संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पिछली सरकार की जांच भी नई सरकार की जिम्मेदारी...
30-Dec-2023 4:55 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : पिछली सरकार की जांच भी नई सरकार की जिम्मेदारी...

छत्तीसगढ़ सरकार ने कल आकार ले लिया। तीन हफ्ते पहले चुनावी नतीजे आ चुके थे, एक पखवाड़े पहले मंत्री तय हो चुके थे, लेकिन उनके विभाग तय नहीं हुए थे। एक मुख्यमंत्री, दो उपमुख्यमंत्री, कुछ 15 साल और अधिक मंत्री रह चुके मंत्री, इनके बीच हो सकता है कि विभागों का बंटवारा आसान न रहा हो, और यह भी हो सकता है कि तीन राज्यों में साथ-साथ, समानांतर चल रहे सरकार-गठन में कुछ चीजों को साथ रखकर देखा जा रहा हो, कुछ चीजों को लोकसभा चुनाव के मद्देनजर तय किया जा रहा हो। जो भी वजहें रही हों, किसी सरकार के गठन को बहुत तेज या बहुत धीमा कहना गलत होगा क्योंकि मामला पांच साल का रहता है। ये बातें हम लिख तो छत्तीसगढ़ के सिलसिले में रहे हैं, लेकिन ये बाकी राज्यों पर भी लागू होती हैं जहां पर अभी सरकार बन ही रही है। छत्तीसगढ़ में मंत्रियों के विभागों के बाद हो सकता है कि अब सरकार की मर्जी के, या मंत्रियों की पसंद के बड़े अफसर भी बदले जाएं, और यह भी हो सकता है कि कुछ हफ्ते बाद के बजट को देखते हुए सरकार तब तक मौजूदा अफसरों को उनकी जगह पर बनाए भी रखे। इस बारे में हमारी कोई राय नहीं है जिसकी वजह से हम आज यहां लिख रहे हों। 

लेकिन पांच बरस के लिए बनने वाली सरकार को लेकर प्रदेशों के तमाम सोचने वाले लोगों को कुछ फिक्र भी करनी चाहिए। फिक्र का मतलब सरकार को फिक्र में डालना नहीं है, क्योंकि लोकतंत्र में यह भी माना जाता है कि किसी सरकार को हंड्रेड-डे-हनीमून का मौका मिलना चाहिए। वह सौ दिन अपने हिसाब से काम कर सके, उसके बाद उसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। लोगों को याद होगा कि जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने थे, तो उन्होंने अपने तमाम मंत्रियों को सौ दिनों का लक्ष्य तय करने को कहा था, और उसे पूरा करने के लिए वे हर मंत्री के साथ अलग-अलग भी बैठते थे। लोकतंत्र में मीडिया और विपक्ष को भी अपना रोज का काम भी करना चाहिए, और सरकार को अपना कामकाज साबित करने के लिए सौ दिन का वक्त भी देना चाहिए। सरकार की रोजाना की निगरानी जरूरी है ताकि उसकी गलती या गलत काम को रोजाना सुधारा जा सके, लेकिन मूल्यांकन की हड़बड़ी सौ दिन के पहले नहीं करनी चाहिए, जिसमें से करीब तीस दिन तो छत्तीसगढ़ सरकार के निकल चुके हैं। आज के लोकतंत्र में विपक्ष और परंपरागत मीडिया से परे सोशल मीडिया पर जनता के चौकन्नेपन, और उसकी जागरूकता को भी एक नई लोकतांत्रिक ताकत मानना चाहिए जो कि कई बार विपक्ष से अधिक धारदार रहती है, और विपक्ष की तरह समझौतापरस्त नहीं रहती, मीडिया की तरह दबाव या प्रभाव में नहीं रहती। जनता आज सोशल मीडिया पर उसे मुफ्त में हासिल एक तकरीबन बेकाबू आजादी के चलते सत्ता या विपक्ष दोनों का पल-पल मूल्यांकन कर सकती है, करती है। 

हम फिर से नई सरकार के गठन पर लौटें, तो हमारे पास किसी ब्रांड वाली कोई सिफारिश नहीं है, डॉक्टरी में इस्तेमाल होने वाली जेनेरिक दवाओं सरीखी सलाह जरूर है जो कि किसी भी सरकार के काम की हो सकती है, किसी भी प्रदेश में काम आ सकती है, या रद्दी की टोकरी में भी डाली जा सकती है। किसी भी नई सरकार को अपने चुनावी वायदों के प्रति ईमानदार रहते हुए पिछली विपक्षी सरकार के गलत कामों की अनिवार्य रूप से जांच करवानी चाहिए, क्योंकि विपक्ष में रहते हुए पार्टी कई तरह के आरोप लगाती है, और छत्तीसगढ़ में हमारा देखा हुआ है कि भाजपा ने बहुत से सुबूतों और दस्तावेजों के साथ कभी राज्यपाल को, तो कभी चुनाव आयोग को सिफारिशें की थीं, कभी ईडी को कागजात दिए थे। अब वक्त आ गया है कि भाजपा की सरकार बनने पर उसे ऐसे सभी मामलों की जांच करवानी चाहिए क्योंकि उसे जानकारी रहते हुए वह जांच न करवाए, ऐसा कोई विकल्प संवैधानिक शपथ उसे नहीं देती है। 

