संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नसीहत लेनी हो तो उसके लिए एक ट्रैफिक जाम भी है काफी
26-Dec-2023 4:42 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : नसीहत लेनी हो तो उसके लिए  एक ट्रैफिक जाम भी है काफी

फोटो : सोशल मीडिया

क्रिसमस मनाने हिमाचल के शिमला और कुल्लू मनाली जा रहे लोगों की दसियों हजार गाडिय़ां सडक़ों पर ऐसे जाम रहीं कि उसके वीडियो देख हैरानी होती रही कि इनमें से किसी की तबियत बहुत खराब हो जाने पर क्या होगा? कैसे कोई एम्बुलेंस वहां तक पहुंच सकेगी? हिमाचल की बहुत सी सडक़ों पर जाम का यह हाल था कि पूरे 24-24 घंटे गाडिय़ां हिल नहीं सकीं। एक जगह तो 55 हजार गाडिय़ां फंसने की खबर थी। अब इससे पहाड़ की सडक़ों की क्षमता का भी अंदाज लग रहा है, और लोगों की कार लेकर जाने की दीवानगी भी समझ आ रही है। जहां पर तापमान शून्य से नीचे चले जाता है, जहां पर बर्फबारी होती है, वहां 24-24 घंटे का ट्रैफिक जाम किसे जिंदा रखेगा, किसे मारेगा इसका कोई ठिकाना तो है नहीं। खबरें बताती हैं कि इसी मानसून की बाढ़ में कई रास्ते तबाह हुए थे, जिनकी पूरी मरम्मत अभी तक नहीं हो पाई है, और अब उन जगहों पर भी ट्रैफिक जाम लगा हुआ है। जिन सैलानी शहर-कस्बों तक पहुंचने के लिए ये लोग कारों से सपरिवार, या दोस्तों सहित जा रहे हैं, वहां पर भी होटलों का इंतजाम दम तोड़ देता है, और अभी कुछ बरस पहले वहां पानी की कमी से यह अपील जारी करनी पड़ी थी कि और सैलानी वहां पर न आएं। पड़ोस के उत्तराखंड का हाल तीर्थयात्राओं की वजह से इससे भी अधिक बुरा रहता है, और वहां भी सडक़ और तीर्थों की क्षमता ध्वस्त हो जाती है, लेकिन लोगों का आना रूकता ही नहीं है।  लोगों की दीवानगी, और भक्ति के चलते हुए एक आसान और तुरत इलाज यह हो सकता है कि निजी गाडिय़ों का वहां जाना अंधाधुंध महंगा कर दिया जाए, और सिर्फ बसों को छूट दी जाए ताकि कम ईंधन और कम सडक़ घेरकर अधिक मुसाफिर सफर कर सकें। पब्लिक ट्रांसपोर्ट हमेशा ही पर्यावरण के लिए कम नुकसानदेह होता है, और पहाड़ी इलाकों में ट्रैफिक जाम भी इससे बचता है। 

आज हिन्दुस्तान के गिने-चुने पहाड़ी तीर्थों, और पर्यटन केन्द्रों पर देश की बहुत बड़ी आबादी का हमला सरीखा चलते रहता है। देश में समुद्र तट तो बहुत से हैं, और वहां पर अधिक लोगों के पहुंचने पर भी वैसी दिक्कत नहीं होती जैसी पहाड़ पर होती है। समंदर तक जाने के रास्तों पर ट्रैफिक जाम नहीं होता, आसपास के इलाकों में होटलों की कमी नहीं रहती, और वहां की पर्यटक-क्षमता काफी होती हैं। हिन्दुस्तान समुद्रतटों से घिरा हुआ देश है, इसलिए सैलानियों की वजह से समंदर किनारे भीड़ नहीं होती। लेकिन कश्मीर, उत्तराखंड, और हिमाचल, सैलानियों और तीर्थयात्रियों के लिए पहाड़ तो बस इतने ही हैं, इसलिए इनकी क्षमता को ध्यान में रखना चाहिए। आज जिस तरह निजी कारों पर सवार होकर लोग पहाड़ों के लिए निकल पड़ते हैं, पहाड़ी राज्यों को यह भी देखना चाहिए कि किसी मुसीबत से जूझने की उनकी ताकत कितनी है? अगर किसी सडक़ पर भूस्खलन हो गया, या कहीं पर बाढ़ से पुल बह गए, तो क्या होगा? दसियों हजार फंसे हुए सैलानियों को किस तरह बचाया जा सकेगा? और अभी तो हम किसी किस्म की साजिश और आतंकी हमले की बात भी नहीं कर रहे हैं। अगर किसी आतंकी हमले में दो तरफ के पुल उड़ा दिए जाएं, तो बीच में फंसे हुए मुसाफिरों और सैलानियों का क्या होगा? कई बार स्थानीय शासन और प्रदेश शासन पर कारोबारी दबाव इतना अधिक रहता है कि साल में कुछ महीने आने वाले सैलानियों को न रोका जाए क्योंकि उन्हीं की वजह से पहाड़ी कारोबार चलता है, लेकिन ऐसे कारोबार को पर्यावरण और प्रशासन दोनों की क्षमता को देखते हुए ही इजाजत दी जानी चाहिए। 

