत है क्योंकि जब किसी व्यक्ति में कोई हत्यारी सोच आ जाती है, तो उनके नुकसान करने की ताकत कई गुना बढ़ जाती है। आज हिंसा को बढ़ाने वाले वीडियो गेम भी इतने लोकप्रिय हो गए हैं कि बच्चे भी उन्हें खेलते हुए हत्या या आत्महत्या के बारे में सोचने लगे हैं, और ऐसे हिंसक खेलों से प्रभावित हिंसा की बहुत सी घटनाएं सामने आई हैं। हॉलीवुड की फिल्में हथियारों की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए लंबे समय से बदनाम हैं, और फिल्मों से परे टीवी के कार्यक्रमों से लेकर चुनौतियां देने वाले वीडियो गेम तक हिंसा को बढ़ाते चल रहे हैं। इन सबसे प्रभावित लोगों की सोच को जब दुनिया की किसी एक जगह पर थोक में कत्ल करने की मिसालें मिलती हैं, तो वह पेट्रोल को आग मिल जाने सरीखा होता है। खुद अमरीका के भीतर हर कुछ दिनों में कहीं न कहीं बेकसूरों पर गोलीबारी होती है, और इनमें से बहुत सी घटनाएं नस्लीय-हिंसा से भी प्रभावित होती हैं। 

दुनिया को अगर रंग, धर्म, जाति, नस्ल, और राष्ट्रीयता की नफरत से बचाना है, तो आज उसे किसी एक देश की सरहद के भीतर कैद करके नहीं बचाया जा सकता। भूमंडलीयकरण एक हकीकत है, और हर देश में बहुत से किस्म के लोग मौजूद हैं। ऐसे में अपनी-अपनी किस्मों के भीतर लोगों को कट्टरता घटानी होगी, तभी उनके खिलाफ बाकी दुनिया में नफरत घट सकेगी। लोग कट्टर बने रहें, और उनके खिलाफ दुनिया में कोई प्रतिक्रिया न हो, ऐसा नहीं हो सकता। इसलिए जो लोग खुद को, अपने परिवार और समाज को सुरक्षित रखना चाहते हैं, उन्हें अपने इलाकों में अपनी कट्टरता को घटाना होगा, और दूसरों के साथ हिंसा को खत्म भी करना होगा। ऐसा न करने पर हो सकता है कि कई धर्मान्ध और साम्प्रदायिक, नस्लीय हिंसा करने वाले लोग खुद तो अपने इलाकों में महफूज बैठे रहें, लेकिन उनके समाज के लोग दूसरे देशों में हिंसा के शिकार हों। पश्चिम के बहुत से देशों में धार्मिक शिनाख्त की बिना पर कई लोगों पर हमले होते हैं, क्योंकि उनके जैसी शिनाख्त वाले लोग दुनिया में किसी और जगह पर कट्टरता फैलाते बदनाम रहते हैं। इसलिए आज कोई भी व्यक्ति तभी सुरक्षित हो सकते हैं, जब सब लोग सुरक्षित हों। अमरीका जैसे दुनिया के सबसे हथियारबंद देश में भी लोगों के हथियार धरे रह जाते हैं जब एक स्कूल, एक मॉल, या एक यूनिवर्सिटी में एक अकेला बंदूकबाज जाकर दर्जनों लोगों को मार डालता है। इससे यही साबित होता है कि हथियारों की अधिक मौजूदगी हिफाजत की गारंटी नहीं होती। दूसरी तरफ लोगों का किसी भी किस्म के तनाव से, किसी भी तरह की नफरत से मुक्त होना, अहिंसक होना, सहनशील होना, लोकतांत्रिक होना ही सुरक्षा का सामान हो सकता है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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