संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गांधी के प्रदेश में दलितों को अपनी लाशें जलाने श्मशान भी नसीब नहीं!
03-Jan-2024 4:07 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  गांधी के प्रदेश में दलितों को अपनी लाशें जलाने श्मशान भी नसीब नहीं!

गुजरात की एक खबर है कि वहां बनासकांठा जिले में दलित समाज के लोग इलाके के तहसीलदार के दफ्तर पहुंचे, और मांग की कि दलितों को श्मशान के लिए जगह आबंटित की जाए। उनका कहना है कि पांच साल से दलित श्मशान की मांग कर रहे हैं। लेकिन उन्हें जमीन मिल नहीं रही है, और जो सार्वजनिक श्मशान हैं वहां दलितों को अंतिम संस्कार नहीं करने दिया जाता। जब इस खबर की और जानकारी के लिए गूगल पर खबरें ढूंढी गईं तो बस गुजरात दलित डेड बॉडी, इन चार शब्दों को सर्च करने से ही सैकड़ों खबरें निकलकर सामने आ गईं जिनमें देश के तमाम अलग-अलग बड़े अखबारों और प्रतिष्ठित और विश्वसनीय वेबसाइटों की खबरें हैं। ये बताती हैं कि किस तरह किसी एक जिले में सरकार की तरफ से दलितों को अलग से दी गई श्मशान की जगह पर भी ओबीसी समुदाय के लोग उन्हें वहां अंतिम संस्कार करने नहीं दे रहे हैं, और उन्हें रोकने के लिए हिंसा भी की जा रही है। एक दूसरी खबर बताती है कि किस तरह क्षत्रीय समुदाय के लोगों ने दो दलित भाईयों को मार डाला, और जब पुलिस ने परिवार को हिफाजत की गारंटी दी, तब जाकर परिवार अपने लोगों की लाशें लेने को तैयार हुआ। अब ऐसे दलित परिवारों में बंदूकों के लाइसेंस मांगे जा रहे हैं, और शायद वहां की सरकार इसके लिए तैयार भी रही है। एक अलग खबर है कि एक दलित नौजवान के दायर किए हुए एक मुकदमे को वापस न लेने पर दो गैरदलित लोगों ने उसकी मां को पीट-पीटकर मार डाला। वे उसे तब तक पीटते रहे जब तक वह मर नहीं गई, और वे उससे कहते रहे कि वो अपने बेटे को मामला वापिस लेने के लिए तैयार करे। पिछले एक-दो बरस के भीतर ही गुजरात की ऐसी खबरें अलग-अलग दर्जन भर जिलों से आई हुई दिख रही हैं, जिनमें बहुत सी खबरें दलितों को अंतिम संस्कार का हक न मिलने की है। 

यह मामला उस गुजरात का है जहां के गांधी थे, और जिन्होंने दलितों की बेहतरी के लिए अपने उस वक्त के अंदाज में बहुत कुछ किया था। यह एक अलग बात है कि आज देश के दलितों के एक बड़े तबके को इस बात पर आपत्ति है कि गांधी अपनी हिन्दू सोच के मुताबिक इन दलितों को हरिजन कहते थे, और यह शब्द उनके प्रति बेइंसाफी का था क्योंकि जिस हरि के दरबार में दलितों को पांव भी धरने न मिले, उस हरि के जन वे कैसे हो सकते हैं, क्यों हों? फिर भी इस शब्द से परे गांधी ने अपनी जिंदगी में जाति व्यवस्था तोडऩे के लिए बहुत कुछ किया था, और दलितों के साथ छुआछूत के खिलाफ वे जिंदगी भर करते रहे। ऐसे गांधी के गुजरात में वैसे तो यह अकेला मामला नहीं है जो गांधी की सोच के खिलाफ है, और भी बहुत से मामले गांधी के दर्शन के खिलाफ वहां होते हैं, इसलिए आज का गुजरात गांधी और उनकी सोच से मोटेतौर पर अनछुआ है। सवाल यह भी उठता है कि गुजरातियों को बाकी देश में आमतौर पर झगड़ों से परे रहने वाली बिरादरी माना जाता है, वे न तो फौज में अधिक जाते, न किसी और पैरामिलिट्री बल में, और न ही उन्हें हिंसा के लिए जाना जाता। लेकिन खुद गुजरात के भीतर समय-समय पर कई तरह की साम्प्रदायिक और जातिगत हिंसा सामने आते रहती है, और गुजराती समाज के भीतर यह एक बड़ा विरोधाभास नजर आता है जो कि उस प्रदेश में समाज के भीतर हिंसा को भी बताता है। 