पर्यावरण के लिए, और प्रशासन की दृष्टि से भी सबसे आसान तरीका पहाड़ों पर जाने वाली गाडिय़ों पर एक मोटा टैक्स लगाना हो सकता है। निजी कारों या टैक्सियों का यह सफर इतना महंगा कर दिया जाए कि लोग बसों से जाने को मजबूर हों। इससे जो प्रदूषण घटेगा, उससे ही पहाड़ भी बचेंगे, वरना प्रदूषण से जो जलवायु परिवर्तन हो रहा है, वह पहाड़ों को खतरे में डालते चल रहा है। चूंकि पहाड़ी इलाकों की अर्थव्यवस्था तीर्थ या पर्यटन पर टिकी रहती हैं, इसलिए ऐसी जगहों पर टैक्स बढ़ाकर भीड़ को कम करना ही अकेला जरिया हो सकता है। अभी जब यह अभूतपूर्व ट्रैफिक जाम लगा है, और इसके पहले जब बाढ़ से तबाही आई, तब यह बात भी सामने आई कि पहाड़ी इलाकों में भ्रष्टाचार और रिश्वत के चलते चारों तरफ अवैध निर्माण हो रहे हैं, इससे भी वहां पर्यटकों की क्षमता बढ़ रही है, और स्थानीय पर्यावरण बर्बाद हो रहा है। देश के बाकी मैदानी इलाकों में अवैध निर्माण से उस तरह का फर्क नहीं पड़ता जिस तरह का फर्क पहाड़ी इलाकों पर इससे पड़ता है। इसलिए इन राज्य सरकारों को अधिक ईमानदार रहना चाहिए, वरना वहां पर सब अवैध ही अवैध रह जाएगा, और जब जख्मी की गई कुदरत की मार पड़ेगी, तो किसी सरकार के हाथ कोई बचाव नहीं रह जाएगा। यह भी हो सकता है कि इन प्रदेशों की किसी गलती के बिना भी दूसरे इलाकों के प्रदूषण से जलवायु परिवर्तन हो रहा हो, लेकिन पहाड़ों पर होने वाले कुदरती नुकसान को तो इन्हीं प्रदेशों को झेलना पड़ेगा। 

हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में जो शासन व्यवस्था है उसमें राज्यों को बहुत दूर तक उनके ही हाल पर छोड़ दिया जाता है। किसी समझदार सरकार को कुदरत के रखरखाव वाले प्रदेशों को उनके नुकसान की भरपाई करनी चाहिए। भारत में भी केन्द्र सरकार को चाहिए कि जिन प्रदेशों में पहाड़, जंगल, नदी, और कुदरत को बचाने का जिम्मा दिया जाता है, उन्हें उसकी भरपाई भी दी जाए। पूरे बदन में फेंफड़ा तो एक ही जगह होता है, लेकिन उसकी वजह से बाकी का बदन भी चलता है। इसलिए देश के जिन हिस्सों को अछूता रखने की मजबूरी रहती है, उन्हें उनके नुकसान की भरपाई भी करनी चाहिए। राज्यों को उनके रहमोकरम पर छोड़ देना ठीक नहीं है। पहाड़ी इलाकों के रोजगार और कारोबार को किस तरह पर्यावरण-दोस्ताना बनाया जा सकता है, इस बारे में केन्द्र और राज्य सरकारों को सोचना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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