संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में दी जाती पुरूष-हिंसा
23-Dec-2023 3:31 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत  में दी जाती पुरूष-हिंसा

दिल्ली से लगे यूपी के नोएडा की खबर है कि देश के एक चर्चित मोटिवेशनल स्पीकर विवेक बिन्द्रा के खिलाफ पत्नी से मारपीट की पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराई गई है। यह शादी इसी 6 दिसंबर को होना बताया गया है, और पत्नी के भाई का कहना है कि उनकी बहन से इस बुरी तरह मारपीट की गई है कि एक कान का पर्दा फट गया, और बदन पर पिटाई के निशान हैं, उसका इलाज एक अस्पताल में चल रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि शादी के अगले ही दिन विवेक बिन्द्रा अपनी मां से बहस कर रहे थे, और बीच-बचाव करने के लिए नवविवाहिता पत्नी ने बीच-बचाव की कोशिश की, उस पर बहुत बुरी तरह पिटाई की गई। पुलिस को एक वीडियो भी दिया गया जिसमें विवेक बिन्द्रा अपनी रिहायशी सोसायटी के मेनगेट पर पत्नी से जबर्दस्ती कर रहे हैं। अब जिस व्यक्ति को बहुत बड़ा मोटिवेशनल स्पीकर कहा जाता है, उसका यह हाल है कि शादी के दस दिन के भीतर ही पत्नी पर हिंसा का यह मामला दर्ज हुआ है। दूसरों को जिंदगी जीने के और कामयाबी के तरीके सिखाने का दावा करने वाले आदमी ने यह कैसी मिसाल पेश की है? 

आज ही सुबह इस खबर को देखे बिना यह संपादकीय लिख रहे संपादक ने फेसबुक पर कुछ बातें लिखी थीं कि ऐसे परिवार जो कि बेटे और बेटी में फर्क करते हैं, वे एक को हिंसक बनने के लिए, और दूसरे को हिंसा का शिकार बनने के लिए तैयार करते हैं। यह भी लिखा था कि बेटे सबसे तेजी से सीखते हैं, अपनी मां-बहन से घर पर होती हिंसा से, फिर वे अपनी बीवी-बेटी तक वही ले जाते हैं। एक और बात लिखी थी कि जाति का अहंकार दूसरी जातियों पर ही नहीं उतरता, अपने घर की महिलाओं और लड़कियों पर भी उतरता है। अब अनजाने में लिखी गई इन बातों को आज अगर इस तथाकथित मोटिवेशनल स्पीकर विवेक बिन्द्रा से जोडक़र देखें, तो वह शादी के अगले ही दिन बीवी को इस तरह पीट रहा है, और इसकी वजह मां से की जा रही बदसलूकी में बीवी का बीच-बचाव करना है। यानी यह आदमी मां से भी बदसलूकी कर रहा था, और बीवी से भी! यह कुछ उसी किस्म की बात है जैसी कि इस संपादक ने सुबह फेसबुक पर लिखी थी। 

भारत में जिन जातियों को अपने बेहतर होने का घमंड रहता है, उसके लोग न सिर्फ बाहर की दुनिया में दूसरी जातियों से बदसलूकी करते हैं, बल्कि वे घर के भीतर भी लड़कियों और महिलाओं को मर्दों से नीचा मानते हैं, और उनके साथ हिंसा करते हैं। जाति व्यवस्था और धर्म व्यवस्था मिलकर ऐसा माहौल बनाते हैं कि महिलाएं नीचे दर्जे वाली हैं, और उनके साथ हिंसा एक जायज बात है। यह मनुस्मृति से लेकर दूसरे कई धर्मों तक की सोच है, और धीरे-धीरे धार्मिक कहानियों से शुरू होकर लोगों की सोच में यह हिंसा आने लगती है। मर्दों को लगने लगता है कि वे बेहतर इंसान होते हैं, और औरतें गुलामी के लायक होती हैं। यही सोच परिवार के भीतर पिछली पीढ़ी, अपनी पीढ़ी, और अगली पीढ़ी, सबकी महिलाओं और लड़कियों से हिंसा का माहौल खड़ा करती हैं। जिस परिवार में एक पुरूष लड़कियों और महिलाओं से हिंसा करता है, उसकी अगली पीढ़ी के पुरूष भी ऐसे ही खतरनाक होने की गुंजाइश रखते हैं। दुनिया भर में शोहरत पाने वाला मोटिवेशनल स्पीकर या तो खुद परिवार की किसी ऐसी मिसाल से प्रभवित है, या कम से कम वह आसपास के और लोगों को धीरे-धीरे ऐसी ही हिंसा की प्रेरणा देते रहेगा। 

