संपादकीय
2023 का पूरा साल दुनिया में जगह-जगह चल रही घोषित और अघोषित जंग समेत गुजरा, और इनमें से कुछ भी थमा नहीं है, और चल ही रहा है। उधर रुस और यूक्रेन के बीच जानलेवा जंग जारी है, उधर फिलीस्तीन के गाजा पर इजराइल के जानलेवा हमले जारी हैं और रोजाना ही वहां दर्जनों या सैकड़ों बेकसूर नागरिक मारे जा रहे हैं जिनमें बड़ी संख्या में बच्चे भी हैं। यूक्रेन के साथ तो फिर भी तमाम नाटो देश अपनी पूरी ताकत के साथ मौजूद हैं, और उसकी फौजी और गैरफौजी दोनों किस्म की भरपूर मदद की जा रही है, लेकिन फिलीस्तीन के साथ तो कोई खड़े नहीं दिख रही हैं, अमरीका जैसे जितने पश्चिमी मवाली देश हैं, वे इजराइल के साथ हैं। संयुक्त राष्ट्र भी आधी सदी से फिलीस्तीनियों पर जुर्म के खिलाफ प्रस्ताव पर प्रस्ताव पार किए जा रहा है, लेकिन उसका कोई भी बस इजराइल पर नहीं चल रहा है, और न ही उसके हिमायती देशों पर। इस किस्म के छोटे-छोटे जंग जगह-जगह चल रहे हैं, कुछ हथियारों वाले हैं, और कुछ ईरान की सरकार और महिलाओं के बीच चल रही निहत्थी लड़ाई है, जिसे वैचारिक आधार पर पश्चिम समर्थन तो दे रहा है, लेकिन उसका यह समर्थन हिजाब के खिलाफ खड़ी ईरानी महिलाओं के लिए है, और इजराइली बमों से चिथड़े बने हुए फिलीस्तीनी बच्चों के लिए नहीं हैं।
दुनिया भर में बिखरी हुई लड़ाई और बेइंसाफी को देखें तो लगता है कि संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था का न तो कोई अस्तित्व रह गया है, और न ही कोई इस्तेमाल ही उसका दिखता है। दुनिया की सबसे बड़ी, और एक किस्म से सर्वमान्य संस्था, संयुक्त राष्ट्र, इस हद तक अप्रासंगिक हो जाएगी, यह उसे बनाने वालों ने सोचा भी नहीं था। लेकिन ऐसा लगता है कि संयुक्त राष्ट्र मेें पांच देशों को जो वीटो-अधिकार दिया गया था, वही उसे चलने नहीं दे रहा है, आज दुनिया में कितनी भी बड़ी गुंडागर्दी हो रही हो, अगर गुंडे के साथ वीटो की ताकत वाला एक देश खड़ा हुआ है, तो संयुक्त राष्ट्र भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वीटो की इस विध्वंसकारी ताकत को देखते हुए बाकी अंतरराष्ट्रीय संगठनों को यह सबक लेना चाहिए कि ऐसी बर्बादी का सामान ईजाद ही न किया जाए। आज दुनिया की बड़ी से बड़ी बेइंसाफी को बस अपना हिमायती एक वीटो लगता है, और बाकी दुनिया उसके खिलाफ कुछ नहीं कर सकती।
फिलीस्तीन पर इजराइली जुल्म और जुर्म के बाद ऐसा लगता है कि दुनिया में फिलीस्तीन के लिए कोई जगह ही नहीं बचेगी, और वहां जिस किस्म की मिलिट्री बर्बादी की गई है, उसके बाद वहां पर शायद ही कोई आबादी बस सके। जो मुस्लिम दुनिया कहने के लिए फिलीस्तीनियों के साथ खड़ी है, उनमें से कुछ को अपनी जगह का कुछ हिस्सा निकालकर एक नए फिलीस्तीन के लिए देना चाहिए क्योंकि इजराइल का यह पड़ोस फिलीस्तीनियों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी खत्म किए जा रहा है। खाड़ी के देशों में, मुस्लिम राष्ट्रों के बीच कहीं भी एक जगह फिलीस्तीनियों के लिए निकालनी चाहिए ताकि उनमें से कुछ तो जिंदा बच सकें। जब दुनिया में गुंडे को रोकने की ताकत न हो, तो फिर यही एक जरिया बचता है कि उसे गुंडे के निशाने को ही कहीं सिर छुपाने को जगह दी जाए। जो लोग यह मानते हैं कि दुनिया में धर्म एक सबसे बड़ा गठजोड़ होता है, उन्हें भी यह देखना चाहिए कि इतने रईस मुस्लिम देशों के रहते हुए भी किस तरह फिलीस्तीन बेसहारा पड़ गया है, और उसकी आने वाली कई पीढिय़ों को इंसानों सी जिंदगी नसीब नहीं होने वाली है।
कहने के लिए लोग फिलीस्तीन की हर चर्चा पर यूक्रेन को ले आते हैं, या हिन्दुस्तान के मणिपुर की चर्चा करने लगते हैं कि यहां भी जुल्म हो रहा है। लेकिन हमारा ख्याल है कि दूसरी कमजोर मिसालें फिलीस्तीन जैसी सबसे नाजुक मिसाल का वजन कम करती हैं। इसलिए हम किसी और के साथ उसे जोडक़र देखना नहीं चाहते। फिर यह भी है कि आज दुनिया के लोग इतने मतलबपरस्त हो गए हैं कि वे फिलीस्तीन में मौत बरसाने वाले अमरीका-इजराइल गठबंधन का आर्थिक बहिष्कार करने की भी नहीं सोच सकते। ऐसे में दुनिया में अब इंसाफ मुमकिन नहीं दिखता है। ऐसा लगता है कि ईरान सरीखे इजराइल-विरोधी देश अगर खुलकर फिलीस्तीन की मदद करेंगे, तो उस पर कल सरीखा आतंकी हमला हो सकता है, जो कि कहने के लिए तो किसी मुस्लिम संगठन ने किया है, लेकिन जिसके पीछे अमरीका और इजराइल सरीखी ताकतें हो सकती हैं।
आज दुनिया में ऐसे महान नेताओं का अकाल पड़ गया है जो कि अपने देश की सरहद से जुड़ी न होने पर भी किसी जंग को खत्म करवाने के लिए अंतरराष्ट्रीय भूमिका निभा सकें। और यह भी लगता है कि इजराइल सरीखी आर्थिक ताकत के साथ जिन देशों के कारोबारी रिश्ते हैं, उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कितने हजार बेकसूर फिलीस्तीनी नागरिकों को मार रहा है। हमारे पास इस नौबत का कोई इलाज नहीं है, लेकिन हमें पढऩे वाले लोग इस हमले को सही संदर्भ में समझ सकें, इसलिए इन बातों को साफ-साफ यहां रख रहे हैं।