संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ईडी पर बंगाल में हमला, इस पर क्या कार्रवाई हो?
06-Jan-2024 3:59 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : ईडी पर बंगाल में हमला, इस पर क्या कार्रवाई हो?

पश्चिम बंगाल में राशन घोटाले की जांच कर रहे ईडी के अफसरों पर उस वक्त हमला हुआ जब वे तृणमूल कांग्रेस के कुछ स्थानीय नेताओं के घरों पर छापा मारने जा रहे थे। मौके पर इन नेताओं के समर्थक इकट्ठा हो गए थे, और भीड़ के हमले में ईडी के अफसरों को चोटें आई हैं, और सिर फूटने से लहूलुहान अफसर की तस्वीरें दिल दहलाती हैं कि अगर सरकार के जांच अधिकारियों के साथ ऐसा हिंसक सुलूक किया जाता है तो किस तरह केन्द्र की जांच टीम राज्यों में जा सकती है, और किस तरह राज्यों की पुलिस किसी दूसरे राज्य में जाकर कार्रवाई कर सकती है? क्योंकि कोई भी जांच एजेंसी कहीं भी कार्रवाई करे, तो उसके निशाने पर कई बार ताकतवर लोग हो सकते हैं, और उनके समर्थक तो हिंसा की ताकत रखते ही हैं। केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियों के साथ बंगाल में सत्तारूढ़ ममता बैनर्जी के समर्थक पहले भी ऐसा कर चुके हैं। पिछले बरस जब सीबीआई की टीम कोलकाता के पुलिस कमिश्नर से शारदा चिटफंड घोटाले की पूछताछ के लिए पहुंची थी, तो स्थानीय पुलिस ने सीबीआई को कमिश्नर के घर के बाहर ही रोक दिया था, और इस कार्रवाई के खिलाफ ममता बैनर्जी 70 घंटे धरने पर बैठ गई थीं। इसके पहले एक दूसरे चिटफंड घोटाले की जांच के लिए एक फिल्म निर्माता के पास जा रही सीबीआई टीम को बंगाल पुलिस ने रोक दिया था। एक तो ममता बैनर्जी और केन्द्र की मोदी सरकार के रिश्ते लगातार खराब चल रहे हैं, और दोनों के बीच किसी लोकतांत्रिक बातचीत की संभावना भी नहीं दिखती है। दूसरी तरफ बंगाल में ममता बैनर्जी और उनकी पार्टी बहुत ही हमलावर तरीके से काम करती हैं। अब यह बात महज मोदी सरकार की ईडी और ममता के बीच की नहीं है, बंगाल के कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की है, और कहा है कि बंगाल की कानून व्यवस्था की स्थिति खराब है, ईडी अधिकारियों पर हमले हो रहे हैं, राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए यह उपयुक्त मामला है। मजे की बात यह है कि इंडिया नामक गठबंधन में कांग्रेस और तृणमूल के साथ रहने पर भी दोनों पार्टियों के बंगाल के नेताओं के बीच परले दर्जे की तनातनी चलती रहती है, और जितनी मांग भाजपा के नेताओं ने नहीं की है, उतनी मांग बंगाल कांग्रेस ने कर दी है। अब सवाल यह है कि अगर इसे बंगाल में संवैधानिक सत्ता खत्म हो जाना मानते हुए मोदी सरकार बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू करती है, तो कांग्रेस का राष्ट्रीय संगठन क्या खाकर दिल्ली में इसका विरोध करेगा?

 
खैर, हम राजनीतिक दलों की बयानबाजी से परे यह बात साफ करना चाहते हैं कि राजनीतिक मतभेद किसी भी सत्तारूढ़ पार्टी को यह हक नहीं देते कि वह अपनी राज्य सरकार की मेहरबानी से वहां कानून हाथ में ले, और अदालतों के जिंदा रहने पर भी खुद जांच एजेंसियों पर ऐसे हमले करे। इसके पहले भी कई मामलों में हमने देखा है कि तृणमूल के ऐसे हिंसक और हमलावर रूख को देखते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट ने राज्य के कई मामलों और कई घटनाओं पर कड़ा रूख दिखाया है, या तो केन्द्रीय एजेंसियों को जांच दी है, या राज्य सरकार से जवाब-तलब किया है। यह भी हो सकता है कि अपने अतिरिक्त हमलावर रूख के लिए मशहूर ममता बैनर्जी सोच-समझकर केन्द्र के साथ तनाव को इस स्तर पर ले जा रही हैं कि आने वाले लोकसभा चुनाव के पहले मोदी सरकार बंगाल विधानसभा भंग करके राष्ट्रपति शासन लगाने पर मजबूर हो जाए, और ममता उसे एक बड़ा चुनावी मुद्दा बना सके। 