कुछ लोगों का यह भी मानना है कि बाप-भाई की हिंसा से प्रभावित परिवार की लड़कियां और महिलाएं भी अपनी अगली पीढ़ी की बेटी-बहू के साथ हो रही हिंसा को प्राकृतिक, स्वाभाविक, और जायज मानने लगती हैं, और परिवार के पुरूषों की ऐसी हिंसा में साथ भी देने लगती हैं। इन दिनों तो दहेज-हत्याएं कड़े कानून की वजह से कम हुई हैं, वरना परिवार में महिला के रहते हुए बाहर से आई बहू की हत्या हो जाए, और उसकी सास-ननद-जेठानी की उसमें सहमति न हो, ऐसा हो नहीं सकता। जबरिया गर्भपात से लेकर गुलाम सरीखी जिंदगी देने में परिवार की महिलाएं भी पुरूषों के साथ हो जाती हैं क्योंकि उन्होंने भी अपने वक्त पर ऐसे जुल्म सहे हुए रहते हैं, और शायद उन्हें उनका बदला निकालने के लिए भी ऐसा जायज लगता है। इस तरह परिवार के भीतर का हिंसक माहौल अगली कई पीढिय़ों को प्रभावित कर सकता है, और ऐसी हिंसक सोच से उबरने के लिए अगली पीढ़ी को एक सचमुच की सामाजिक न्याय की सोच की जरूरत रहती है, जो कि भारत जैसे समाज में बहुत आसान भी नहीं रहती।

औरत और मर्द के हकों में फर्क करने वाली लैंगिक-असमानता से उबरना न तो सिर्फ कानून के बस का रहता है, और न ही समाज अकेले इसे कर सकता है। इन दोनों की साथ-साथ जरूरत रहती है। भारत की ही मिसाल को लें, तो यहां पर सतीप्रथा से लेकर बालविवाह तक को खत्म करने के लिए, देवदासीप्रथा को खत्म करने के लिए कानून की भी जरूरत पड़ी, और सामाजिक आंदोलन की भी। कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए भी इन दोनों की साथ-साथ जरूरत पड़ी। इन सबके लिए महिलाओं की पढ़ाई-लिखाई और आर्थिक आत्मनिर्भरता की जरूरत पड़ी जो कि एक दीर्घकालीन सामाजिक सुधार की बात रही। लेकिन धीरे-धीरे जैसे-जैसे महिलाएं आत्मनिर्भर हो रही हैं, वे हिंसा का प्रतिकार भी करने लगी हैं, और उससे उबरना भी जानती हैं। पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ शहरीकरण ने भी नौबत सुधारने का काम किया है, और संयुक्त परिवार टूटने से भी महिलाओं को बेहतर हक मिल पाए हैं। संयुक्त परिवारों में जो सबसे पुरानी पीढ़ी रहती है, उसके दकियानूसी खयालों से उबर पाना परिवार की किसी भी पीढ़ी के बस का नहीं रह जाता। इसलिए परिवार के भीतर पुरूषवादी हिंसक सोच को खत्म करने के जो-जो तरीके हो सकते हैं, उन सबके बारे में कोशिश करने की जरूरत है। इसमें धर्म और जाति, इन दोनों के बेइंसाफ ढांचों में औरत को गुलाम की तरह माना गया है, और धर्म और जाति की कट्टरता से लैस लोग परिवार के भीतर भी औरत को गुलाम बनाकर चलने की सोच रखते हैं। इसलिए धर्म और जाति के ढांचों के रहते हुए भी उनके भीतर से लैंगिक-हिंसा खत्म करने की जरूरत है। दुनिया के अलग-अलग देशों, धर्मों, और संस्कृतियों में महिलाओं के सामने चुनौतियां अलग-अलग हैं। हिन्दुस्तान एक बहुत बड़ा मुल्क है, और यहां की अलग किस्म की सामाजिक बेइंसाफी से निपटने के तरीके अपने आपमें बहुत अलग-अलग किस्म के रहेंगे। देश के कई महिला-अधिकार संगठन इस तरफ काम कर रहे हैं, लेकिन उनकी रफ्तार और क्षमता दोनों ही जरूरत के मुकाबले बहुत कम है। कानून, उस पर अमल, अदालती निपटारे, और समाज सुधार, इन सब मोर्चों पर कोशिश करने के साथ-साथ महिला की आर्थिक आत्मनिर्भरता पर सबसे अधिक जोर देना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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