संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : संवेदनशील भाषा तो ठीक, लेकिन चुनाव आयोग का गठन क्या ठीक है?
25-Dec-2023 5:38 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  संवेदनशील भाषा तो ठीक,  लेकिन चुनाव आयोग का गठन क्या ठीक है?

चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों से कहा है कि वे शारीरिक और मानसिक दिक्कतें झेल रहे लोगों के साथ रहम बरतें। आयोग ने भाषणों और बयानों में ऐसे लोगों के बारे में उनकी विकलांगता को गिनाने वाले शब्द इस्तेमाल न करने को कहा है। ऐसे शब्दों की एक लिस्ट भी आयोग ने गिनाई है जिनमें गूंगा, बहरा, अंधा, काना, लंगड़ा, लूला, अपाहिज, पागल, सिरफिरा जैसे बहुत से शब्द बताए गए हैं, और कहा गया है कि चुनाव प्रचार में इनका इस्तेमाल चुनाव कानून के खिलाफ होगा, और ऐसा करने पर दिव्यांगजन अधिकार कानून-2016 के तहत पांच साल की कैद हो सकती है। देश में राजनीतिक दल और नेता लापरवाह जुबान इस्तेमाल करने के लिए जाने जाते हैं, और ऐसे में शारीरिक-मानसिक विकलांगता के अलावा महिलाओं के बारे में भी बहुत अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल एक आम बात है। हमारा ख्याल है कि चुनाव आयोग को किसी कानून के तहत महिलाओं के अपमान पर भी चेतावनी जारी करनी चाहिए जो कि राजनीति और सार्वजनिक जीवन में मर्दों की सोच से उपजी रहती है। 

लेकिन भारत के सुप्रीम कोर्ट के बार-बार के तल्ख हुक्म के बाद भी चुनावों में नफरती बातों का कोई अंत नहीं दिख रहा है, और बहुत साम्प्रदायिक और नफरती बातों का इस्तेमाल बड़ा आम है। चुनाव आयोग इस बात को अच्छी तरह देख रहा है कि चुनाव या उससे परे किसी भी वक्त, किसी भी जगह नफरती बातों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट कितना कड़ा है, लेकिन चुनाव आयोग ऐसे बयानों और भाषणों पर कोई कार्रवाई करते नहीं दिखता है। नतीजा यह है कि हर चुनाव में नफरत कुछ बढ़ा दी जाती है, क्योंकि नफरत के पिछले बयान अब लोगों का ध्यान उतना नहीं खींचते हैं, लोगों की वाहवाही पाने के लिए कुछ अधिक की जरूरत पड़ती है। यह तो ठीक है कि चुनाव आयोग ने विकलांगों या दिव्यांगजनों के बारे में यह संवेदनशील आदेश निकाला है, और इस देश में सैकड़ों बरस से भाषाओं और बोलियों में इन लोगों के बारे में हिकारत एक आम बात रहते आई है। लेकिन इससे परे देश में साम्प्रदायिक नफरत, धार्मिक उन्माद, और कट्टरता के खतरे बहुत अधिक हैं, और उनके बारे में चुनाव आयोग तकरीबन चुप्पी साधे रखता है। बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमें चुनाव आयोग की सीधी-सीधी दखल की उम्मीद रहती है, लेकिन आयोग शिकायत मिलने पर भी उसकी अनदेखी ही करते रहता है। 

हम राजनीति और चुनाव की भाषा से परे अगर देखें, तो चुनाव आयोग अब महज ईवीएम के रास्ते चुनाव करवाने की विकसित हो चुकी एक तकनीक पर चलते जा रहा है, लेकिन उसने चुनावों को प्रभावित करने वाले दूसरे नाजायज तरीकों को रोकने के लिए कुछ नहीं किया है। आज हर तरफ चुनाव में कालेधन का अंधाधुंध इस्तेमाल के खिलाफ आयोग पूरी तरह बेअसर दिखता है। अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव हुए उनमें अकेले तेलंगाना में ही सात सौ करोड़ रूपए नगद जब्त हुए। किसी राजनीतिक दल और नेता ने इस पर दावा नहीं किया। पांच राज्यों में कुल मिलाकर 1760 करोड़ रूपए की नगदी जब्त हुई थी, जिसे कि 2018 के विधानसभा चुनावों के बाद के इन पांच बरसों में सात गुना बताया गया है। इस जब्ती में कुछ हिस्सा शराब और दूसरे नशे के सामानों का भी था जो कि नगदी के मुकाबले कम खतरनाक नहीं थे। एक तरफ तो चुनाव आयोग के अधिकार अंधाधुंध हैं, और वे राज्यों के पुलिस और प्रशासन को भी अपनी मर्जी से बदल सकते हैं। दूसरी तरफ जो नगदी पकड़ा रही है उससे दर्जनों या सैकड़ों गुना अधिक नगदी चुनाव में इस्तेमाल होती है, ऐसा आम जानकारी से पता लगता है। ऐसे में पैसों का इतना बड़ा इस्तेमाल चुनावी नतीजों को किस हद तक प्रभावित करता होगा यह अंदाज लगाना बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए। 

