संपादकीय
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असम के गुवाहाटी हाईकोर्ट ने अभी राज्य की पुलिस को कहा है कि एक मामले में गिरफ्तार किए गए एक वकील को हथकड़ी लगाकर अदालत लाने, जेल ले जाने की नुमाइश करने वाले पुलिसवालों पर 5 लाख रूपए का जुर्माना लगाया जाए, और यह रकम अदालत से रिहा किए जा चुके इस वकील को हर्जाने के रूप में दी जाए। हाईकोर्ट ने यह पाया है कि असम पुलिस के एक होमगार्ड से एक मामूली से पार्किंग के झगड़े में इस वकील को गिरफ्तार किया गया था, उसके साथ बुरा सुलूक किया गया। अदालत ने इस बात को सुप्रीम कोर्ट के बड़े स्पष्ट आदेश-निर्देश के खिलाफ पाया कि अभियुक्त को हथकड़ी लगाकर अदालत में पेश किया गया, और अदालत से मेडिकल जांच के लिए, और जेल तक हथकड़ी लगाकर ही ले जाया गया। हाईकोर्ट ने यह माना है कि ऐसा बर्ताव इस अभियुक्त के बुनियादी मानवाधिकारों और गरिमा से जीने के हक के खिलाफ था। निचली अदालत से इस मामले में बरी हो जाने के बाद वकील ने मानवाधिकार आयोग में शिकायत की थी, लेकिन इस शिकायत को आयोग ने इस आधार पर बंद कर दिया था कि जिस अफसर के खिलाफ शिकायत है, वह गुजर चुका है। इसके बाद वकील ने हाईकोर्ट में इस आदेश के खिलाफ अपील की, और हथकड़ी लगाने से उसकी साख और गरिमा को हुए नुकसान का हर्जाना मांगा। अदालत ने माना कि जांच अधिकारी ने सोच-समझकर हथकड़ी लगाई थी जबकि सारे आरोप जमानतीय थे। अदालत ने राज्य शासन को आदेश दिया है कि दो महीने के भीतर इस वकील को पांच लाख रूपए हर्जाना दिया जाए, साथ ही असम पुलिस को हथकडिय़ों के बारे में सुप्रीम कोर्ट की दी गई व्यवस्था को लेकर संवेदनशील भी बनाया जाए।
अदालत ने इस मामले में जुर्माने की रकम पुलिस विभाग से वसूलने का निर्देश दिया है। यहीं पर हम अदालत से कुछ असहमत होना चाहेंगे। किसी अभियुक्त को हथकड़ी लगाई जाए या नहीं, इस बारे में पुलिस को बरसों से पर्याप्त जानकारी है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 1980 के एक फैसले में बहुत विस्तार से ये निर्देश दिए थे कि किस तरह के मामलों में किस इजाजत के बाद ही हथकड़ी लगाई जाए। इस बात को 40 साल हो चुके थे, जब असम पुलिस ने अपने होमगार्ड के साथ हुए झगड़े पर एक वकील के साथ यह सुलूक किया था। इसे पूरी तरह, या किसी तरह भी मासूम कार्रवाई नहीं कहा जा सकता था। एक मामूली से झगड़े की शिकायत पर स्थानीय अदालत में वकालत करने वाले वकील के फरार हो जाने या हिंसक हमला करने का ऐसा कोई खतरा नहीं था कि उसे हथकड़ी लगाई जाती। यह बात साफ-साफ है कि अपने ही विभाग के एक कर्मचारी के साथ हुए इस झगड़े के बाद पुलिस ने अतिउत्साह में, और बदले की भावना से यह कार्रवाई की थी, जिसकी नीयत किसी इंसाफ की न होकर वकील को बेइज्जत करने की थी। इसलिए इस मामले में हाईकोर्ट का यह दखल तो ठीक है कि पुलिस को इस ज्यादती के लिए जिम्मेदार मानते हुए उस पर जुर्माना लगाया जाए, लेकिन बदनीयत के ऐसे मामलों में जुर्माने का कम से कम एक हिस्सा जिम्मेदार अफसर और कर्मचारी के मत्थे भी मढ़ा जाना चाहिए क्योंकि यह किसी नियमित और मासूम कार्रवाई का हिस्सा नहीं था, यह बदनीयत से की गई कार्रवाई थी। लोगों को सरकारी कामकाज के दौरान रियायत सिर्फ अच्छी नीयत से की गई कार्रवाई के लिए ही मिलनी चाहिए, निजी दुश्मनी भंजाने के लिए ऐसी छूट नहीं दी जानी चाहिए।
