संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ...आधे से अधिक आईएएस नई कुर्सियों में, पर साथ-साथ कुछ और किया जा सकता है
04-Jan-2024 4:07 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :   ...आधे से अधिक आईएएस नई कुर्सियों में, पर साथ-साथ कुछ और किया जा सकता है

छत्तीसगढ़ के चुनावी नतीजे सामने आए कल ठीक एक महीना पूरा हुआ, और राज्य सरकार ने आईएएस अफसरों में राज्य के इतिहास का सबसे बड़ा फेरबदल करके प्रदेश में छाया एक असमंजस खत्म किया है। पहले तो मंत्रियों के नामों को लेकर अटकलें चल रही थीं, फिर उनके विभागों को लेकर, और उसके बाद सरकार के कामकाज को समझने वाले लोगों के बीच यह असमंजस जारी था कि किस विभाग में कौन सचिव रह जाएंगे, सचिवों के मातहत कौन संचालक रहेंगे, किस जिले में कौन कलेक्टर रहेंगे। कल आधी रात आई 88 आईएएस अफसरों की लिस्ट ने वह सारा असमंजस पूरी तरह खत्म कर दिया है। अगले दो-चार दिनों के भीतर लोग नए काम संभाल लेंगे, और हर विभाग का ढांचा काम करने लगेगा। प्रदेश में प्रशिक्षणार्थियों को मिलाकर भी कुल 162 आईएएस हैं, और इनके आधे से अधिक लोगों की पोस्टिंग कल की लिस्ट में की गई है। प्रदेश के आधे से अधिक जिलों के कलेक्टर भी बदल गए हैं। तीन चौथाई विभागों में सचिव बदल गए हैं, या उनके कामकाज में कमी-बेसी हुई है। विष्णु देव साय सरकार अब पूरी रफ्तार से काम करने के लिए तैयार है। और ऐसी उम्मीद की जा रही है कि एक-दो दिनों में ही आईपीएस, और आईएफएस अफसरों की लिस्ट भी आ जाएगी। उसके बाद राज्य प्रशासनिक सेवा, और राज्य पुलिस सेवा के अफसरों का तबादला बाकी रहेगा जो कि अखिल भारतीय सेवा के अफसरों के मातहत ही काम करेंगे। 

मुख्यमंत्री विष्णु देव साय मंत्रियों के बीच विभागों के बंटवारे से लेकर अभी अफसरों के नाम तय होने तक, कुछ लोगों को धीमी रफ्तार से काम करते हुए लग रहे थे, लेकिन कल की लिस्ट देखकर समझ आता है कि बहुत बारीकी से अफसरों के काम बदले गए हैं, और जिन लोगों ने पिछली सरकार के वक्त भी ईमानदारी से अच्छा काम किया था, उन्हें कल के फेरबदल में भी जिम्मेदारियां दी गई हैं। हम अपने इस कॉलम में किसी एक अफसर या व्यक्ति के बारे में कुछ लिखना नहीं चाहते, लेकिन इतना जरूर दिख रहा है कि पिछली भूपेश बघेल सरकार के दौरान जो अफसर विवादों से घिरे हुए थे, उन्हें जरूर अभी किनारे किया गया है, जो कि किसी तरह की ज्यादती नहीं है। डेढ़ दर्जन से अधिक जिलों के कलेक्टरों को बदलना भी स्वाभाविक इसलिए लग रहा है कि आज सत्तारूढ़ भाजपा ने पिछले बरसों में इनमें से कई के खिलाफ गंभीर शिकायतें की थीं, औपचारिक रूप से चुनाव आयोग या राज्यपाल को इनके खिलाफ सुबूत या कागजात दिए थे, और यह स्वाभाविक ही था कि नई भाजपा सरकार में इन अफसरों को जिलों से अलग कहीं पदस्थ किया जाए, और वही हुआ है।