शारीरिक-मानसिक विकलांगता को लेकर चुनाव आयोग की पहल ठीक है, लेकिन वह देश में चुनावों में होने वाली नाजायज बातों का एक बहुत छोटा सा हिस्सा है। आयोग को अधिक असरदार होना चाहिए जैसा कि एक वक्त के मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषन ने साबित किया था। यह एक अलग बात है कि अब चुनाव आयुक्त नियुक्त करने की प्रक्रिया से सुप्रीम कोर्ट जजों को जिस तरह अलग किया गया है, और अब प्रधानमंत्री और उनके मनोनीत मंत्री ही चुनाव आयुक्त नियुक्त करेंगे। इसके लिए अभी संसद में एक विधेयक लाया गया है जो कि राज्यसभा में पास हो गया है, और लोकसभा में पास होना शायद बाकी है। सरकार का यह विधेयक सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले की रोशनी में आया है जिसमें इसी बरस मार्च में अदालत में कहा था कि चुनाव आयुक्त नियुक्त करने के बारे में संसद ने पिछले 73 बरसों में कोई कानून नहीं बनाया है, और इसलिए इस पर एक स्पष्ट कानून होना चाहिए। इसके पहले देश में चुनाव सुधार के लिए तैयार कुछ रिपोर्ट में यह सुझाया गया था कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री, देश के मुख्य न्यायाधीश, और लोकसभा के सबसे बड़े दल के मुखिया की एक कमेटी करे। सुप्रीम कोर्ट में भी ऐसी ही सिफारिश की वकालत की थी, और कहा था कि जब तक संसद कोई कानून नहीं बनाती है तब तक ऐसी कमेटी चुनाव आयुक्त बनाए। अब नया कानून जो तरीका लागू करने जा रहा है उसके मुताबिक प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता, और एक केन्द्रीय मंत्री मिलकर चुनाव आयुक्त नियुक्त करेंगे, और इस कमेटी से देश के मुख्य न्यायाधीश को बाहर कर दिया गया है। मतलब यह कि कमेटी के तीन सदस्यों में खुद प्रधानमंत्री और उनके मनोनीत मंत्री का हमेशा ही एक बहुमत रहेगा, और प्रधानमंत्री की मर्जी से परे इसमें कुछ नहीं हो सकेगा। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में अपना रूख साफ किया था। 

दिव्यांगजनों या विकलांगों के बारे में चुनाव आयोग की पहल उसके सरोकार को दिखाती है, लेकिन यह बात भी है कि इससे चुनाव के बुनियादी मकसद में निष्पक्षता और ईमानदारी पर कुछ फर्क नहीं पड़ता। ये दोनों बुनियादी जरूरतें अभी खतरे में ही हैं, और आने वाले दिनों में जिन शर्तों पर जिन लोगों के द्वारा ये नियुक्तियां, निष्पक्षता और खतरे में ही पड़ेगी। इसलिए चुनाव आयोग जैसी एक संवैधानिक संस्था को लेकर जिस तरह की पारदर्शिता होनी चाहिए थी, वही जब नहीं हो रही है, तो उसकी साख भी खतरे में ही रहेगी। ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग सरकार के ही एक विभाग की तरह काम करेगा, और सरकार के पसंदीदा और वफादार लोगों को वहां बिठाया जाएगा। दुनिया के विकसित लोकतंत्रों में संवैधानिक संस्थाओं के लिए ऐसा कमजोर इंतजाम नहीं रहता है, लेकिन भारत में यह लगातार चल रहे एक सिलसिले की कड़ी है कि किस तरह संवैधानिक संस्थाओं को सरकार के मातहत रखा जाए। 

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