अभी-अभी एक हाईकोर्ट में चल रही सुनवाई का एक वीडियो सामने आया है जिसमें एक मकान को तुड़वाने पर आमादा वकील को जज याद दिलाते हैं कि लोग बड़ी मुश्किल से एक मकान बना पाते हैं, और अगर किसी व्यक्ति ने अपनी जमीन के भीतर ही ऐसा मकान बनाया है, तो फिर उसे तुड़वाते हुए यह भी याद रखना चाहिए कि वकील ने खुद ने, या उनके मुवक्किल ने अपना मकान पूरी तरह नियमों के मुताबिक बनाया है क्या? अदालत ने इस प्रसारण में काफी सख्त रूख बताते हुए शिकायकर्ता के मकान का नक्शा और निर्माण की इजाजत भी मांगी है ताकि देखा जा सके कि शिकायत करने वाले लोगों का अपना खुद का क्या हाल है। इन दो मामलों का एक-दूसरे से कुछ भी लेना-देना नहीं है लेकिन दोनों ही मामले अदालत के इस रूख को बताते हैं कि सरकारी, पुलिसिया, या कानूनी ताकत हाथ में रहने पर किसी को परेशान करने या नीचा दिखाने का हक नहीं मिल जाता। हम गुवाहाटी हाईकोर्ट के इस ताजा आदेश पर लौटें, तो यह बाकी राज्यों के लिए भी एक सबक और चेतावनी हो सकती है कि पुलिस को मनमानी से किस तरह बचना चाहिए। मनमानी पर सरकार अपने अधिकारियों और कर्मचारियों की तरफ से जुर्माना जमा करे, यह हर मामले में ठीक नहीं है। जब व्यक्तियों की बदनीयत हो, तब उन पर भी जुर्माने का कुछ बोझ तो आना ही चाहिए।
देश में पुलिस सुधार पर बहुत सी बड़ी-बड़ी रिपोर्ट बन चुकी हैं, जो धूल खा रही हैं। देश भर के राज्यों में पुलिस राजनीतिक ताकतों के हाथ एक औजार की तरह काम करती है, और उसकी असल हसरत तो यह रहती है कि उसे हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाए। पुलिसवर्दी के बड़े-बड़े लोग अपने आपको सत्ता के हाथों हथियार की तरह पेश करने के लिए बेचैन रहते हैं ताकि उन्हें मोटी कमाई करने वाली कुर्सियां मिल जाएं। देश की ऐसी पुलिस व्यवस्था को सुधारने के लिए, और उसके कामकाज में राजनीतिक दखलंदाजी को कम करने के लिए दशकों से बात ही बात हो रही है, बात किसी किनारे नहीं पहुंच रही है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। यह मामला तो एक वकील का था, और यह बात अदालत में अच्छी तरह साबित पाई थी कि उसे पूरे वक्त हथकड़ी लगाकर रखा गया था, लेकिन जो कमजोर लोग पुलिस के जाल में फंसते हैं वे तो ऐसी कानूनी लड़ाई लडऩे की हालत में भी नहीं रहते हैं, और उनकी कोई भी मदद तभी हो सकती है जब पुलिस को संवेदनशील बनाया जा सके, वरना पुलिस ताकत को सलाम करते हुए, कमजोरों को अपने बूटतले कुचलने का काम करती रहेगी।