लेकिन इस विश्लेषण से परे हम अपनी एक सोच को यहां दुहराना चाहते हैं कि मुख्यमंत्री विष्णु देव साय को अधिकारियों को नई जगह काम संभालते हुए फिजूलखर्ची से बचने को कहना चाहिए। आमतौर पर सरकारों में यह होता है कि अफसर किसी नए दफ्तर में जाते ही सबसे पहले वहां अपनी मर्जी का फर्नीचर, मर्जी की साज-सज्जा के चक्कर में पड़ जाते हैं। आज प्रदेश को वैसे भी कर्ज में डूबा हुआ बताया जा रहा है, और शासन को चाहिए कि सारे अफसरों को किफायत बरतने, और साज-सज्जा पर कोई भी खर्च न करने को कहे। एक दूसरी बात यह भी होती है कि जब एक-एक अफसर के पास एक से अधिक विभाग रहते हैं, तो इनमें से हर विभाग की गाडिय़ां उनके बंगलों पर खड़ी रहती हैं, यह सिलसिला भी भाजपा सरकार को खत्म करना चाहिए। हम मंत्रियों और अफसरों के बंगलों पर तैनात कर्मचारियों को लेकर कुछ तरह की किफायत की बातें पहले भी लिख चुके हैं, और अपनी यूट्यूब चैनल पर बोल चुके हैं, इसलिए उसे यहां दुहराने का मतलब नहीं है, लेकिन सरकार को हर तरह की किफायत बरतना चाहिए क्योंकि आने वाले वक्त में कब किस संक्रामक रोग का हमला हो जाए, राज्य की कमाई दसियों हजार करोड़ रूपए कम हो जाए, खर्च दसियों हजार करोड़ रूपए बढ़ जाए, उसका कोई ठिकाना तो है नहीं। वैसे भी सत्तारूढ़ पार्टी की चुनावी घोषणाओं के मुताबिक सरकार पर एक बड़ा आर्थिक बोझ रहने वाला है, और इससे निपटने के लिए भी सरकार को अपने कामकाज में सादगी और किफायत बरतना चाहिए। 

सत्ता की भाषा में कई चीजें लोगों की सोच ढालने लगती है। मंत्री अपने लिए वीआईपी शब्द का इस्तेमाल करने लगते हैं, और वह बात उन्हें आम जनता से काट देती है। जनता सिर्फ परसन रह जाती है, और सत्तारूढ़ नेता वेरी इम्पॉर्टेंट परसन हो जाते हैं। अगर भाजपा सरकार चाहे तो इस शब्द का इस्तेमाल बंद करके सत्ता की सोच को भी बदल सकती है। दूसरी बात यह कि अफसरों के पदनाम के बारे में भी सरकार को सोचना चाहिए। भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में कलेक्टर, या जिलाधीश जैसे शब्द एक असंवैधानिक ताकत से लैस प्रतीक बन गए हैं। अब कलेक्टरों को अंग्रेजों के अफसरों की तरह कुछ कलेक्ट तो करना नहीं होता है, क्योंकि कलेक्टरों के स्तर पर जितना टैक्स इकट्ठा होता है उससे कहीं ज्यादा खर्च उनके मार्फत होता है। इसलिए कलेक्टर शब्द अब अप्रासंगिक हो गया है। दूसरी तरफ जिलाधीश शब्द बड़ा ही सामंती लगता है, और किसी मठाधीश की तरह बेतहाशा ताकत से लैस लगता है। इस शब्द को बदलकर जिला जनसेवक करना चाहिए, ताकि अफसरों को अपने पद नाम से ही यह अहसास रहे कि उनका काम क्या है। सरकार अगर सचमुच अफसरों से जनसेवा करवाना चाहती है, तो इसके लिए उनके पदनाम को बदलना भी जरूरी है।

छत्तीसगढ़ सरकार को मध्यप्रदेश की ताजा घटना देखना चाहिए जहां पर हड़ताली ट्रक ड्राइवरों से बात करते हुए एक कलेक्टर ने कैमरे के सामने उसे कहा कि उसकी औकात क्या है? मुख्यमंत्री ने इसके बाद तुरंत ही कलेक्टर को हटाया है। यह तो वीडियो आ गया था, इसलिए यह कार्रवाई हो गई, सच तो यह है कि बहुत से जिलों में कलेक्टरों की यही बददिमागी, और बदमिजाजी रहती है। इसे ध्यान में रखते हुए भी हम इस पदनाम को बदलने की सलाह दे रहे हैं।  

हमारी इस सोच में नया कुछ भी नहीं है, और हम हर सरकार के सामने जनहित की इन बातों को रखना, और याद दिलाना अपनी जिम्मेदारी मानते हैं। यह सरकारों पर रहता है कि वे उनमें से किन बातों को काम की मानें, या उन्हें अनदेखा कर दें। मुख्यमंत्री विष्णु देव साय खुद सादगी से रहने वाले जाने जाते हैं, और वे अगर चाहें, तो सरकार की जनसेवा की एक तस्वीर पेश कर सकते हैं। शासन-प्रशासन में ऐसे बुनियादी सुधार एक जनकल्याणकारी लोकतंत्र को बढ़ावा देंगे, और आम जनता इन बातों के लिए सरकार की शुक्रगुजार भी रहेगी। देखते हैं आगे क्या होता है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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