जब सत्तारूढ़ पार्टी बदलती है, तो कुछ बुनियादी फर्क भी आता है। एक बार फिर छत्तीसगढ़ की मिसाल दें, तो पिछली कांग्रेस सरकार ने देश की भाजपा लीडरशिप वाली मोदी सरकार से सीबीआई की जांच शुरू करवाने का अधिकार वापिस ले लिया था। ऐसा कुछ दूसरी कांग्रेस सरकारों ने भी किया था, और गैरभाजपा सरकारों ने भी। अब छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसी नई भाजपा सरकारों से यह स्वाभाविक उम्मीद की जाती है कि वे देश की पुरानी परंपरा के मुताबिक केन्द्र सरकार को, मतलब सीबीआई को अपने राज्य में खुद होकर जांच शुरू करने की एक सामान्य इजाजत दे। छत्तीसगढ़ में यह काम मंत्रियों को विभाग बंटने के पहले भी हो सकता था, लेकिन अब तो यह हो ही जाना चाहिए। फिर कुछ दूसरे और टकराव भूपेश सरकार और मोदी सरकार के बीच चले आ रहे थे, वे मुद्दे सुप्रीम कोर्ट के रास्ते होते हुए अभी नई सरकार के सामने सवाल बनकर खड़े हैं। इनमें सबसे बड़ा मुद्दा बस्तर की झीरम घाटी के नक्सल हमले का है जिसकी एनआईए जांच से असहमत होते हुए भूपेश सरकार ने एक नई एफआईआर दर्ज की थी, और उसने सुप्रीम कोर्ट तक से अपने पक्ष में यह आदेश पाया था कि वह इस एफआईआर पर जांच कर सकती है। अब यह तो मोदी सरकार के मातहत काम करने वाली एनआईए के खिलाफ भूपेश सरकार की पहल थी, आज कोई वजह तो है नहीं कि छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार एनआईए से असहमत होकर वैसी कोई जांच जारी रखे। इस पर भी फैसला कानूनी और राजनीतिक दोनों पहलुओं से होगा क्योंकि झीरम की राज्य पुलिस से जांच बंद करवाने पर कांग्रेस इसे एक मुद्दा बना सकती है कि पिछली भाजपा सरकार के वक्त हुआ वह हमला एक साजिश थी, और इसलिए आज की सरकार उसे बंद कर रही है। लोकतंत्र में फैसले कानूनी, राजनीतिक, और प्रशासनिक, कई पहलुओं से लिए जाते हैं, और झीरम का फैसला वैसा ही रहेगा। 

छत्तीसगढ़ में पिछले पांच बरस में ईडी और इंकम टैक्स ने राज्य सरकार, इसके कई अफसर, इसके कई नेताओं के खिलाफ कई किस्म के नोटिस निकाले हैं, गिरफ्तारियां की हैं, संपत्ति जब्त की है, और भूपेश सरकार के खिलाफ बहुत ही गंभीर अपराधों के आरोप अदालत में पेश किए हैं। अब विष्णुदेव साय की सरकार को यह भी तय करना होगा कि सरकार और राज्य के जो लोग ऐसे कथित जुर्म से जुड़े हुए थे, उनमें शामिल थे, जिनके खिलाफ केन्द्र से राज्य को कार्रवाई के लिए लिखा जा चुका था, उन मामलों में क्या किया जाए? क्योंकि ईडी और आईटी की कार्रवाई कुछ धाराओं के तहत ही होती है, इन दोनों एजेंसियों के लगाए गए आरोपों में बहुत किस्म के जुर्म ऐसे दिखाई पड़ते हैं जो कि इनके अपने अधिकार क्षेत्र में नहीं आते। अपने अधिकार के दायरे को तो इन्होंने अदालत में पेश किया है, राज्य सरकार को लिखा है, लेकिन उन्हीं सुबूतों से भारत के कानून के तहत कई और जुर्म हैं जिनकी जांच राज्य अपनी एजेंसी से भी करवा सकता है, और चाहे तो उन्हें सीबीआई को भी दे सकता है। हमारा ख्याल है कि नए मंत्रिमंडल को ऐसे कानूनी पहलुओं पर प्राथमिकता के आधार पर गौर करना होगा क्योंकि कुछ ही महीनों में लोकसभा चुनाव का माहौल बनने लगेगा, और उसके करीब आने पर लिए गए ऐसे फैसले चुनावी-राजनीतिक असुविधा भी पैदा कर सकते हैं, और बदनीयत के आरोपों को भी न्यौता दे सकते हैं। 

हम सैद्धांतिक रूप से इस बात के हिमायती हैं कि किसी भी सरकार को पिछली किसी सरकार या किसी नेता पर लगे आरोपों को अनदेखा करने का हक नहीं होना चाहिए। संविधान की जो शपथ लेकर सरकार बनती है, तो वह ऐसी हर जांच के लिए जवाबदेह भी होती है। अगर पिछली सरकार के जुर्म भूलकर सिर्फ आगे काम करने की बात होगी, तो फिर लोकतंत्र में किसी गलत काम पर कार्रवाई हो ही नहीं पाएगी। इसलिए सत्तारूढ़ पार्टी को अपने पिछले आरोपों के साथ भी खड़े रहना चाहिए, और मौजूदा सरकार को बिना किसी बदनीयत के पिछले सारे संदिग्ध मामलों की ईमानदार जांच करवाना चाहिए। जब बहुत से राजनीतिक और सरकारी मुजरिम जेल जाएंगे, तो राजनीति धीरे-धीरे साफ-सुथरी भी होगी।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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