आज जब देश भर में अलग-अलग राजनीतिक  दलों के लोग दलित पर्यटन करते दिखते हैं, और दलितों के घरों में जाकर आयातित बर्तनों में, शायद आयातित खाना खाते हैं, और उसे दलितों को गले लगाने की बात कहते हैं, तब यह भी सोचना चाहिए कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के अपने गृहप्रवेश में, उनकी ही पार्टी की सरकार दशकों से रहते हुए अगर इस तरह की दलित-विरोधी हिंसा होती है, तो उस पर रोक क्यों नहीं लगती? यह बात तो बिल्कुल साफ है कि धर्म और जाति पर आधारित हिंसा उन्हीं जगहों पर पनप सकती है, जिन जगहों पर सरकार हिंसा करने वालों के साथ रहम करती है। यह बात सिर्फ गुजरात की नहीं है, देश के बहुत से प्रदेशों में ऐसा होता है, और मध्यप्रदेश में तो शायद गुजरात से भी अधिक ऐसी घटनाएं लगातार होती हैं, जहां पर सामंतशाही के दिनों का सामाजिक अहंकार अब तक लोगों को हिंसक बनाए रखता है, और दलित दूल्हों को भी बहुत से इलाकों में घोड़ी पर चढऩे नहीं मिलता, गांव के भीतर दलित जूते-चप्पल पहनकर सवर्ण बस्ती पार नहीं कर सकते। ऐसा भी नहीं कि सिर्फ भाजपा की सत्ता वाले राज्यों में ऐसा है, कांग्रेस सरकार रहते हुए भी राजस्थान में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, और हिन्दीभाषी दूसरे कई प्रदेशों में ऐसा होता है। ऐसा लगता है कि दलितों और आदिवासियों की हिफाजत के लिए जो खास कानून देश में लागू है, उसे लागू करने वाली पुलिस, और उस पर फैसला सुनाने वाली अदालत, इन दोनों ही जगहों पर दलितों के लिए हमदर्दी नहीं है, और अत्याचारी जातियों के लोग हावी हैं। 

हमने कुछ हफ्ते पहले इसी जगह हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों में आरक्षण लागू करने की वकालत की थी, और हमको ऐसी कोई वजह नहीं दिखती कि 140 करोड़ आबादी वाले इस देश में सुप्रीम कोर्ट में जजों की 32 कुर्सियों, और हाईकोर्ट की कुछ सौ कुर्सियों के लिए देश में आरक्षित तबके से काबिल लोग नहीं मिलेंगे। अगर हम बड़ी अदालतों के जजों की बात को किनारे भी रखें तो भी देश में और तमाम प्रदेशों में दलित और आदिवासी लोगों के अधिकार बचाने के लिए, उन्हें हिंसा से बचाने के लिए संवैधानिक आयोग बनाए गए हैं। लेकिन देश के तमाम मनोनीत आयोगों की तरह इनके साथ भी दिक्कत यह होती है कि ये अपने को मनोनीत करने वाली सत्ता के लिए कोई असुविधा खड़ी करना नहीं चाहते, और तमाम किस्म के जुर्म होते देखते रहते हैं। हमने पहले भी इस चीज को सुझाया था कि ऐसे आयोगों में मनोनयन राज्यों के बाहर के लोगों का होना चाहिए, उसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर लोगों को छांटने की एक गैरराजनीतिक व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि ऐसे आयोग सचमुच ही अपना संवैधानिक मकसद पूरा कर सके। आज अगर गुजरात के अनुसूचित जाति आयोग, मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग में अगर अलग-अलग प्रदेशों से आए हुए लोग रहते, तो हो सकता है कि वे सरकार की लापरवाही के खिलाफ कुछ बोल भी सकते। लेकिन आमतौर पर पार्टी के कार्यकर्ताओं को ही संवैधानिक कुर्सियों पर बिठा दिया जाता है, और फिर वे लोग उन तबको को बचाने के बजाय सरकार को ही असुविधा से बचाने में अपनी जान लगा देते हैं। किसी को सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका लेकर जाना चाहिए, और राज्यों के संवैधानिक आयोगों में उन राज्यों के लोगों के मनोनयन के खिलाफ फैसला मांगना चाहिए। राष्ट्रीय स्तर पर विशेषज्ञों और अनुभवी लोगों की एक ऐसी फेहरिस्त भी बननी चाहिए जो कि देश भर के संवैधानिक आयोगों में मनोनयन का काम सरकारों के काबू से परे भी कर सके। ऐसे बहुत से फैसलों के बिना दलितों पर जुल्म जारी रहेगा, और इस खतरे को अनदेखा नहीं करना चाहिए कि ऐसा हर जुल्म, ऐसा हर जुर्म समाज के भीतर सदियों से चली आ रही खाई को और गहरा ही करते चलता है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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