लोगों का देखा हुआ है कि छत्तीसगढ़ में भी सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के दर्जनों लोगों के खिलाफ जब ईडी की कार्रवाई चल रही थी, तो कहीं-कहीं पर स्थानीय समर्थकों और नेताओं-कार्यकर्ताओं ने भारी भीड़ लेकर उसका विरोध किया था, और ईडी के अफसरों को स्थानीय पुलिस को खबर करके हिफाजत मांगनी पड़ी थी, लेकिन मामला हिंसा तक नहीं पहुंचा था। देश में जहां कहीं भी केन्द्रीय जांच एजेंसियां काम करती हैं, उनके बहुत से अधिकार राज्य सरकार से परे के रहते हैं, और राज्य सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी अगर उनकी किसी कार्रवाई से असहमत हैं, तो उन्हें अदालत जाना चाहिए, बजाय अपने समर्थकों के साथ सडक़ों पर शक्ति-प्रदर्शन करने के। सत्तारूढ़ पार्टी की हिंसा किसी दूसरी राजनीतिक पार्टी के लोगों के हिंसा के बजाय अधिक गंभीर होती है, क्योंकि यह माना जाता है कि सत्ता की मेहरबानी से उनकी बददिमागी हिंसा की ताकत रखती है। केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियों की कार्रवाई से बहुत सी राज्य सरकारें असहमत हो सकती हैं, देश में जगह-जगह ऐसी कार्रवाई को बदनीयत कहा भी जा रहा है, और कम से कम एक मामले में तमिलनाडु में स्थानीय पुलिस ने ईडी के अफसरों को रिश्वत लेते पकड़ा भी है जो कि राज्य के अधिकार क्षेत्र का मामला है। तमिलनाडु सरकार जिसका कि केन्द्र की मोदी सरकार के साथ टकराव चल रहा है, उसने कानूनी तरीके से जाल बिछाकर ईडी के अफसर को रिश्वत लेते रंगे हाथों गिरफ्तार किया। अगर राज्य सरकार के पास केन्द्र के अफसरों की किसी ज्यादती के सुबूत रहें, तो उन्हें इसी तरह कार्रवाई करनी चाहिए, लेकिन बंगाल में बार-बार होती हिंसा कानून व्यवस्था के कमजोर पडऩे का एक सुबूत तो है ही। 

ममता बैनर्जी की सरकार के कुछ मंत्रियों को भ्रष्टाचार की इतनी बड़ी रकम के साथ गिरफ्तार किया गया जो कि अविश्वसनीय रकम थी, और उसके पूरे सुबूत भी मिले। इसके अलावा कई तरह के दूसरे घोटालों में ममता के दूसरे कई मंत्री, कई नेता, और कई सरकारी अफसर फंसे हुए मिले हैं। अब ऐसी हालत में केन्द्रीय जांच एजेंसियों की कार्रवाई, चाहे वे सिर्फ भाजपा-विरोधी सरकारों पर ही क्यों न हो रही हों, किसी मासूम को फंसाने के लिए तो होती नहीं दिखती हैं। दूसरे भी कई राज्यों में जहां-जहां ईडी या आईटी की कार्रवाई हुई है, वहां कोई बेकसूर उसके घेरे में नहीं दिखते, यह एक अलग बात है कि मोदी सरकार को पसंद कई पार्टियों के नेताओं, या उनकी सरकारों पर कोई कार्रवाई नहीं होती। अपने लोगों के साथ रियायत एक अलग बात है, लेकिन विरोधियों पर कार्रवाई दुर्भावना से हो रही हों, ऐसा तो तभी साबित होगा जब विरोधी पहली नजर में ही भ्रष्ट और मुजरिम नहीं दिखेंगे। बहुत से राज्यों और बहुत से मामलों में यह बात साफ है कि केन्द्रीय जांच एजेंसियों की कार्रवाई पहली नजर में भ्रष्ट और मुजरिम दिखते लोगों पर ही हो रही है। इसलिए एनडीए के साथियों पर कार्रवाई न होने को हम इसके साथ जोडक़र देखना नहीं चाहते, और उस पर अलग से बात होनी चाहिए। सरकार को पसंद लोगों पर कार्रवाई न होने का मतलब नापसंद लोगों की हिंसा नहीं हो सकता। खासकर सरकारों और सत्तारूढ़ पार्टियों को संविधान का सम्मान करना चाहिए, और उनका विरोध कानूनी और लोकतांत्रिक रहना चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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